ख़ास बात नारीवादी नज़रिये को विस्तार देती किताब ‘द जेंडर्ड बॉडी इन साउथ एशिया’ के लेखकों के साथ
पिछले महीने प्रकाशित हुई किताब, ‘द जेंडर्ड बॉडी इन साउथ एशिया’, दक्षिण एशिया में तेजी से बदलते हुए सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में ‘जेंडर्ड बॉडी’ के बारे में विस्तार से चर्चा करती है। यहां ‘बॉडी’ के मायने प्राकृतिक और जैविक अर्थ (शरीर) से परे हैं। इस किताब में अलग-अलग विषय, नज़रिये को साथ लाया गया है और किताब सही मायनों में इंटरडिसिप्लिनरी है, जिसका कारण संपादकों की विविध पृष्ठभूमि में भी दिखता है। प्रो. रचना जोहरी, प्रो. मीनाक्षी मल्होत्रा और प्रो. कृष्णा मेनन ने किताब को संपादित किया है। प्रो. मल्होत्रा की अकादमिक पृष्ठभूमि अंग्रेज़ी साहित्य में हैं, प्रो.मेनन की जेंडर स्टडीज़ और राजनीतिक विज्ञान में, वहीं प्रो. जोहरी की मनोविज्ञान, मनोवैज्ञानिक अध्ययन में। तीनों की जेंडर स्टडीज़ और नारीवाद में रुचि, नारीवादी एकजुटता और कई वर्षों की दोस्ती ने इस किताब के विचार और परिकल्पना को साकार किया है।
किताब 22 अध्याय, कुल 6 भागों में बंटी हुई है। साथ ही यह किताब कई मायनों में अलग है। पहली बात यह है कि ये किताब विभिन्न विषयों और नज़रिये से लेखकों और अकादमिकों को एक साथ लाई है। दूसरी बात यह है कि ये किताब विचारों और नारीवादी दोस्ती को सीमाओं के पार लाने का उदाहरण है। तीसरी बात यह है कि इसका लेखन नारीवादी है, जिसमें आत्मकथा और संवाद जैसे दृष्टिकोणों पर ज़ोर दिया गया है।
किताब में लोकतंत्र, असहमति, नागरिकता, कोरोना महामारी, विकलांगता, साहित्य और हिंसा जैसे कई विषयों पर चर्चा की गई है जिन सभी विषयों पर यहां विस्तार से बातचीत करना नामुमकिन होगा। हालांकि, इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं जा सकता कि यह किताब एक प्रगतिशील पहल है क्योंकि यह उम्र और पेशे से भी विविध है। इस किताब में अपने लेखों से योगदान देने के लिए मिरांडा हाउस कॉलेज की प्रिंसिपल (प्रो. बिजयलक्ष्मी नंदा), सीनियर प्रोफेसर (प्रो. अनीता घाई, प्रो. मीनाक्षी गोपीनाथ व अन्य ), ऐक्टिविस्ट (सोहाना मंज़ूर) और कुछ पीएचडी छात्र (आकांशा डी क्रूज़) साथ आए हैं और सभी ने अपनी-अपनी विशेषज्ञता साझा की है जो कि नारीवादी सहभागिता को दर्शाता है। किताब को राउटलेज (टेलर एन्ड फ्रांसिस ने प्रकाशित किया है। पेश है लेखकों से हुई बातचीत के कुछ अंश।
सवाल: किताब का पहला सेक्शन ‘समझौता’ (नेगोसिएशन) में एक अध्याय वैश्वीकरण के संदर्भ में महिलाओं की ‘बॉडीज़’ के मनोसामाजिक विश्लेषण से जुड़ा है। आपके अनुसार, रोज़मर्रा के जीवन में महिलाओं को किन-किन तरीकों से अलग-अलग परिवेशों में समझौता करना पड़ता है?
प्रो. जोहरी: सबसे पहले तो यहां बॉडी के मायने सिर्फ प्राकृतिक और जैविक अर्थ तक सीमित नहीं हैं। यहां ‘बॉडी’ के मायने हमारे जिए हुए अनुभव, वास्तविकता और वे परिवेश जहां ये अनुभव बनते-बिगड़ते हैं उनसे जुड़े हैं। यहां हम ‘एम्बोडिमेंट’ की बात कर रहे हैं। इस अध्याय में मैंने इस सवाल को उठाया है कि किस तरह से वैश्वीकरण के समय में ‘बॉडी’ से जुड़े कई तर्क, परिवेश और संवाद एक साथ चल रहे हैं, जैसे एक परिवेश बाज़ार का है तो दूसरा घर का। हालांकि इन अलग-अलग परिवेशों के बीच की सीमा किसी ठोस दीवार की तरह नहीं है बल्कि इस सीमा में कई सुराख़ हैं जो इन्हें जोड़े रखते हैं।
इस अध्याय में मॉल में काम करने वाली सेल्स महिलाओं के अनुभव को केंद्र में रखा गया है। ये जिन प्रोडक्ट्स को बेचती हैं, उनसे इनकी खुद की ‘बॉडी’ का भी एक रिश्ता बनता है या यूं कहें ये प्रोडक्ट्स इनकी ‘बॉडी’ का हिस्सा हो जाते हैं। ये परफ्यूम, मेकअप जैसे प्रोडक्ट्स के बारे में जानकारी रखती हैं, इन्हें छू सकती हैं, महसूस करती हैं। साथ ही ये महिलाएं चाहें या न चाहें ज़्यादातर अपने कार्यस्थल में इन प्रोडक्ट्स का उपयोग भी करती हैं। यहां उन्हें कैमरों और कार्यस्थल की निगरानी में रहना होता है। लेकिन मॉल से बाहर निकलते ही सड़क और घर में प्रवेश करते ही उन्हें ये रूप छोड़ना होता है। वहां ये अलग तरीके के नियम क़ानून के बीच ये अपना रास्ता बनाती हैं और रोज़ एक कठिन समझौता करती दिखती हैं, जो इस सेक्शन का विषय भी है। वैश्वीकरण के इस दौर ने इस तरह की कई जटिलताएं पैदा की हैं जो महिलाओं को सीधा प्रभावित करती हैं।
सवाल: प्रो. मेनन, इसी सेक्शन में एक अध्याय कोविड महामारी पर है, जिसमें महामारी के संदर्भ में स्पर्श से जुड़ी जटिलाओं पर ध्यान खींचा गया है, ये अध्याय किन नज़रियों से महत्वपूर्ण हैं?
प्रो. मेनन: इस किताब को लिखने और संपादित करने में अलग-अलग तरह की फेमिनिस्ट मेथोडोलॉजी (नारीवादी पद्धति) का उपयोग किया गया है। कोविड महामारी से जुड़े अध्याय में हमने संवाद का तरीका अपनाया है जो कि एक ओपन एंडेड (अप्रतिबंधित) तरीका है। हम मानते हैं, कोई भी ज्ञान या जानकारी तब बनती है जब लोग एक दूसरे को सुनते हैं और एक दूसरे की समझ को ध्यान में रखते हैं। ये क्लोस्ड (प्रतिबंधित) तरीके से उलट है जो अकादमिक क्षेत्र में आम तौर पर प्रयोग होता है। इन तरीकों में एक तरह ‘अहंकार’ दिखता है क्योंकि ये आमतौर पर एक व्यक्ति के विचारों पर आधारित होते हैं जो अपनी राय को अंतिम राय की तरह व्यक्त करते हैं। कोरोना महामारी से जुड़ा अध्याय इसलिए भी ख़ास है क्योंकि ‘बॉडी’ के बारे में संवेदी धारणाओं के संदर्भ में सोचना आम बात नहीं है। कोविड के दौर में स्पर्श से जुड़ी जटिलताओं को समझते हुए इस पर राजनीतिक और प्रगतिशील संवाद करना इस अध्याय को महत्वपूर्ण बनाता है।
यह किताब कई मायनों में अलग है। पहली बात यह है कि यह किताब विभिन्न विषयों और नज़रिये से लेखकों और अकादमिकों को एक साथ लाई है। दूसरी बात यह है कि ये किताब विचारों और नारीवादी दोस्ती को सीमाओं के पार लाने का उदाहरण है। तीसरी बात यह है कि इसका लेखन नारीवादी है, जिसमें आत्मकथा और संवाद जैसे दृष्टिकोणों पर ज़ोर दिया गया है।
सवाल: ‘संघर्ष’ से जुड़े सेक्शन में महिलाओं के रोज़मर्रा के जीवन की वास्तविकता, अनुभव और चुनौतियों का वर्णन है, आपके अनुसार इसका क्या महत्त्व है। यह सेक्शन किताब के व्यापक विषय ‘जेंडर्ड बॉडी’ से कैसे जुड़ा है?
प्रो. मल्होत्रा: इस किताब के कई सेक्शन और विषय एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। उस लकीर का पता लगाना मुश्किल है जहां ‘समझौता’ ख़त्म होता है और ‘संघर्ष’ शुरू होता है। इस सेक्शन में हमने अलग-अलग विषयों पर कई अध्याय शामिल किए हैं जो महिलाओं के संघर्ष और विरोधाभास को दर्शाते हैं। जैसे ‘पर्दे’ को लेकर एक ओर तो जबरन थोपे जाने के खिलाफ संघर्ष है तो दूसरी ओर यही पर्दा मुसमलान समुदाय की महिलाओं के लिए पहचान और एजेंसी का प्रतीक है। ‘जेंडर्ड बॉडी’ पर चर्चा के लिए महिलाओं की रोज़मर्रा ज़िंदगी का अध्ययन ज़रूरी हो जाता है। रोज़मर्रा की ज़िंदगी में चल रहे संघर्ष की झलक अगले सेक्शन (विरोध) में भी दिखती हैं। शाहीन बाग़ में महिलाओं के प्रदर्शन ने रोज़ की ज़िंदगी और परिवार में महिलाओं की भूमिका और दिनचर्या को चुनौती दी थी। ठीक इसी तरह लॉकडाउन और कोविड के दौर में भी महिलाओं का रोज़ का जीवन बदला। इस सेक्शन में हमने महिलाओं के लिए नियम क़ानून निर्धारित करने वाली धारणाओं के खिलाफ चल रहे संघर्षों पर चर्चा की है।
सवाल: प्रोटेस्ट (विरोध) से जुड़े सेक्शन में एक अध्याय सीएए कानून और शाहीन बाग़ पर है। इन प्रदर्शन स्थलों पर महिलाओं के अनोखे अनुभवों का जेंडर लेंस से उल्लेख किया गया है। ये अध्याय किस रूप में महत्वपूर्ण हैं और ‘जेंडर्ड बॉडी’ को कैसे संबोधित करता है?
प्रो. मेनन: सीएए प्रदर्शनस्थलों, जैसे शाहीनबाग, में महिलाओं की भागीदारी ने किताब के इस भाग को शक्ल देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। समझने की ज़रूरत है कि अलग-अलग परिस्थिति या परिवेश में किसी भी ‘बॉडी’ की मौजूदगी बहुत सारे संदेशों का संचार करती है। परिवेश के या ‘बॉडी’ के बदलने से संदेश और अनुभव भी बदलते है। जैसे आज के भारत में मुस्लिम ‘बॉडी’ के अलग मायने है और जब इसे मुसलमान महिलाओं की ‘बॉडी’ की तरह समझा जाएगा तो इसके मायने और अलग और विशेष हो जाएंगे। जिन ‘बॉडीज़’ को अब तक उनके समुदायों द्वारा नियंत्रण की सीमाओं में, या किसी निष्क्रिय रूप में देखा जाता था उन्हीं की शाहीन बाग में उपस्थिति के कारण, वो एक सक्रिय रूप ले लेती हैं, जिनकी अपनी एजेंसी होती है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे इन अर्थों को बनाते हुए अपनी खुद से उपेक्षित घरेलू भूमिकाओं से अलग हो जाती हैं। यही कारण है कि शाहीन बाग में मुसलमान महिलाओं की उपस्थिति और भागीदारी ने उनकी ‘बॉडी’ से जुड़े एक वैकल्पिक विचार को जन्म दिया है, जिन्हें अपने समुदाय के पुरुषों से न ही मुक्ति और न ही सुरक्षा की ज़रूरत है, बल्कि वे सक्रिय और सक्षम हैं जिनकी खुद की एजेंसी है।
सवाल: प्रतिरोध से जुड़े सेक्शन में ‘जेंडर्ड बॉडी’ विभिन्न निर्धारित मानकों, आदर्शों और रूढ़ियों को तोड़ती हुई दर्शाई गई है। इसमें एक अध्याय महाश्वेता देवी जी की कहानियों के ज़रिये हाशिए पर खड़े लोगों को केंद्र में लाता है। कृपया इसके बारे में विस्तार से बताइए।
प्रो. मल्होत्रा: इस सेक्शन में हमने उन ‘बॉडीज़’ को संबोधित किया है जो निर्धारित मानकों और परिभाषाओं में फिट नहीं बैठती हैं। जैसे कि आदिवासी महिला की विद्रोह की प्रतीक ‘बॉडी’ भी पितृसत्ता और स्टेट के निर्धारित मानकों में फिट नहीं बैठती। हमने इस सेक्शन में यह समझने का प्रयास किया है कि क्या हम साहित्य या प्रतिनिधित्व के ज़रिये ‘जेंडर्ड बॉडीज़’ से जुड़े अर्थों और पैमानों के एक अलग सेट के रूप में देख सकते हैं। महाश्वेता देवी जी कहानियों से जुड़ा अध्याय शर्म और अपमान को इसी संदर्भ में देखने का प्रयास है जहां पीड़ित महिला शर्म को पुरुषवादी ढांचे से निकाल कर पलट देती है और अपराधी को उस ‘शर्म’ के कठघरे में खड़ा कर देती है। पितृसत्ता ‘बॉडीज़, पहचान, नागरिकता आदि को एक विशेष तरीके से वर्गीकृत करने और व्यवस्थित करने का प्रयास करती है और ये किताब इन मानकों औप निर्धारित श्रेणियों को चुनौती देने का या ‘प्रतिरोध’ खड़ा करने एक प्रयास है।
सवाल: ‘आलोचना’ से जुड़े सेक्शन में ‘डिसेबल्ड बॉडीज़’ पर भी अध्याय है और मौजूदा साहित्य में इस विषय को उपेक्षित स्थान नहीं मिला है। आप इसे कैसे देखती हैं?
प्रो. जोहरी: ये समझने की ज़रूरत है कि नारीवाद ने अब तक ‘दर्द’ को जेंडर आधारित हिंसा की तरह तो समझा है, लेकिन दर्द से जुड़े सवाल को ‘डिसेबल्ड बॉडीज़’ के संदर्भ में गहराई और संवेदनशीलता से समझे जाने की ज़रूरत है। नारीवाद ने अब तक ‘डिसेबल्ड बॉडी’ की समझ में दर्द का सवाल नहीं जोड़ा है। ये दर्द किसी हिंसा के कारण नहीं बल्कि किसी विशिष्ट स्थिति के कारण है। इस सेक्शन में इस सवाल को उठाया गया है कि क्या नारीवाद इन वास्तविकताओं को शामिल कर एक संवाद करने में सक्षम है?
इस किताब के कई सेक्शन और विषय एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। उस लकीर का पता लगाना मुश्किल है जहां ‘समझौता’ ख़त्म होता है और ‘संघर्ष’ शुरू होता है। इस सेक्शन में हमने अलग-अलग विषयों पर कई अध्याय शामिल किए हैं जो महिलाओं के संघर्ष और विरोधाभास को दर्शाते हैं।
सौजन्य : फेमिनिज़म इन इंडिया
नोट : समाचार मूलरूप सेhindi.feminisminindia.com में प्रकाशित हुआ है ! मानवाधिकारों के प्रति सवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित !