उत्तराखंड में SC/ST कोर्ट नहीं बनने से संवैधानिक संकट की स्थिति, CM सहित 3 के खिलाफ जांच के आदेश
एक दलित महिला मीनू की हक की जद्दोजहद ने उत्तराखंड में संवैधानिक राजकाज पर सत्ता की मनमानी की कलई खोलकर रख दी है। सत्ता के नशे में राज्य सरकार द्वारा संविधान और एससी-एसटी एक्ट का ही उल्लंघन नहीं किया जा रहा बल्कि सबसे पहले समान नागरिक संहिता लागू करने का ढोल पीटने वाली धामी सरकार द्वारा, दलित हितों पर किस कदर बार-बार कुठाराघात किया जा रहा है, ताजा मामला उसका जीता जागता उदाहरण है। प्रकरण में हरिद्वार जिला कोर्ट ने सीएम पुष्कर सिंह धामी सहित 3 के खिलाफ वाद रजिस्टर्ड करते हुए, प्रमुख सचिव गृह को एससी-एसटी एक्ट के प्रावधानों और नियमों के तहत, जांच करा कर, एक माह में रिपोर्ट देने के आदेश दिए हैं।”
उत्तराखंड में दलित हितों के लिए संघर्ष का चेहरा बनकर उभरी मीनू की कहानी किसी हीरो से कम नहीं है। अपनी लड़ाई को समाज की लड़ाई में तब्दील कर चुकी मीनू हरिद्वार जिले के सिकरोढा गांव की निवासी है। मीनू ने 2022 में दलित महिला के लिए रिजर्व गांव की प्रधानी का चुनाव लडा था। लेकिन वह एक फर्जी जाति व निवास प्रमाण पत्र बनवाकर चुनाव लड़ी महिला नीलम से चुनाव हार गई। मीनू की शिकायत पर जांच के बाद डीएम हरिद्वार ने उस महिला नीलम का निवास प्रमाण पत्र तो निरस्त कर दिया परंतु संविधान के अनुच्छेद 341 का उल्लंघन कर, बनाया गया फर्जी जाति प्रमाण पत्र निरस्त नही किया। इस पर मीनू ने आवाज उठाई तो पता लगा कि संविधान के आर्टिकल 341 का उल्लंघन कर उत्तराखंड सरकार ने अनुसूचित जाति (SC) की एक उपजाति शिल्पकार की उपजातियां (पर्यायवाची नाम) बताते हुए, 48 अन्य जातियों को एससी में शामिल कर रखा है और अनुसूचित जाति के राजनैतिक और सरकारी नौकरियों के आरक्षण में बड़ी सेंध लगा रखी है।
गैर कानूनी और गैर संवैधानिक तरीके से बिना राष्ट्रपति व संसद के अनुमोदन के एससी की एक उपजाति की भी उपजातियां (पर्यायवाची नाम) बताकर दलितों के आरक्षण में सेंधमारी के खिलाफ मीनू के राज्य के बड़े अधिकारियों के विरुद्ध एससी-एसटी एक्ट के मुकदमे दर्ज कराए जो लगभग पेंडिंग पड़े हैं। इसका कारण भी संवैधानिक उल्लंघन ही निकला। जी हां, राज्य में एससी-एसटी एक्ट के तहत स्पेशल कोर्ट का गठन ही नहीं किया गया है। एससी-एसटी कोर्ट ना होने के कारण, एक्ट से संबंधित इन मामलों में समयबद्ध सुनवाई एक सपना ही बना है। इस पर मीनू ने एससी-एसटी एक्ट कोर्ट ना बनाने को लेकर सीएम पुष्कर सिंह धामी सहित तीन के विरुद्ध हरिद्वार जिला कोर्ट में केस फाइल किया और संवैधानिक उल्लंघन करार देते धामी सरकार को बर्खास्त करने की मांग की। इस पर जिला जज ने सुनवाई के बाद, सीएम व मुख्य सचिव सहित 3 के विरुद्ध एससी- एसटी एक्ट की धारा 4 का केस रजिस्टर्ड करते हुए, एक्ट के प्रावधानों के तहत प्रशासनिक जांच के आदेश देते हुए, प्रमुख सचिव गृह को एक माह में रिपोर्ट देने के आदेश दिए हैं। मामले में 5 फरवरी 2024 को अगली सुनवाई होगी।
महामहिम राष्ट्रपति द्वारा जारी राजाज्ञा के अनुपालन में उत्तराखंड में अब तक नहीं बने एससी- एसटी एक्ट के विशेष न्यायालय
संविधान बचाओ ट्रस्ट के अध्यक्ष राजकुमार मीनू की इस लड़ाई में बतौर अधिवक्ता मामलों की पैरवी कर रहे हैं। एडवोकेट राजकुमार के अनुसार, उत्तराखंड राज्य में विधि द्वारा स्थापित संसद द्वारा पारित महामहिम राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित एससी-एसटी एक्ट 1989 की संशोधित राजाज्ञा दिनांक 1 जनवरी 2016 की धारा 14 के अनुपालन में आज तक एससी-एसटी एक्ट के विशेष न्यायालय का गठन नहीं किया गया है। पूरे उत्तराखंड में अलग-अलग जनपदों में अलग-अलग अपर जिला जज एससी- एसटी एक्ट के मामलों की सुनवाई कर रहे हैं। जनपद हरिद्वार में जिला जज तो देहरादून में अपर जिला जज पंचम सुनवाई कर रहे हैं। स्पेशल कोर्ट का गठन नहीं किया गया है। इसलिए एससी-एसटी एक्ट के मुताबिक किसी भी केस में उत्तराखंड राज्य में अधिनियमानुसार प्रतिदिन सुनवाई कर 60 दिन में निर्णय नहीं हो पा रहे हैं। जो न सिर्फ एक्ट का उल्लंघन है बल्कि राज्य में एक नए संवैधानिक संकट की ओर भी इशारा करता है।
इसी सब से हरिद्वार जनपद के ग्राम सिकरौढा निवासी मीनू ने उत्तराखंड राज्य में एससी-एसटी कोर्ट गठित ना होने पर इसे एक्ट का उल्लंघन माना और जनपद न्यायाधीश के न्यायालय में प्रदेश के मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और प्रमुख सचिव गृह को पक्षकार बनाते हुए एससी-एसटी एक्ट की धारा 4 एवं आईपीसी की धारा 166, 167 में फौजदारी प्रकीर्ण वाद संख्या 234/2023 योजित किया जिसे 22 दिसंबर 2023 को जिला जज हरिद्वार ने स्वीकार करते हुए आदेश पारित कर, उत्तराखंड राज्य के प्रमुख सचिव गृह को एससी-एसटी एक्ट के प्रावधानों व नियमों के अनुसार, एक्ट की धारा 4 के प्रकरण की प्रशासनिक जांच करा कर, आख्या एक माह में न्यायालय में प्रेषित करने के आदेश दिए हैं। खास है कि राजकुमार के अनुसार, एससी- एसटी एक्ट में लोक सेवक द्वारा एससी- एसटी एक्ट और उसके नियमों का उल्लंघन किए जाने पर, उसकी प्रशासनिक जांच एससी- एसटी एक्ट 1989 की नियमावली 1995 के नियम 8(1)IX के अनुसार अपर पुलिस महानिदेशक या पुलिस महानिदेशक की अध्यक्षता में गठित विशेष जांच प्रकोष्ठ के जांच करने का प्रविधान है।
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हरिद्वार निवासी मीनू ने मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और प्रमुख सचिव (गृह) सहित शीर्ष अधिकारियों पर हर जिले में विशेष एससी/एसटी अदालतें स्थापित करने के निर्देश की उपेक्षा करने का आरोप लगाया है। याचिकाकर्ता, जो एससी समुदाय का सदस्य है, ने जिला न्यायाधीश पर पहले से केसों के बढ़े बोझ और लंबित मामलों में वृद्धि पर भी प्रकाश डाला तो उनके अधिवक्ता ने सभी जिलों में इन अदालतों की आवश्यकता पर बल दिया। हालांकि, एसपीओ धर्मेश कुमार ने तर्क दिया कि उत्तराखंड में लंबित मामलों की कम संख्या के कारण अलग अदालतें अनावश्यक हैं। इस पर सुनवाई के बाद हरिद्वार के जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने शुक्रवार को प्रमुख सचिव (गृह) को जांच में तेजी लाने और एक महीने के भीतर रिपोर्ट सौंपने का निर्देश दिया।
याचिकाकर्ता, हरिद्वार की मीनू (23), एससी समुदाय से है और पहले ग्राम प्रधान का चुनाव लड़ चुकी है। उन्होंने अपने आवेदन में इस बात पर प्रकाश डाला कि हरिद्वार में, एससी-एसटी एक्ट के मामलों को पहले से ही बोझ से दबे जिला न्यायाधीश द्वारा संचालित और निपटाया जाता है, जिससे लंबित मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है। मीनू के अधिवक्ता राजकुमार ने बताया कि एससी-एसटी (संविधान संशोधन) एक्ट मामलों के त्वरित समाधान के लिए हर जिले में विशेष एससी/एसटी अदालतों के निर्माण को अनिवार्य करता है। उन्होंने कहा, “उत्तराखंड को छोड़कर, हर राज्य में विशेष एससी/एसटी अधिनियम अदालतें कार्यरत हैं। यह सुनिश्चित करना मुख्यमंत्री और राज्य सरकार का कर्तव्य है कि ये अदालतें सभी जिलों में गठित हों।”
इस बीच, एसपीओ धर्मेश कुमार ने तर्क दिया कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों के विपरीत, उत्तराखंड में एससी/एसटी अधिनियम के कम मामले दर्ज होते हैं। कहा “ज्यादातर मामले तीन जिलों- देहरादून, हरिद्वार और उधम सिंह नगर से आते हैं। इनमें से भी, प्रत्येक में लगभग 50 मामले ही लंबित हैं। चूंकि जिला न्यायाधीश एससी/एसटी अधिनियम के मामलों को संभालते हैं, इसलिए अलग अदालतें आवश्यक नहीं हैं, जिससे धन और संसाधनों की बचत होती है।
सीएम की अध्यक्षता वाली 25 सदस्यीय कमेटी करती है एक्ट की मॉनिटरिंग
एडवोकेट राजकुमार के अनुसार, भारत में किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री के विरुद्ध एससी-एसटी एक्ट की धारा 4 का यह प्रथम मुकदमा है। प्रत्येक राज्य में एससी-एसटी एक्ट 1989 की नियमावली 1995 के नियम 16 के अंतर्गत प्रत्येक राज्य में मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एससी-एसटी एक्ट के मामलों के लिए राज्य स्तरीय सतर्कता और मॉनिटरिंग समिति गठित है, जिसमे मुख्यमंत्री सहित 25 उच्चाधिकारी सदस्यों की हाई पावर कमेटी गठित है जिसका कर्तव्य है कि वह एससी एसटी एक्ट के क्रियान्वयन के संबंध में अपने प्रदेश में एससी- एसटी के पीड़ितों के साथ न्याय दिलाए। परंतु उत्तराखंड राज्य में एससी-एसटी विशेष न्यायालयों की स्थापना ना करके एससी-एसटी एक्ट का उल्लंघन किया गया है।
सौजन्य: न्यूज़ क्लिक
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