विद्रोह का साहित्यिक प्रतीक हैं ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएं
विद्रोह का साहित्यिक प्रतीक हैं ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएं
इस बात को कतई नहीं नकारा जा सकता है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि उत्तर प्रदेश में पहाड़ से टूटकर नदी में गिरा वह पत्थर थे जो बहाव के साथ महाराष्ट्र आया और किनारे तक पहुंचते हुए यह पत्थर चमकीले कंचे में तब्दील हो गया।
कविता एक राजनीतिक कृत्य है क्योंकि इसमें सच बोलना शामिल है”, जून जॉर्डन का यह वाक्य पढ़ते ही मेरे मानसिक पटल पर ओमप्रकाश वाल्मीकि की तस्वीर उभरने लगती है। हिंदी के साहित्य की कविताओं में समाज के सच की आत्मा उन्होंने ज़बरदस्त तरीके से भरी थी। असर ये रहा कि आज भी उनकी कविताएं पढ़ी जाती हैं, मंचित की जाती हैं, इस देश की संसद में पढ़ी जाती हैं। साहित्य की तमाम विधाएं समाज में पनपते मुद्दों का आइना होती हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी अपनी कहानी लिखने की कला, कविताएं लिखने के हुनर से दलित समाज की परिस्थितियों से, उनके जीवन से समाज को रूबरू कराया है। यही वजह है कि दलित हिंदी साहित्य में उनका स्थान बहुत ऊंचा है। हालांकि, अधिकतर पाठक उनकी आत्मकथा जूठन से ज़्यादा परिचित होंगे।
ओमप्रकाश वाल्मीकि के शब्दों ने महाराष्ट्र में लिया था आकार। 30 जून 1950 को उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर में जन्मे ओमप्रकाश के लेखन को धार महाराष्ट्र में आकर मिली थी। चंद्रपुर के कवि और विश्वासपात्र लोकनाथ यशवंत कहते हैं, “ओमप्रकाश वाल्मिकी को महाराष्ट्र और उसकी अंबेडकर-दलित राजनीति ने आकार दिया था। उत्तर प्रदेश में, उन्हें रामायण और महाभारत जैसे पारंपरिक कथा महाकाव्यों से अवगत कराया गया। ये केवल राम और कृष्ण और हिंदू देवता थे। महाराष्ट्र में ही उन्होंने बाबा साहेब आंबेडकर के महत्व, दलित पैंथर आंदोलन के योगदान और मराठी में दलित आत्मकथाओं की परंपरा को समझा।”
इस बात को कतई नहीं नकारा जा सकता है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि उत्तर प्रदेश में पहाड़ से टूटकर नदी में गिरा वह पत्थर थे जो बहाव के साथ महाराष्ट्र आया और किनारे तक पहुंचते हुए यह पत्थर चमकीले कंचे में तब्दील हो गया।
मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि की पहली कविता ठाकुर का कुआं ही पढ़ी थी जिसे पढ़कर मुझे महसूस हुआ कि हज़ारों पन्नों की किताब में शोषण की थियरी का पूरा सार उन्होंने चंद पंक्तियों में दे दिया था। उनकी कविताओं के पूरे तीन संग्रह छपे हैं, सदियों का संताप (1989), बस! बहुत हो चुका (1997) और अब और नहीं (2009)। कविता ठाकुर का कुआं। ओमप्रकाश वाल्मीकि के साहित्य ने उत्तर में दलित आंदोलन को मजबूती दी है, उनकी कविताएं दलित लोगों के संघर्ष, जीवन की साथी बनी हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भी अपनी कहानी लिखने की कला, कविताएं लिखने के हुनर से दलित समाज की परिस्थितियों से, उनके जीवन से समाज को रूबरू कराया है। यही वजह है कि दलित हिंदी साहित्य में उनका स्थान बहुत ऊंचा है। हालांकि, अधिकतर पाठक उनकी आत्मकथा जूठन से ज़्यादा परिचित होंगे।
ऑस्ट्रेलिया में हिंदी पढ़ रहे जेम्स एडवर्ड्स उनकी कविता ठाकुर का कुआं के संदर्भ में लिखते हैं, “वाल्मिकी ने दलित दृष्टिकोण से दैनिक ग्रामीण जीवन के परिश्रम का वर्णन बहुत ही कुशलता से किया है। ऐसा उन्होंने एक भी क्रिया का उपयोग किए बिना किया है।” ठाकुर का कुआं कविता एक शोषक (सवर्ण) और शोषित (दलित) के बीच शोषण के रिश्ते को बयान करती है, उनके बीच पावर डायनामिक्स ऐसा है कि अंत में शोषित जिस चीज़ को अपना कह सके वह बचता ही नहीं है। उसके पास अपना कहने को कोई श्रोत, कोई पूंजी नहीं है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि के साहित्य ने उत्तर में दलित आंदोलन को मजबूती दी है, उनकी कविताएं दलित लोगों के संघर्ष, जीवन की साथी बनी हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की ऐसी ही एक कविता है “तब तुम क्या करोगे” शीर्षक से, उसका एक पैराग्राफ देखते हैं, “यदि तुम्हें, धकेलकर गाँव से बाहर कर दिया जाए पानी तक न लेने दिया जाए कुएँ से दुतकारा-फटकारा जाए चिलचिलाती दुपहर में कहा जाए तोड़ने को पत्थर काम के बदले दिया जाए खाने को जूठन तब तुम क्या करोगे?” यह कविता खुद को दलित हितैषी घोषित करते हुए लोगों को सुनाई/पूछी जाए तो जो ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस कविता के अंत में लिखा है उनके साथ वैसा ही घटित होने की पूरी संभावना है।
कविता को सवालिया बना देना, बावजूद इसके उसका कवितापन बचा रहे, साहित्य में ऐसा कमाल ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ही किया है। हालांकि वह यह लिखते हुए कितने दर्द से गुज़रे होंगे इसका अंदाज़ा समुदाय के लोग ही लगा सकते हैं। कविताएं उन लोगों के बारे में जो औरों से अधिक मानवीय हैं। यूं तो मुझे उनकी लगभग सभी कविताएं पसंद हैं लेकिन एक कविता मेरे दिल के बहुत करीब है जिसे मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि की ज़ुबान से यूट्यूब पर सुना था। कविता है -“वे भूखे हैं पर आदमी का मांस नहीं खाते प्यासे हैं पर लहू नहीं पीते नंगे हैं पर दूसरों को नंगा नहीं करते उनके सिर पर छत नहीं है पर दूसरों के लिए छत बनाते हैं।” दलित समुदाय की भुखमरी से वे बहुत परिचित थे क्योंकि उन्होंने इस भुखमरी को जिया था। बावजूद इसके इस समुदाय के लोग किसी के लिए हिंसक नहीं हो पाते हैं। बिहार के मुसहर चूहों को खाने पर मजबूर हो गए लेकिन किसी सवर्ण का गला पकड़कर अपने बेहतर जीवन के लिए उसे मारा नहीं।
मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि की पहली कविता ठाकुर का कुआं ही पढ़ी थी जिसे पढ़कर मुझे महसूस हुआ कि हज़ारों पन्नों की किताब में शोषण की थियरी का पूरा सार उन्होंने चंद पंक्तियों में दे दिया था।
हालांकि, अन्याय सहते जाना एक मात्र रास्ता नहीं होता लेकिन विद्रोह में भी दलितों ने सवर्णों का खून नहीं किया है। बाबा साहब ने अहिंसक आंदोलनों की नींव रखी थी जिसे आजतक इस देश के दलित भूले नहीं हैं। दलितों की दरिद्रता पर खूब लिखा गया लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि ने उनकी खूबी पर लिखा, यह कविता इसका परिचय है कि दलित जो ‘गंदे’ माने जाते हैं वही इंसान हैं क्योंकि विषम से विषम परिस्थितियों में भी वे इंसानियत खोकर खूंखार नहीं हुए हैं।दलित काव्य न्याय की पुकार है।
दलित बच्चों को मारा जाना, दलित महिलाओं के साथ यौनिक शोषण, दलित बस्तियों को जलाना इस देश में इतना सामान्य है कि किसी के चेहरे पर शिकन नहीं आती है। 2012 में कुल 33,655 मामले, 2013 में 39,408 मामले और 2014 में 47,064 मामलों के साथ-दलितों पर अत्याचार के बढ़ते मामले बताते हैं कि भारत अपनी आबादी के बड़े हिस्से से अधिक लोगों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता है। बावजूद इसके सवर्णों के तर्क होते हैं कि दलितों को उनके बराबर आकर संघर्ष करना चाहिए, और दलितों द्वारा आरक्षण का इस्तेमाल उनकी कमज़ोरी है और सवर्णों के साथ अन्याय।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की ऐसी ही एक कविता है “तब तुम क्या करोगे” शीर्षक से, उसका एक पैराग्राफ देखते हैं, “यदि तुम्हें, धकेलकर गाँव से बाहर कर दिया जाए पानी तक न लेने दिया जाए कुएँ से दुतकारा-फटकारा जाए चिलचिलाती दुपहर में कहा जाए तोड़ने को पत्थर काम के बदले दिया जाए खाने को जूठन तब तुम क्या करोगे?”
इतने बड़े डिस्कोर्स को ओमप्रकाश वाल्मीकि कविता “जूता” में सरल शब्दों में लिख देते हैं -…जबकि मेरे लिए क़दम बढ़ाना, पहाड़ पर चढ़ने जैसा है। मेरे पाँव ज़ख़्मी हैंऔर जूता काट रहा है। वे फिर कहते हैं–साथ चलना है तो क़दम बढ़ाओ…।” ओमप्रकाश वाल्मीकि की हर कविता सामाजिक अन्याय पर सवाल खड़ी करती है और सबसे ज़रूरी ये है कि ये कविताएं शोषक के इंसान होने पर, उसके इंसानी अस्तित्व को कठघरे में खड़ा करती हैं। मुट्ठी भर चावल में रोटी के लिए मारे गए दलितों की व्यथा हो या वह दिन कब आएगा के माध्यम से जाति को उखाड़ फेंक देने की बात हो।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएं दलितों की गरिमा की वकालत करती हैं, उसके लिए संघर्ष करती हैं। कविताओं की भाषा घुमावदार नहीं है, कठिन नहीं है, साफ़ सीधी सरल है बावजूद उसके प्रभावशाली है। यही भाषा शैली दलित साहित्य के काव्य को सवर्ण साहित्य से अलग करती है। मराठी दलित लेखक शरणकुमार लिंबाले दलित लेखक, साहित्य के संदर्भ में कहते हैं, “दलित चेतना के विचार को इस तरह से भी परिभाषित किया गया है कि, ऐसी चेतना प्रकृति में शिक्षाप्रद है क्योंकि यह दलितों को इस बात से अवगत कराती है कि वे अपने जीवन में क्या कर रहे हैं।”
ठाकुर का कुआं कविता एक शोषक (सवर्ण) और शोषित (दलित) के बीच शोषण के रिश्ते को बयान करती है, उनके बीच पावर डायनामिक्स ऐसा है कि अंत में शोषित जिस चीज़ को अपना कह सके वह बचता ही नहीं है। उसके पास अपना कहने को कोई श्रोत, कोई पूंजी नहीं है।
यह उल्लेखनीय है कि एक दलित सामाजिक ज़िम्मेदारी के तहत लिखता है। यह अक्सर उन कम विशेषाधिकार प्राप्त दलितों को पढ़ाने, प्रबुद्ध करने या यहां तक कि जागृत करने के लिए होता है जो नहीं जानते कि अपने जीवन को लिखित रूप में कैसे प्रकट किया जाए”। दलित कविता, ज़िम्मेदारी की विधा है, यह सिर्फ़ आत्म आनंद के लिए नहीं लिखी जा सकती है, यह सामूहिक चेतना बनाने के लिए, भाषा पर सवर्णों के एकाधिकार को नष्ट करने के लिए और सबसे ज़रूरी यह अन्याय के विरुद्ध लिखी जाती है।
इस संदर्भ में यह व्यक्त करना एकदम सही होगा कि कविता एक समाजशास्त्रीय यथार्थ है। इसका समाज के भीतर एक संस्थागत स्थान है, रोजमर्रा के सामाजिक संपर्क में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और वैकल्पिक सामाजिक नक्षत्रों की कल्पना और व्याख्या करने के लिए एक साइट के रूप में बहुत वास्तविक परिणाम का वादा करता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएं चेतना की कविताएं हैं जो सालों तक अपना अस्तित्व बनाए रखेंगी और अन्याय के दौर में सड़क से लेकर संसद तक गुनगुनाई जाती रहेंगी।
सौजन्य : फेमिनिस्ट इंडिया
नोट : समाचार मूलरूप से. में feminisminindia.com प्रकाशित हुआ है मानवाधिकारों के प्रति सवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित !