जातिगत गणित से ऊपर नहीं उठ पा रहे राजनीतिक दल
लखनऊ, 02 नवम्बर (हि.स.)। लोकसभा चुनाव की तैयारियों में कामों से ज्यादा राजनीतिक दल जातिगत गणित को बैठाने में लगे हुए हैं। भाजपा और कांग्रेस भी सर्व समाज की बात तो करती है, लेकिन जा तीय गणित वहां भी हावी है। एक तरफ पिछड़ा वर्ग को लुभाने के लिए भाजपा ने अपना दल एस, निषाद पार्टी से समझौता किया तो वहीं राजभर समाज को जोड़ने के लिए ओम प्रकाश राजभर को पुन: अपने साथ ले आये। दूसरी तरफ पिछड़ा वर्ग के लिए विभिन्न तरह के कार्यक्रम भी आयोजित कर रही है। वहीं समाजवादी पार्टी ने पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) के गठजोड़ की बात की है। कांग्रेस भी पिछड़ों को लुभाने की कोशिश कर रही है। इन सबके बीच बसपा अभी मौन होकर चारों तरफ निगाहें लगाए हुए है।
सबसे ज्या दा जातीय गणित की मास्टर बसपा चुनावी राज्यों पर ध्यान केंद्रित कर रही है। दरअसल बसपा का अभी सिर्फ राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में अधिकतम वोट शेयर की है, जिससे वह आगे की राजनीति में कदम-ताल मिला सके। मध्य प्रदेश में मायावती की भी पांच चुनावी सभाएं होने वाली हैं। उनका पूरा ध्यान विशेष तौर पर राजस्थान और मध्य प्रदेश पर है। यदि वहां पर अच्छा कर ले जाती है, तो यूपी में भी अपने समर्थकों को दिखाने के लिए उसके पास कुछ आधार हो जाएगा। अब देखना यह होगा कि ब्राह्मण दलित गठजोड़ में पिछली बार फेल हो चुकी मायावती इस बार किस तरफ अपना रूख करती हैं।
इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषक राजीव रंजन सिंह का कहना है कि जातीय गणित बैठना हर दल की मजबूरी है। भारत के राजनीति की शुरूआत ही वहीं से होती है, उसके बिना राजनीति असंभव है। हालांकि जार्ज फर्नांडिस ने बिहार जैसे प्रदेश में जातिगत गणित को झुठला दिया था और वहां पर हर बार वे विजयी रहते थे। इस तरह के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं, फिर राजनीतिक दलों को जातिगत गणित सबसे आसान तरीका दिखता है।
वरिष्ठ पत्रका र विजय पांडेय का कहना है कि जातिगत भेदभाव के आधुनिक जनक राजनीति ही है। नेता हमेशा जातिगत आधार पर एक दूसरे को बरगलाते हैं, जबकि हर नेता अपनी जाति के अपने क्षेत्र में दूसरे नेता को पनपने नहीं देना चाहता। यदि राजनीति से जातिगत भेदभाव खत्म हो जाय तो समाज भी जाति से मुक्त हो सकता है।
सौजन्य : Hindusthan samachar
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