गुजरात विश्वविद्यालय विधेयक पर विवाद, विपक्ष ने इसे अकादमिक स्वायत्तता का अंत बताया
गुजरात विधानसभा ने बीते 16 सितंबर को विवादास्पद विधेयक पारित किया था, जिससे राज्य के 11 सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को इसके दायरे में लाया गया और विभिन्न विश्वविद्यालयों के कामकाज को नियंत्रित करने वाले विभिन्न क़ानूनों को एकीकृत किया गया. कांग्रेस का आरोप है कि इस क़ानून के कड़े प्रावधान शैक्षणिक स्वतंत्रता एवं विश्वविद्यालय के आंतरिक कामकाज के लिए नुकसानदायक हैं|
नई दिल्ली: हाल ही में पारित गुजरात सार्वजनिक विश्वविद्यालय विधेयक के खिलाफ आलोचना बढ़ रही है. विपक्षी कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली राज्य सरकार पर विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को खत्म करने और उन्हें शासित करने की शक्तियां खुद को हस्तांतरित करने का आरोप लगाया है|
गुजरात विधानसभा ने 16 सितंबर को विवादास्पद विधेयक पारित किया था, जिससे राज्य के 11 सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को उक्त विधेयक के दायरे में लाया गया और विभिन्न विश्वविद्यालयों के कामकाज को नियंत्रित करने वाले विभिन्न कानूनों को एकीकृत किया गया|
विवाद उन व्यापक बदलावों से उपजा है, जो विधेयक करना चाहता है. इसका इरादा विश्वविद्यालयों में मौजूदा सीनेट और सिंडिकेट को ‘बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट’ नामक एक नई प्रणाली से बदलने का है, जिसे पूर्ण कार्यकारी नियंत्रण दिया जाएगा और जो नीतिगत पाठ्यक्रम तय करने के साथ-साथ सभी प्रशासनिक कार्यों को करने के लिए विश्वविद्यालय का अंतिम निर्णय लेने वाला प्राधिकारी होगा|
इसका अनिवार्य रूप से मतलब यह है कि कोई भी चुनाव या किसी भी राजनीतिक दल की छात्र इकाई द्वारा कोई राजनीतिक गतिविधि नहीं होगी|
द हिंदू के अनुसार, विपक्षी कांग्रेस का मानना है कि यह कानून विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को खत्म कर देगा. विधेयक में कड़े प्रावधान विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का उल्लंघन करेंगे और ये शैक्षणिक स्वतंत्रता एवं विश्वविद्यालय के आंतरिक कामकाज के लिए नुकसानदायक हैं|
अखबार के मुताबिक, कांग्रेस विधायक दल के नेता अमित चावड़ा ने कहा कि विधेयक का उद्देश्य ‘शिक्षा का सरकारीकरण’ करना है|उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि विधेयक वास्तव में विश्वविद्यालयों को कमजोर करने की कीमत पर राज्य में शिक्षा के निजीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए है. उन्होंने कहा, ‘यह विधेयक 11 विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक और वित्तीय स्वायत्तता समाप्त कर देगा|
कांग्रेस ने विशेष रूप से छात्रों के मुद्दे उठाने वाले सीनेट और सिंडिकेट निकायों की प्रणाली को खत्म करने के सरकार के फैसले पर निशाना साधा है. उसका कहना है कि यह असल में एक ऐसी संस्कृति को लागू करेगा जहां सरकार या सत्तारूढ़ दल के करीबी सदस्यों को विश्वविद्यालयों में प्रशासनिक निकायों में नियुक्त किया जाएगा|
हालांकि, राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री ऋषिकेश पटेल ने विधेयक को ‘मील का पत्थर’ कहा है. सरकार की ओर से तर्क प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि कानून ‘मजबूत वित्त नियंत्रण, बेहतर गुणवत्ता वाली उच्च शिक्षा और वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिहाज से उत्कृष्ट गुणवत्ता मानक तैयार करने के उपाय’ प्रदान करेगा. उन्होंने कहा कि यह कानून विश्वविद्यालयों को 21वीं सदी की आवश्यकताओं से निपटने में सक्षम बनाएगा|
विधेयक की अन्य खास बातों में यह है कि यह किसी विश्वविद्यालय में कुलपतियों के कार्यकाल को पांच साल तक सीमित करता है. यदि संबंधित व्यक्ति ‘सक्षम’ पाया जाता है, तो उसे अगले पांच वर्षों के लिए किसी अन्य विश्वविद्यालय में उसी पद पर नियुक्त किया जा सकता है. यदि किसी कुलपति का किसी राजनीतिक दल या संगठन से संबंध पाया जाता है तो सरकार को उसे पद से हटाने का अधिकार होगा. यह तय करना सरकार का काम है कि कोई संगठन स्वभाव से ‘राजनीतिक’ है या नहीं|
अकादमिक परिषदों में नियुक्त किए जाने वाले सदस्यों के लिए पात्रता मानदंड तैयार करने की शक्तियां भी राज्य सरकार के पास होंगी, जिनका प्रयोग वह ‘प्रबंधन बोर्ड’ के माध्यम से करेगी, जिसे वह स्थापित करना चाहती है|
नए कानून के तहत विश्वविद्यालयों को राज्य सरकार द्वारा प्रदान ‘मॉडल नियम’ बनाने होंगे. इनमें कोई भी बदलाव सरकार की मंजूरी से होगा. सरकार सभी विश्वविद्यालयों के लिए समान कानून बनाने के लिए पूरी तरह से सशक्त होगी|
दूसरी ओर, विधेयक किसी विश्वविद्यालय को किसी शिक्षण या गैर-शिक्षण स्टाफ सदस्य को विधानसभा या संसद का सदस्य बनने पर रोक लगाने की अनुमति नहीं देता है, जैसा कि अब तक होता आया है. इसके बजाय, विधायक/सांसद के रूप में उनकी सेवा की अवधि को बिना वेतन छुट्टी की अवधि के रूप में गिना जाएगा|
सौजन्य :द वायर
नोट : समाचार मूलरूप से thewirehindi.com में प्रकाशित हुआ है ! मानवाधिकारों के प्रति सवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित|