साहित्य/इंटरव्यू/संजीव: ‘‘धर्म सबसे बड़ा शोषक और जाति प्रथा सबसे घृणित’’
इस साल अपने उपन्यास ‘मुझे पहचानो’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजे गए कथाकार संजीव से उनके लेखन कर्म, जीवन, मौजूदा समाज और राजनीति की दशा पर हरिमोहन मिश्र ने विस्तृत बातचीत की। उसके अंश:
साहित्य अकादमी या कोई भी पुरस्कार रचनाकार से सुशोभित होता है। पुरस्कार देकर अकादमी ने अपना सम्मान बढ़ाया है। फिर भी लगता है कि आपको फांस पर मिलना चाहिए था।
पुरस्कार क्या होते हैं और कैसे काम करते हैं, सब जानते हैं। फिर भी अच्छा लगा, लोगों ने नोटिस लिया। मिल रहा है, तो इसे एंजॉय किया जाए। देने वालों को सलाम। जो पात्र, सुपात्र हैं, जिन्हें नहीं मिला है, उन सभी लोगों को मिलना चाहिए। उनकी मेधा को सम्मान दिया जाना चाहिए। आप तो मेरे साथ रहे हैं। आप देखते रहे हैं कि मेधा-संपन्न व्यक्ति को क्या-क्या करना पड़ता है। फिर सम्मानित होते हैं, तो यह देखना सुखकर होता है। मैंने पूर्वांचल पर, महेंद्र मिसिर पर एक अदद उपन्यास पूरबी बयार लिखा था। पूरब के जितने व्यक्ति हैं, वे सब उन कारखानों, कोलियरी या इस्पात के कारखानों में मजदूरी के लिए जाते रहे थे। इंडस्ट्री फैलती गई और लोग पहुंचते गए क्योंकि अपने यहां रोजी-रोटी की समस्या तब भी कठिन थी, अब भी है। आगे जो आसार आ रहे हैं, वे अच्छे नजर नहीं आ रहे हैं। इसलिए एक ममत्व (पूर्वांचल के प्रति) अपने आप विकसित होता गया।
मुझे पहचानो किसी खास दृष्टि को ध्यान में रखकर लिखा? कोई खास एजेंडा था मन में?
मुझे पहचानो अभी फिर पढ़ा, तो मुझे बहुत प्रिय लगा। मेरा फेवरेट है। आप एक औरत को, एक व्यक्ति को किस नजरिये से देखते हैं। आपने पढ़ा होगा, तो लगा होगा कि यह उपन्यास औरों से अलग है। नौकरी की खोज में एक व्यक्ति, जो सो कॉल्ड ब्राह्मण है, अपने दोस्त के पास जाता है। दोनों लगभग एक ही गांव के हैं। वह रजवाड़ों का इलाका है। वहां वह देखता है कि किस तरह रजवाड़े अलग ढंग की कुंठा में जी रहे हैं। छल-छद्म, झूठ-फरेब और क्या नहीं है उनके पास। उस इलाके में आम धारणा है कि यहां रत्न मिलते हैं। पन्ना से कलिंजर और आगे आते जाइए, तो वहां रत्न मिलते हैं। रत्नों की खोज में कथा चलती है और बड़े विचित्र ढंग से चलती है। होते-होते कथा आती है कि औरतों के प्रति नजरिया क्या है। इस बहाने उस इलाके में ऐसी दो कथाएं मिलीं। एक तो संभवत: तिवारी लोगों का था। वहां एक औरत सती कर दी गई। उसके बाद फिर एक और कथा है, जिसमें वह सती नहीं हो पाई। दरअसल औरतों के प्रति क्या नजरिया है कि आप उसको मान रहे हैं देवी और भीतर से उसके लिए भाव है, सेक्स वाला। यह भाव उनमें ज्यादा है, जो कुंठित टाइप के रजवाड़े हैं। कहानी झर-झर निर्झरनी की तरह बहती गई है। उसके ट्रेंड्स मॉडर्न हैं, उस जमाने से आते-आते कैसे बने, कैसे बिगड़े, यह है उसमें। उपन्यास तो वृत्तांत होता है।
हिंदी में आपने जितने उपन्यास लिखे, कोई नहीं लिख पाया है। 14 तो प्रकाशित ही हैं, अभी और लिखने की योजना है?
सत्रह बनेंगे।
कैसे इतना काम कर लेते हैं?
इसे क्या कहेंगे अनुशंसा, प्रशंसा, पता नहीं। मैंने बताया कि जिस इलाके पर मैं काम करता हूं, वह गजब इलाका है। वहां विचित्र-विचित्र कहानियां हैं। हर तरह की कहानियां हैं। इसे एक स्वाभाविक प्रवृत्ति समझिए। प्रेमचंद, मंटो, वृंदावन लाल वर्मा और जो बड़े-बड़े लोग हैं, सभी को देखिए। कहानी से कहानी निकलती जाती है। यह मेरे लिए बाएं हाथ का खेल है। चरित्रों के मुताबिक उसे ढाल लेना, मोड़ देना, दृष्टि का हमेशा परिष्कार रहना, मुझे कहां जाना है, वह अपने आप में स्पष्ट है। शरत बाबू और रवींद्र बाबू बहुत बड़े हैं, प्रेमचंद बहुत ही बड़े हैं। इससे नहीं, लेकिन प्रवृत्ति मेरी बनती गई।
कौन से लेखक आपको सबसे ज्यादा प्रिय हैं, जिनसे आपको प्रेरणा भी मिलती है और जिनके बराबर आप दिखना भी चाहते हैं?
बराबर होना तो बड़ी मुश्किल की बात है। प्रेरणा सभी से मिलती है। अंग्रेजी, बांग्ला, हिंदी, के सारे लोग मेरे पूजनीय हैं। किसी से कुछ लिया, किसी से कुछ मिला। भाषा किसी से ली, पात्र किसी से लिए। जैसे ताराशंकर बंद्योपाध्याय का गणदेवता है, उससे मुझे क्या मिला। तालाब के उस पार एक बूढ़ी औरत है। इस पार एक लगभग वैसी ही औरत है। दोनों में झगड़ा हो रहा है। जिंदगी के कितने लम्हे हैं जो अनछुए, अनचीन्हे, बिना पहचाने, अननोटिस चले जाते हैं। उसे मैंने देखा, तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्हें इससे क्या मिल रहा है जिंदगी में। लेकिन यह जिंदगी है, यहां भी जी जा रही है, उसका फ्लो है। ताराशंकर का अग्निकन्या राड़ अंचल या कुल्टी के आसपास का किस्सा है। इस तरह कहां से बटोरा, कहां से बीना, यह कहना आसान नहीं है।
कथाकार संजीव
आप कलकत्ता में नौकरी करते थे?
नौकरी क्या, मेरी जिंदगी जैसे-तैसे वहीं बीती। अगर मैं साइंस न लिया होता, तो पढ़ भी नहीं पाता और कुछ कर भी नहीं पाता। साइंस के बाद स्विच ओवर किया।
लोगों का कहना है कि आप मुद्दे चुनते हैं यानी प्रोजेक्ट बनाकर उसके इर्द-गिर्द कथा बुनते है। उनके मुताबिक यह स्वाभाविक रचनाकर्म से अलग है?
मैं क्या कहूं? मेरे एक मित्र हैं, पढ़ाए हुए लड़के भी हैं रामचंद्र ओझा। उनसे प्रेरित होकर मैंने बहुत सारी रचनाएं कीं। कथा लिए, पात्र लिए। उनके पिता जी नरेंद्रनाथ ओझा एक तरह से मेरे गुरु भी थे। एक और थे देवनाथ सिंह। इतने भिन्न-भिन्न मेरे गुरु रहे हैं। इतना मैंने पाया है लोगों से कि उनका ऋणी हूं। ऑस्त्रोवस्की और जो महान लेखक हैं, मुझे उतने अनुप्राणित नहीं करते, जितने ये लोग, जो मेरे इर्द-गिर्द फैले हुए हैं। जितनी भाषाएं-बोलियां अंगिका, वज्जिका, भोजपुरी वगैरह, सबके प्रधान तत्व मुझे उसी मजदूरों के इलाके में मिले। मैं संभ्रांतों का आदमी नहीं रहा कभी। न मुझे कुछ मिला। हां, यह था कि मुझे डिप्राइव किया गया। मुझे नौकरी में प्रश्रय नहीं मिला। कई दिक्कतों का सामना करते-करते मैं आगे बढ़ा। 19 साल तक प्रमोशन नहीं मिला। कठिनाइयों ने भी मुझे बनाया। कई बार तो कोई कंपिटीशन में हिस्सा लेना पड़ा, जैसे आइएसओ 9000 पर लिखिए और पुरस्कार 1,000 रुपये पाइए। मैंने उठाई कलम और लिख दिया। पैसा मिला गया, कुछ दिन के लिए निश्चिंत हो गया। जिंदगी जैसे-तैसे गुजार दी। फिर कारखाना बंद हो गया, तो इधर चला आया। यहां भी ऐसी-तैसी नौकरियां कीं। इसी तरह चलता रहा। जिंदगी यायावरी में बीती। जो मिल गया, उसी को मुकद्दर समझ लिया।
मेरी पैदाइश सो कॉल्ड कुम्हार जाति में हुई। जाति-प्रथा को मैं सबसे घृणित चीज मानता हूं। उससे बाहर निकल कर कैसे-कैसे में पढ़ता गया। जितना मैंने विज्ञान पढ़ा, उससे ज्यादा मैंने साहित्य पढ़ा। बाद में जितना पढ़ता गया, भूलता गया।
आपका लेखन कर्म मुझे पत्रकारिता के बहुत नजदीक दिखता है, इसी को साहित्य में कुछ लोग प्रोजेक्ट लेखन कहते हैं।
मैं (पत्रकारिता से) इन्सपायर्ड हूं। प्रोजेक्ट यह है कि इसमें (मुझे पहचानो) सती प्रथा आ गई, राजा राममोहन राय आ गए, बंगाल भी आ गया। और यहां का इलाका है। उससे मैंने अपने तत्व निकाले। कुछ भी मेरे लिए वर्जित नहीं रहा है। बिरहा हो रहा है, वहां चला गया। यहां तक कि रामलीला। आप लोग आम रामलीला देखते होंगे। हमारे लिए वह रामलीला नहीं थी। हमारे लिए कुछ भी चल जाएगा। बांग्ला रामलीला आपने नहीं देखी होगी। उसका फ्लेवर अलग है। फिर, मुसलमानों की रामलीला। केरल में मुसलमान रामलीला करते हैं। मैंने उनसे कहा कि लिख कर दो न, जिससे यह पता चले कि मुसलमान और हिंदू में कोई फर्क नहीं है। सांप्रदायिक सौहार्द पुष्ट होता है। इनका राम, उनका राम कोई फर्क नहीं है। तो, नहीं दे पाए। फिर, मैंने उसके आधार पर रामलीला लिखी। इतनी अच्छी हुई कि जब सीता को परित्यक्त करके छोड़ दिया गया था, सीता रो रही हैं, चारों ओर घना जंगल है। लक्ष्मण तो छोड़कर चले आए। भरत उनकी याद में श्मशान में बैठकर रो रहा है। कहां की सीता, कहां के भरत, लेकिन मानवीय पीड़ा व्यक्त होती है।
इसका मंचन हुआ था? क्या यह छपी है?
हां, मेरे संग्रह में है। भरत सीता के लिए रोता है। अलग-अलग रामलीला हैं। लेकिन यहां मैंने एक पर्टिक्यूलर चीज को पकड़ा, उस सेंटिमेंट को मैंने खेलाया। बच्चे बैठकर सुन रहे थे। उसके तत्व मैंने वाल्मीकि रामायण और दूसरी रामकथा से लिए। मेरे लिए लिखना सरल प्रवाह की तरह रहा है। शायद किसी भी महान लेखक से मेरी तुलना नहीं हो सकती, लेकिन सहज लेखक से तुलना हो सकती है। मैंने यात्राएं भी बहुत कीं और वहां से किस्से, भाव उठाए।
फांस के लिए तो आप विदर्भ गए थे न?
मैंने देखा, सामने किसान झूल रहा है। उनके घरों में भी गया। उदास चेहरा। विभूति नारायण राय ने मुझे साल भर के लिए रेजिडेंट लेखक की वृत्ति दी थी। तो, वहां मैं उस इलाके में टहलने लगा। यायावरी, चिंतन, लोगों से मिलना यह मेरे लिए बहुत काम आए। धर्म का रूप भी मैंने देखा, जिसने सबसे ज्यादा शोषण किया।
धर्म शोषक है और जाति! धर्म और जाति का रिश्ता क्या है?
धर्म बड़ा शोषणकर्ता है। धर्म और जाति एक ही है, जैसे रावण और मेघनाथ। एक आदमी दूसरे से छोटा है या बड़ा है, इसका डिसाइडिंग फैक्टर कौन है? कोई नहीं। आदमी आदमी होता है, न बड़ा, न छोटा। उसे छोटा-बड़ा बनाने के लिए ही तमाम तरह के भेद हैं।
आप कह रहे हैं कि धर्म और जाति भेद करने के लिए है। लेकिन आज उसका बहुत कोलाहल है। अयोध्या में राम मंदिर बन रहा है और उसे चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश है।
यह विशुद्ध स्वार्थ के लिए है। मैं अयोध्या के पास ही रहता हूं। मैंने देखा है कि वहां साधु-संन्यासी नंग-धड़ंग रहते हैं, क्या फायदा मिल रहा है, उन्हें जिंदगी का। एक दूसरे को लड़कर-भिड़ाकर, बड़ा-छोटा करके स्वार्थ साधते हैं। मुझे लगता है कि यह मनुष्य से मनुष्य को जुदा करने का सबसे अहम हथियार है।
मैं अभी सावित्रीबाई फुले पर लिख रहा हूं। आदमी आदमी में कोई फर्क नहीं है। एक ब्राह्मण और दलित में क्या फर्क है, कोई नहीं।
सोशल मीडिया पर भी यह चर्चा है कि पहली बार किसी पिछड़े को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला है।
देखिए, जिसको चर्चा करनी है, वे अपने एंगल से कर रहे हैं। मैं कौन हूं, क्या हूं, आदमी हूं। मेरे पास एक छोटा-सा दिमाग है, जो मैंने आप ही लोगों के संग-साथ से पाया है। मुझे उचित-अनुचित का विवेक है। एक बार मुझे पीएचडी कराना हुआ। तो वर्धा में एक लड़की आई शाम को सात बजे। उसने कहा कि मुझे पीएचडी करनी है रामकथा के तुलनात्मक अध्ययन पर। वाल्मीकि और तुलसी। रामकथा तो मैंने इतनी पढ़ी है कि मेरे रग-रग में बसती है। लिखने ने मुझे छात्र बनाया, मेरे अंदर शोध प्रवृत्ति भरी और मैं समस्याओं से दो-चार हुआ। सांस्कृतिक विचलन की सरणियों से गुजरते हुए सत्य को पहचानने की कोशिश और तप अच्छा लगता है।
आज राम का राजनीति में इस्तेमाल देखकर आपको क्या लगता है?
हंसी आती है, पीड़ा होती है। सब नशे में हैं। पाना क्या है, इसी के जरिये अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है। लक्ष्य क्या है? शासन। शासन का उद्देश्य क्या है आराम से खाइए-पीजिए, दूसरे को लूटिए और वर्चस्व कायम रखिए। आदमी, आदमी में इतना फर्क कर दिया गया है कि अफसोस होता है। मैंने देखा कि शैवाल जैसे ढंक ले पानी को, उस सड़ते पानी को बदलने की दरकार है। इसलिए मैं ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले जैसे निर्मल हृदय वालों पर काम कर रहा हूं। हमारे यहां कम है, दूसरे इलाकों में ज्यादा है।
क्या हिंदी समाज में सांस्कृतिक विचलन या अपचय दूसरे इलाकों के मुकाबले ज्यादा है क्योंकि यहां सांप्रदायिकता ज्यादा फैल रही है?
हिंदी पट्टी या जिसे गोबर पट्टी कहते हैं, वह स्वार्थ में अपनी टांग तोड़ बैठी है। क्या कहा जाए! जब तक होश आता है आदमी को तब तक मरण की घड़ी आ जाती है। कितना गलत हो रहा है। किसी को समझाइए, नहीं समझेंगे।
क्या इसी सांस्कृतिक अपचय ही वजह है कि राजनीति में बाकी धाराएं सूखती जा रही हैं?
एक तो गोबर पट्टी में डरपोक आदमी हैं, लालची हैं। इस पर भी मैंने लिखा है। हमसे बेहतर लिखा है लोगों ने, लेकिन क्या होता है। जब तक सांस्कृतिक आंदोलन नहीं होगा, तब तक कुछ नहीं होगा।
बंगाल, महाराष्ट्र, दक्षिण में सांस्कृतिक आंदोलन हुए, हिंदी बेल्ट में ऐसा नहीं दिखता…
डरपोक, स्वार्थी हैं इसलिए सांस्कृतिक आंदोलन उस स्तर पर नहीं हुआ, जहां से चीजें बदलती हैं। हुआ थोड़ा-बहुत, जैसे भोजपुरी वाले इलाके में नक्सल आंदोलन आया, जेपी की छात्र युवा संघर्ष वाहिनी भी आई, लेकिन उन सबका असर स्थाई नहीं हुआ। एक जाति का आदमी दूसरी जाति में विवाह नहीं करेगा, दाना-पानी भी नहीं उठाएगा। डरपोक हैं और कुछ नहीं।
क्या हिंदी पट्टी इससे उबर पाएगी कभी?
बहुत व्यापक आंदोलन की जरूरत है।
गांधी, लोहिया, जयप्रकाश सबका असर हुआ लेकिन थोड़े समय बाद असर टूट जाता है। क्यों?
दिनकर की कविता याद है आपको जब नाश मनुज का आता है, पहले विवेक मर जाता है। लोगों ने अपनी सहज बुद्धि को निर्वासित कर दिया है। बस रोजी-रोटी, लोभ ही रह गया है।
आरक्षण वाली बहस में सारे विचारक आंबेडकर, लोहिया या गांधी जाति तोड़ो या जाति नाश की बात कर चुके हैं। अब आरक्षण का मुद्दा जाति पहचान को मजबूत करने पर आ गया है। इस पर क्या कहेंगे?
यह सांस्कृतिक, सभ्यता, राजनीति के नाम पर जो हो रहा है, उसका नाश होना चाहिए। मुझे निराशा-सी होती है लेकिन मैं आशावादी भी हूं। शांतिपर्व में व्यास कहते हैं कि भला का भी अंत होता है तो बुरे का भी अंत होता है। यह दौर भी खत्म होगा, लेकिन शायद हम न देख पाएं।
सौजन्य: आउट लुक
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