लैंगिक और जातिगत भेदभाव व शिक्षा की राजनीति की शिकार दलित-बहुजन महिलाएं
जाति और लिंग की असमानता को समाप्त करने के लिए शैक्षणिक व्यवस्था में कोई सार्थक पहल न करके यथास्थिति बनाए रखने की कुटिल राजनीति की गई है, जिसका सबसे बुरा प्रभाव हाशिए पर रखी गई जातियों की महिलाओं पर पड़ा है। इसे आंकड़ा के खेल द्वारा ढंकने का प्रयास किया जाता रहा है। बता रहे हैं ( लेख अच्छेलाल प्रजापति)
जाति और लिंग के बीच पारस्परिक संबंध शिक्षा और आजीविका के साधन को गहराई तक प्रभावित करता रहा है। यदि महिलाओं और लड़कियों की स्थिति और उसमें भी अछूत कही जाने वाली जातियों, आदिवासी समूहों और मुसलमान महिलाओं की जातिगत, लैंगिक और शैक्षणिक दुर्दशा पर वर्तमान में मीडिया द्वारा प्रकाशित रिपोर्टों पर ध्यान आकृष्ट करें तो ऐसा लगता है जैसे जाति और लैंगिक संबंध परिवर्तन के प्रतिरोधी हैं। यह इस विचार को प्रबलता प्रदान करता है कि भारत की सामाजिक बनावट आधुनिक वास्तविकता से अछूती है। लेकिन क्या इसे सही माना जा सकता है, क्योंकि पिछली शताब्दियों में भारत ने बेशक कई व्यापक बदलाव देखें हैं। कुछ स्थितियों में प्रगति के नए कीर्तिमान स्थापित किये हैं तो कुछ में हम पीछे चले गए हैं। भारत में कुछ मुद्दे परिवर्तन के प्रति प्रतिरोधी रहे हैं। इसका एक उदहारण समग्र भारत में संतान के रूप में पुत्र प्राप्ति की कामना को देखा जा सकता है। प्रारंभ में कुछ क्षेत्रों और समुदायों में बेटे के प्रति प्रबल प्राथमिकता नहीं थी, लेकिन बाद में उन्होंने भी धीरे-धीरे लड़कियों को कम महत्व देने की प्रथा को अपना लिया है।
यदि हम लिंगानुपात के आंकड़ों को देखें तो यह कुछ ऐसा ही दृश्य प्रस्तुत करता है। 1901 में लिंगानुपात 972 (प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाएं) था। यह 1951 में घटकर 946, 1991 में 927 और 2011 में मामूली रूप से बढ़कर 943 हो गया। एक अन्य महत्वपूर्ण संकेतक जन्म के समय लिंगानुपात (एसआरबी) को भी देखा जा सकता है, जो इंगित करता है कि देश में बेटे को प्राथमिकता का चलन कायम है। इस तथ्य के अलावा भारत के उत्तर और कुछ उत्तर-पश्चिमी राज्यों और दक्षिणी और पूर्वी राज्यों के बीच इसको लेकर समरुपता नहीं हैं। दिलचस्प बात यह है कि शहरी-ग्रामीण बाल लिंगानुपात ग्रामीण क्षेत्रों के पक्ष में है। मसलन, 2011 की जनगणना के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में बाल लिंगानुपात 919 जबकि शहरी क्षेत्रों में यह केवल 902 था। इसी तरह 2011 की जनगणना के अनुसार 26 राज्यों में शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण बाल लिंगानुपात अधिक है।
यह कहा जा सकता है कि शिक्षा में लड़कियों की भागीदारी में काफी हद तक सुधार हुआ है, लेकिन लिंगानुपात और कार्य सहभागिता की प्रतिकूल स्थितियां विरोधाभासी दृश्य प्रस्तुत करती हैं।
हालांकि स्वतंत्रता-पूर्व (1947 से पहले) सामाजिक सुधारों और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने महिला शिक्षा को आधुनिकीकरण के उत्प्रेरक के रूप में स्थापित किया और स्वीकार किया कि बिना स्त्री शिक्षा के आधुनिकता को नहीं अपनाया जा सकता है। जबकि कई परंपरावादियों ने सामाजिक और पारिवारिक संबंधों पर स्त्री शिक्षा के नकारात्मक प्रभाव के बारे में अपनी चिंता व्यक्त की, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी। सभी के लिए आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष शिक्षा के महत्व को महत्वपूर्ण माना गया और इसे स्वीकार भी किया गया। निश्चित तौर पर परंपरावादियों की चिंताएं अनुचित थीं, क्योंकि जिस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया, उससे लैंगिक विषमता और जातीय भावना को चुनौती नहीं दी जा सकी। पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकों और शिक्षक प्रशिक्षण प्रक्रियाओं ने परिवार, समुदाय और समाज में लिंग और जाति जैसे तथाकथित संवेदनशील मुद्दों को नहीं छुआ। उदाहरण के लिए बच्चों के लिए स्कूली पाठों में कहा गया– राम आम खाता है या फिर सीता रोटी पकाती है। यह भारत के संविधान में निहित समानता और गैर-भेदभाव के मूल्यों को अनदेखा करने जैसा है।
आख़िरकार, भारतीय संविधान की मूल भावना के खिलाफ जाकर यह संभव कैसे हुआ? यह एक पहेली है, जिसका उत्तर काफी रोचक है। वास्तव में समानता को संख्याओं में दिखाया गया। उसमें भी शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर महिलाओं का अनुपात और एससी और एसटी की भागीदारी को सकल नामांकन अनुपात और नेट नामांकन अनुपात में एक साथ दिखाया गया, जिससे महिलाओं की भागीदारी कुछ अधिक दिखाई दी, लेकिन जातीय स्तर पर यह कुछ जातियों तक ही सीमित रही। इस प्रकार पहुंच और औपचारिक भागीदारी में समानता को कम करके संविधान की भावना की अनदेखी की गई। हम एक तरफ समानता के लक्ष्यों की ओर क्रमिक गति से आगे बढ़ने का दावा करते रहे तो दूसरी तरफ हमारी पाठ्य पुस्तकें रूढ़िवादिता को चित्रित करती रहीं। पाठ्यक्रम व हमारे द्वारा उपयोग की जाने वाली शिक्षण सामग्री में महिलाओं, ग्रामीण जीवन, आदिवासियों के दैनिक जीवन की वास्तविकताओं और दलितों के कठोर अस्तित्व को कोई जगह नहीं मिली। आरक्षण केवल कॉलेजों, स्कूलों और नौकरी तक सीमित रहा। नीति नियंताओं के कार्यसूची में समानता की भावना का विस्तार करना कभी नहीं रहा।
परिणामस्वरूप मध्याह्न-भोजन से बच्चों के बहिष्कार, तथाकथित उच्च जातियों के शिक्षकों द्वारा उन जातियों और समुदायों के बच्चों और शिक्षकों के साथ समानता विरोधी स्वर बराबर सुनाई देता रहा, जिन्हें वे ‘नीच’ या ‘हीन’ समझते हैं। मीडिया, सोशल मीडिया, दैनिक समाचार पत्र आदि के माध्यम से भारत के विभिन्न हिस्सों में शिक्षक, शिक्षक-बच्चों तथा बच्चों-बच्चों के बीच मौजूदा जातीय, सामुदायिक और लैंगिक पूर्वाग्रहों को देखा और सुना जाता रहा है।
1980 के दशक के मध्य में शिक्षा मंत्रालय द्वारा ‘द चैलेंज टू एजुकेशन’ के प्रकाशन के साथ शिक्षा में एक आंदोलन की शुरुआत हुई। 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने शिक्षा की परिवर्तनकारी क्षमता पर एक क्रांतिकारी वक्तव्य में कहा कि– “शिक्षा का उपयोग महिलाओं की स्थिति में बुनियादी परिवर्तन लाने वाले घटक के रूप में किया जाएगा। अतीतकाल से महिलाओं के खिलाफ संचित विकृतियों को निष्प्रभावी करने के लिए महिलाओं के पक्ष में एक बेहतर पहल होगी। राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली महिलाओं के सशक्तिकरण में सकारात्मक, हस्तक्षेपकारी भूमिका निभाएगी। यह पुन: तैयार पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकों, शिक्षकों, नीति नियंताओं और प्रशासकों के प्रशिक्षण और दिशानिर्देश तथा शैक्षणिक संस्थानों की सक्रिय भागीदारी के माध्यम से नए मूल्यों के विकास को बढ़ावा देगा।” इसी तरह के वक्तव्य आदिवासी और दलित बच्चों के जीवन में बदलाव लाने के लिए दिए गए थे। हालांकि इस नीति के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए कई छोटी-बड़ी परियोजनाए प्रारंभ की गईं, लेकिन स्कूली शिक्षा की बुनियादी संरचना अपरिवर्तित रही। वह अब भी जाति श्रेष्ठता और लिंग भिन्नता जैसी परंपरागत और विकास में अवरोधक व्यवस्था से नजर चुरा रही थी। इस असमानता को दूर करने के प्रयास तेज करने के विपरीत हमने नामांकित बच्चों की संख्या, स्कूल छोड़ने की दर, प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय पूरा करने की दर आदि का पता लगाना शुरू कर दिया। यह दिखाने के लिए कि भारत वास्तव में आगे बढ़ रहा है। हमने यह पूछना या निगरानी करना बंद कर दिया कि हमारे बच्चे वास्तव में क्या और कितना सीख रहे हैं।
1980 के दशक के बाद के दशकों में निजी स्कूलों की संख्या में वृद्धि देखी गई है। जो अभी भी जारी है। जैसे-जैसे मध्यम वर्ग व उच्च वर्ग के बच्चों ने सरकारी स्कूलों को छोड़ना प्रारंभ कर दिया, सार्वजनिक शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट और तेज हो गई और वहां गरीबों के बच्चों के लिए गुणवत्ताविहीन शिक्षा बच गई। इससे जाति आधारित सदियों पुराने पूर्वाग्रहों को और बल मिला। लेकिन यह और भी दुखद रहा कि 1990 के दशक के मध्य से आर्थिक आधार पर विभाजन और भी गंभीर समस्या बन कर प्रकट हो गया है।
समय के साथ देश में बहुत कुछ बदला है। कुछ सामाजिक प्रतिमान और प्रथाएं आंशिक रूप से आर्थिक परिवर्तनों के कारण बदल रही हैं तो कुछ आंशिक रूप से मीडिया के माध्यम से दुनिया से संपर्क के कारण बदल रही हैं। इन परिवर्तनों से लड़कियों और युवा महिलाओं की आकांक्षाओं और बहु-बेटियों से परिवारों की अपेक्षाओं में भी भारी बदलाव आया है। खासकर गरीब और मध्यम वर्गों के बीच कामकाजी जीवनसाथी या बेटी का होना संपत्ति के रूप में देखा जाने लगा है। इससे महिलाओं की शिक्षा में अधिक भागीदारी हुई है। लेकिन आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति मजबूत होने के बावजूद भी समाज और परिवार में उन युवा लड़कियों और महिलाओं की स्थिति सुदृढ़ नहीं हुई है। उस कामकाजी महिला को काम पर जाने से पहले या बाद में घर के सारे काम स्वयं संपन्न करने होते हैं तथा काम से प्राप्त आय पर कमोवेश नियंत्रण भी पति या पुरुष संरक्षक का ही होता है।
एक और दिलचस्प विरोधाभास बाल विवाह को परिभाषित करते समय देखने को मिलता है। खासकर जब लड़कियों की शिक्षा और कल्याण की बात आती है तो अक्सर बाल विवाह को एक गंभीर मुद्दे और जल्द सुलझाए जाने वाली समस्या के रूप में चिह्नित किया जाता है। बाल विवाह शब्द का उपयोग ऐसे विवाह के लिए किया जाता है, जिसमें विवाह की उम्र लड़कियों के लिए 18 वर्ष और लड़कों के लिए 21 वर्ष की कानूनी उम्र से कम होती है। हाल ही में जारी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)- 4, 2016 के आंकड़े के विश्लेषण से पता चलता है कि 18-29 वर्ष आयु वर्ग की 28 प्रतिशत महिलाएं और 21-29 वर्ष आयु वर्ग के 17 प्रतिशत पुरुषों की शादी कानूनी उम्र प्राप्त करने से पहले हो गई थी। लड़कियों के बाल विवाह की घटनाएं पश्चिम बंगाल (44 प्रतिशत), बिहार (42 प्रतिशत), झारखंड (39 प्रतिशत), राजस्थान (33 प्रतिशत), असम (33 प्रतिशत) और मध्य प्रदेश (33 प्रतिशत) में सबसे अधिक हैं। लड़कों का बाल विवाह राजस्थान (28 प्रतिशत) और मध्य प्रदेश (28 प्रतिशत) में सबसे अधिक है। इसके बाद बिहार और झारखंड (दोनों राज्यों में 27 प्रतिशत) का स्थान है। एनएफएचएस सर्वेक्षण में यह भी पाया गया है कि बाल विवाह का प्रचलन ग्रामीण क्षेत्रों और निम्न शिक्षा स्तर वाले लोगों में अधिक है।
यदि हम हाल के साक्ष्यों का संदर्भ लें, तो आशा की किरण नजर आती है। यहां तक कि उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे खराब प्रदर्शन वाले राज्यों में भी बाल विवाह और कम उम्र में विवाह के संबंध में सामाजिक मानदंड बदल रहे हैं। रामचंद्रन और अन्य (2018) द्वारा हाल ही में किए गए गुणात्मक अध्ययन में यह पाया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों में बाल विवाह की घटनाओं में भारी कमी आई है। यह अध्ययन दर्शाता है कि उत्तर प्रदेश और झारखंड के नमूना गांवों में 14 वर्ष की आयु के गुणात्मक अध्ययन से पहले 4-5 वर्षों में एक भी लड़की या लड़के की शादी नहीं हुई थी। प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन के साथ, नमूना घरों में लगभग सभी बच्चे पढ़ाई छोड़ने से पहले कक्षा 8 पढ़ रहे थे या पढ़ाई पूरी कर चुके थे। जांच में माध्यमिक शिक्षा और कम उम्र में शादी के बीच धनात्मक संबंध पाया गया। स्कूली शिक्षा का उच्च स्तर शादी की उम्र को बढ़ा देता है और जब लड़कियां किसी कारण से पढ़ाई छोड़ देती हैं, तो उनकी शादी की संभावना भी अधिक हो जाती है। पिछले दशक या उससे अधिक समय में किए गए कई नमूना सर्वेक्षणों के माध्यम से इस घटना की पुष्टि की गई है। निश्चय ही भारत में बाल विवाह में उल्लेखनीय गिरावट आयी है।
कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर रिवर्तन का पहिया घूम रहा है। कुछ में सकारात्मक रुझान परिलक्षित हो रहे हैं तो कुछ जड़ बने हुए हैं। बाल विवाह या शिक्षा में लड़कियों की भागीदारी वाले क्षेत्र हैं, जहां सकारात्मक रुझान दिखाई दे रहे हैं, लेकिन ऐसे क्षेत्र भी हैं जो परिवर्तन के प्रति अप्रभावित प्रतीत होते हैं। पुत्र की कामना, घर, समाज और सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के खिलाफ हिंसा और घर से बाहर मजदूरी पर काम करने वाली महिलाओं के प्रतिशत में नगण्य परिवर्तन निराशाजनक स्थिति उत्पन्न करता है।
रत्ना एम. सुदर्शन (2018) के अध्ययन से पता चलता है कि हाल के दिनों में महिलाओं की कार्य भागीदारी दर में गिरावट आई है। इसी प्रकार व्यावसायिक उच्च शिक्षा में सामाजिक रूप से वंचित समुदायों की महिलाओं की भागीदारी भी एक चिंताजनक प्रवृत्ति को दर्शाता है। इसका सीधा संबंध सरकारी स्कूलों की खराब शिक्षा और कम लागत वाले निजी स्कूलों के छात्रों की माध्यमिक विद्यालय से आगे बढ़ने में असमर्थता से है। एनसीईआरटी द्वारा आयोजित वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट (एएसईआर) और स्कूल-आधारित राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण (एनएएस) जैसे नमूना सर्वेक्षणों से पता चलता है कि ग्रामीण और शहरी स्कूलों तथा सरकारी और निजी स्कूलों दोनों में बच्चे उतना नहीं सीख रहे हैं, जितनी उनसे अपेक्षा की जाती है। सीखना एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। इससे देश भर में बढ़ते सीखने के संकट को दूर करने की तत्काल सुधार की आवश्यकता पर एक गंभीर बहस छिड़ी हुई है।
अंततः सब कुछ आर्थिक प्रगति पर निर्भर करता है। छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों के साथ चर्चा से पता चलता है कि अगर आर्थिक स्थिति में सुधार होता है (मसलन, कृषि उत्पादकता, बुनियादी ढांचे में सुधार और आजीविका के अवसरों में विस्तार) तो जाति और लिंग-आधारित संबंधों की परंपरावादी सोच की दीवार दरकती है और अंततः धराशायी हो जाती है। वही यह भी सच है कि आर्थिक संकट के समय में समुदायों के लिंग और जाति या सामुदायिक संबंधों के परंपरावादी होने प्रबल संभावना होती है। पिछले 4-5 वर्षों में बढ़ते कृषि संकट के कारण कई लड़के और लड़कियों ने परिवार की आय बढ़ाने के लिए स्कूल छोड़ दिया। मैने अपने अध्यापन अनुभव में देखा है कि 10वीं पास करने के बाद लड़के 11वीं में नामांकन तो कराते हैं, लेकिन विद्यालय जाने के बजाय घर की स्थिति सुदृढ़ करने के लिए मजदूरी करने के लिए बाहर चले जाते हैं और लड़कियां घर या परिवार के खेत और व्यवसाय के काम में हाथ बंटाने लगती हैं। निश्चय ही लंबे समय तक आर्थिक मंदी दशकों में प्राप्त शैक्षिक लाभ पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है।
सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि जाति और लिंग की असमानता को समाप्त करने के लिए शैक्षणिक व्यवस्था में कोई सार्थक पहल न करके यथास्थिति बनाए रखने की कुटिल राजनीति की गई है, जिसका सबसे बुरा प्रभाव हाशिए पर रखी गई जातियों की महिलाओं पर पड़ा है। इसे आंकड़ा के खेल द्वारा ढंकने का प्रयास किया जाता रहा है। यदि समाज में संवैधानिक समता स्थापित करना है तो लिंग और जाति के आधार पर उत्पन्न भेदभाव को खत्म करना ही होगा।
सौजन्य : फॉरवर्ड प्रेस
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