रघुराम राजन और रोहित लाम्बा की किताब ‘ब्रेकिंग द मोल्ड’: देश के वर्तमान हालात पर तीखी टिप्पणी
नई दिल्ली। यह पुस्तक अपने शीर्षक में ‘भारत के आर्थिक भविष्य की पुनःकल्पना’ की बात करती है। जाहिर है, जो चल रहा है उससे लेखक सहमत नहीं हैं। इस पुस्तक के दो लेखक हैं- रघुराम जी. राजन और रोहित लाम्बा। लेखकों ने इस पुस्तक के परिचय में ही बताया है कि दोनों ही सरकार के साथ काम कर चुके हैं।
इस कारण से भी यह पुस्तक भारत की आर्थिक प्रगति के संदर्भ में जिस आलोचना को रखती है, वह उन नीतियों की है जो या तो गलत तरीके से बनाई गईं या जो चली आ रही हैं उसमें आई खामियों को सुधारा नहीं गया है। इससे अधिक पर यह पुस्तक काम नहीं करती है। यह नीतियों के संदर्भ में ही मैक्रो और माइक्रो अर्थव्यवस्था संरचना की व्याख्या और इन्हीं संदर्भों में ‘भविष्य की पुनः कल्पना’ करती है। पुस्तक के लंबे परिचय में लेखकों ने लिखा है- “अगर आप समाज के थोड़े कम-सुविधा संपन्न वर्ग में हैं तो आप संभवतः एक ऐसे आर्थिक माहौल का अनुभव कर रहे होंगे, जो अधिक अनिश्चित हो गया है, जिसमें बच्चों को अच्छे स्कूलों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश दिलाने के लिए भारी प्रतिस्पर्धा है और उसके बाद बहुत कम संख्या में अच्छी नौकरियां उपलब्ध हैं। आपके पास सामाजिक समर्थन बेहद कम है, खासकर अनजान बड़े शहरों में यह मदद उपलब्ध नहीं है इसलिए एक मेडिकल इमरजेंसी ही आपको या आपके पड़ोसियों को गरीबी के दलदल में धकेलने के लिए पर्याप्त है। अधिकांश भारतीय आपके जैसे ही हैं, जो कुछ बेहतर की उम्मीद करते हुए वर्तमान को झेल रहे हैं।”
यह वर्तमान हालात पर एक तीखी टिप्पणी है। जब राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की थी तब उसका हिस्सा कुछ समय के लिए रघुराम राजन भी बने थे। राहुल गांधी ने उनके साथ एक साक्षात्कार किया था। उस साक्षात्कार में वह भारत की जीडीपी दर से अधिक दूसरी समस्याओं पर बात करते हैं। वह भारत के ‘महान’ बनने से अधिक उन मूलभूत नीतियों की बात कर रहे थे, जिससे भारत की अर्थव्यवस्था के पिछले 20 सालों के चलन से हटकर एक नई अर्थव्यवस्था के निर्माण की ओर जाया जा सके।
उस साक्षात्कार में वह सेवा क्षेत्र और तकनीक के प्रयोगों, उपयोगों के बारे में बता रहे थे। इस पुस्तक पर उस साक्षात्कार की गहरी और विस्तृत छाप को देखा जा सकता है। लेखक पूंजीवादी आर्थिक विकास के साम्राज्यवादी दौर में बने, खासकर अमेरीकी नेतृत्व में बने क्षेत्रीय प्रभुता के इतिहास से सीखने और इसी संदर्भ में भारत को क्षेत्रीय आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने के उद्देश्य से राजनीतिक परिपक्वता का आग्रह पेश करते हैं। वह बताते हैं कि चीन ने 1980-90 के दशक में जिन नीतियों का सहारा लिया और मैन्युफैक्चरिंग को अपने विकास का आधार बनाया आज उससे वह आगे निकल गया है। आज यह देश मैन्युफैक्चरिंग नीतियों से हट रहा है और सेवा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर काम कर रहा है। मैन्युफैक्चरिंग अब बांग्लादेश और वियतनाम की तरफ खिसक रहा है।
पुस्तक इस बात को रेखांकित करती है कि अब हम उस खाली जगह को भरने की बात कर रहे हैं जबकि उत्पादन की स्थितियां और बड़े देशों की चिंताओं में काफी बदलाव आ गया है। इसी तरह वह मैन्युफैक्चरिंग को आकर्षित करने के लिए सब्सिडी नीति का हवाला देते हुए बताते हैं कि यह हमारी अर्थव्यवस्था के लिए एक फिजूलखर्ची है और यदि हम इस नीति पर टिके रहते हैं तो यह विकास के रास्ते को नुकसान भी पहुंचायेगा। वह लिखते हैं- “संक्षेप में कहें तो भारत चिप निर्माण में पैर जमाकर सुरक्षा हासिल नहीं कर सकता। अगर बहुत सावधानी से योजना न बनाई गई तो चिप निर्माण सफेद हाथी साबित हो सकता है।” यह बात वह मोबाइल निर्माण के संदर्भ में करते हैं और ऐसे क्षेत्र की भी जिसमें अतिरिक्त मूल्य योगदान बेहद कम होता है।
लेखक साम्राज्यवादी पूंजी के मुनाफा निर्माण को मुस्कराहट के कर्व की तरह पेश करते हुए बताते हैं कि आरम्भ शोध और संरचना निर्माण का है, मुस्कराहट कर्व का निचला हिस्सा मैन्युफैक्चरिंग और फिर उठता हुआ हिस्सा बाजार में माल को उतारने का सारा प्रबंधन है। उनका तर्क है कि आज के समय में भारत के लिए तय करना जरूरी है कि मुस्कराहट के इस कर्व में हमें कहां खड़ा होना है। वह सेवा को पहलकदमी, मैन्युफैक्चरिंग और पूंजी के प्रबंधन के साथ जोड़ते हुए बताते हैं कि भारत इस दिशा में अच्छा काम कर सकता है। लेकिन वह इसके लिए उन चिंताओं को रखते हैं जिसकी वजह से इस दिशा में बढ़ने में रुकावटें हैं। वह भारत की टाइगर भंगिमा, अधिनायकवादी रुख, धर्म और विविध मानकों के आधार पर भेदभाव और साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्था के सघन एकतांत्रिक व्यवस्था में बदलते जाने को चिन्हित करते हैं।
वह चेहरा चमकाने के लिए परेशान करने वाले तथ्यों को दबा देने, शोध को हतोत्साहित करने और नीतियों की खामियों पर पुनरिक्षण से बचने वाली प्रवृतियों के बारे में बताते हैं। वह भारत की विदेश नीति की खामियों को आर्थिक परिप्रेक्ष्य में चिन्हित करते हैं और एक लड़ाकू की भूमिका में आने की बजाय वह एक नेतृत्वकारी की भूमिका के निर्वाह की उम्मीद करते हैं। इस संदर्भ में लेखकों ने काफी खुलकर कहा है। इस पुस्तक में एक पूरा अध्याय ही इसी पर है- ‘गलत राह’। पाठक और संपादक के बीच हो रहे संवाद की शैली में लिखा गया यह अध्याय बोलने की आजादी से लेकर विकास के दावे और इतिहास को लेकर छेड़ी गई बहसों को काफी बेबाकी से पेश करता है। यह पुस्तक मोदी के नेतृत्व वाले भारत की अर्थव्यस्था की आलोचना पेश करती है और उसकी कमियों, उसकी नीतियों की खामियों को उजागर करती है। साथ ही, यह बताती है कि भारत की अर्थव्यवस्था को किस तरफ जाना चाहिए। इसके दूसरे पक्ष का हिस्सा काफी बड़ा है जिसे बेहद आसान भाषा में रोचक आंकड़ों के साथ पेश किया गया है।
यदि आप अर्थव्यवस्था के मौलिक सवालों के साथ इस पुस्तक को पढ़ना शुरू करेंगे, तब यह उतनी ही निराश करने वाली साबित होगी और जिन नीतियों को अख्तियार करने के बारे में यह कहती है, उससे आप झुंझला सकते हैं। यह खेती के संकट को पंजाब के खेती के संकट के नजरिये से देखती है। इसमें भी सिर्फ और सिर्फ उत्पादन और पूंजी निर्माण के संदर्भ में। लेखक खेती और पूंजी को मालिकाना की संरचना में नहीं देखते हैं। वे खेत में मालिकाना हक से अधिक इस पर आश्रित आबादी को लेकर चिंतित हैं और इसे खेत से बाहर निकालने के लिए सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र में होने वाले निवेश, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के माध्यम से हल कर लेना चाहते हैं।
बिल्कुल यही स्थिति पूंजी के मालिकाना संरचना को लेकर भी है। लेखक जानते हैं कि इसके मालिकाना अवस्थिति में कई समस्याएं हैं और राजनीति के साथ जुड़कर क्रोनी कैपिटलिज्म को पैदा करते हैं। लेकिन, इसका हल भी वे विश्वविद्यालयों के शोध संस्थानों से निकलने वाले नये उद्यमियों में देखते हैं। वह मालिकाना संरचना से अधिक पूंजी के स्वतंत्र गतिविधि के बनाये रखने के आग्रह में ही सारी सर्जनात्मकता और मुनाफा का सृजन देखते हैं। कमोबेश यह ‘ट्रिकल डाउन थियरी’ ही है और यह कीन्स के सिद्धांत से भी मेल नहीं खाता है। जबकि भारत जैसे देश में भूमि और पूंजी के मालिकाना हक का सीधा अर्थ उत्पादन पर हक भी होता है। उपरोक्त बातों के संदर्भ में भारत की 80 प्रतिशत जनता इन हकों से मरहूम रही है। वहीं, उत्पादन के बाजार मूल्य पर शहरी जरूरतों का दबाव और पूंजी निर्माण की हवस रही है, जिससे भारत का ग्रामीण और शहरी मजदूर बदतर हालात में बने रहने के लिए मजबूर हुआ। ये संदर्भ इस पुस्तक में नहीं हैं। दरअसल इस पुस्तक की संरचना ही इन संदर्भों को बाहर कर देती है और सृजनशीलता के उस ख्वाब को रेखांकित करती है जिसे भारत का नवधनाढ्य वर्ग देख रहा है और देखना चाहता है।
यदि आप मोदी के नेतृत्व में बनी भारत की अर्थव्यवस्था और उसकी दक्षिणपंथी फासीवादी प्रवृत्ति से भरी राजनीति की आलोचना को पढ़ना चाहते हैं, तब यह पुस्तक जरूर पढ़ी जानी चाहिए। यदि आप इस पुस्तक में किसी ऐसे वैकल्पिक अर्थव्यवस्था और भारत की दिशा तलाशने के लिए पढ़ रहे हैं जो जनोन्मुखी हो और भारत को जनवाद की तरफ ले जाये, तब आप बेहद निराश होंगे। लगभग 300 पेज की यह पुस्तक भारत के निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर चलने के दौरान बने सैकड़ों गड्ढों को थोड़ा ही सही, लेकिन बेहतर तरीके से बताती है। निश्चित ही इस पुस्तक के ये संदर्भ वही नहीं है, जो अमर्त्य सेन, ज्यां द्रेज, अभिजीत बनर्जी आदि की पुस्तकों में दिखते हैं।
वस्तुतः ये संदर्भ भारत को साम्राज्यवादी पूंजी के राज में और अधिक प्रतियोगी होने का आग्रह करती है, और इसी में अपनी जगह बनाते हुए मुनाफा और संपन्नता का राज बना लेने का ख्वाब दिखाती है।
सौजन्य : जनचौक
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