ग्राउंड रिपोर्ट: चाईबासा में आदिम युग में जी रही बिरहोर जनजाति, नहीं पहुंचीं सरकारी योजनाएं
चाईबासा। झारखंड के पश्चिम सिंहभूमि जिला मुख्यालय चाईबासा से 84 किमी दूर है बंदगांव प्रखंड और प्रखंड मुख्यालय से लगभग 20 किमी दूर है कांडेयोंग वन ग्राम गांव। इस गांव में रहते हैं विलुप्त प्राय आदिम जनजाति बिरहोर के 20 परिवार। इनकी कुल आबादी लगभग 100 के आसपास है। गांव के इन आदिम जनजाति के लोगों के विकास के लिए तैयार की गई सरकार की तमाम योजनाएं इन तक नहीं पहुंच पाई हैं।
यह गांव जंगलों से घिरा है, जिस कारण सरकारी और प्रशासनिक स्तर पर यह नक्सल प्रभावित क्षेत्र माना जाता है। कहना ना होगा इस बहाने भी सरकारी महकमा इनके विकास को लेकर लापरवाह है या यूं कहें तो इस क्षेत्र के विकास में इनकी कोई रुचि नहीं है। वैसे स्थानीय अखबारों में गाहे-बगाहे इनके विकास को लेकर किए जा रहे कार्यक्रमों की फेहरिस्त छपती रहती है। ये खबरें कैसे छपती हैं, किसी से छुपा नहीं है। यही कारण है कि इन बिरहोर परिवारों की स्थिति काफी दयनीय है और इन्हें अब तक मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहना पड़ रहा है।
रोजगार के लिए कुछ लोग बंगाल के ईंट भट्ठों में काम करने जाते हैं। वहीं प्रायः लोग दूसरों के खेतों में काम करके अपनी आजीविका चलाते हैं। कुछ लोग जंगल से बच्चम और कुदरुम की लताओं को काटकर लाते हैं। उसकी छाल निकालकर उससे रस्सी बनाते हैं। जिसका उपयोग घरेलू जानवरों- गाय, भैंस व बकरी बांधने के लिए होता है। इसे बेचकर भी जो पैसा आता है उससे ये लोग अपना पेट पालते हैं। यह काम प्राय: बुज़ुर्ग लोग करते हैं।
जंगल के किसी खास पेड़ के पत्ते और उनकी लताओं से बना सिकुवर (एक तरह की प्लेट और थाली) बेचकर इनकी जीविका चलती है। इस तरह के काम में महिलाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस गांव में किसी परिवार के पास मनरेगा का जाॅब कार्ड नहीं है। जिसके कारण इन्हें न तो मनरेगा के तहत कोई काम मिलता है और न ही काम नहीं मिलने के एवज में बेरोजगारी भत्ताओं को काटकर लाते हैं। उसकी छाल निकालकर उससे रस्सी बनाते हैं। जिसका उपयोग घरेलू जानवरों- गाय, भैंस व बकरी बांधने के लिए होता है। इसे बेचकर भी जो पैसा आता है उससे ये लोग अपना पेट पालते हैं। यह काम प्राय: बुज़ुर्ग लोग करते हैं।
बता दें कि जब मनरेगा के जाॅब कार्डधारी अपने प्रखंड कार्यालय से काम की मांग करते हैं, तो उन्हें 15 दिन में काम का आवंटन जरूरी होता है। ऐसा संभव नहीं होने पर अगले पखवाड़े में आवेदक को काम नहीं मिलने की एवज में बेरोजगारी भत्ता देय होता है। इस तरह आवेदन करने के एक महीने में काम नहीं मिलने पर बेरोजगारी भत्ता देय होता है जो साप्ताहिक आधार पर दिया जाता है।
आदिम जनजातियों के लिए सरकारी योजना के तहत मुख्यतः दो योजनाएं आदिम जनजाति पेंशन योजना और आदिम जनजाति डाकिया खाद्यान्न योजना है। जिसके आलोक में आदिम जनजाति पेंशन योजना का लाभ उसे मिलता है, जो किसी सरकारी, निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरी नहीं करता है और किसी भी तरह का नियमित मासिक आय प्राप्त नहीं करता है। इस योजना का लाभुक परिवार की मुख्य महिला ही होती है। लेकिन आदिम जनजाति पेंशन योजना का लाभुक लुप्तप्राय बिरहोर जनजाति आबादी वाले इस गांव में कोई भी नहीं है।
एक अन्य योजना आदिम जनजाति डाकिया खाद्यान्न योजना है। इसके तहत सरकार की ओर से प्रत्येक परिवार को हर माह 35 किलो चावल दिया जाता है। खाद्य एवं आपूर्ति विभाग से जुड़े अधिकारी खासकर आपूर्ति पदाधिकारी अनाज को आदिम जनजाति के घरों तक पहुंचाते हैं। लेकिन यहां इसका लाभ नहीं मिलता है।
ग्रामीण बताते हैं कि वे चावल लाने के लिए दूर के गांव कुंदरुबुटु की सरकारी राशन दुकान जाते हैं, लेकिन वहां जो राशन मिलता है वह कितना मिलता है इन्हें पता नहीं, वहीं यह नियमित भी नहीं मिलता। कभी दो महीने का, तो कभी तीन महीने का इन्हें राशन नहीं मिल पाता है। यह राशन इन्हें आदिम जनजाति डाकिया खाद्यान्न योजना के तहत मिलता है या जन वितरण प्रणाली के तहत, इन्हें इसकी भी जानकारी नहीं है।
इनके पास बिरसा आवास का लाभ भी नहीं है। अतः जंगल से लकड़ी लाकर उसकी दीवार बनाते हैं और छप्पर की जगह प्लास्टिक का सहारा लेते हैं, वह भी खासकर बरसात में, वर्षा के पानी से बचने के लिए। इनके पास न तो बिजली की सुविधा है न ही पेयजल की। शाम होते ही इनकी जो भी भोजन की व्यवस्था होती है उसे खाकर जल्दी सो जाते हैं। क्योंकि अंधेरे से बचने के लिए इनके पास रोशनी का कोई साधन नहीं है। कुछ लोग किरासन तेल से डिबरी जलाते हैं, वह भी एकाध घंटा ही। किरासन तेल भी कभी कभी ही उपलब्ध हो पाता है। खेतों में बना चुंआड़ी पीने के पानी का एकमात्र सहारा
ठंड से बचने के लिए ये लोग अलाव जलाकर रात भर गुजारा करते हैं। क्योंकि इन्हें सरकार की ओर मिलने वाला कंबल भी नसीब नहीं होता है। केवल अखबारों में नाम और अपना काम छपवाने के लिए सरकारी महकमे के लोग एकाध लोगों को कंबल देते हुए फोटो खिंचवा लेते हैं और अखबार में खबर छपवा लेते हैं।
मंगल बिरहोर बताते हैं कि “ठंड में हम सभी बिरहोरों को कंबल भी नहीं मिल पाया था। इसलिए जाड़ा के मौसम में हम लोग जंगल से सूखी लकड़ी लाकर जलाकर रात गुजारते है।”
मुंडा सोम चांद बिरहोर के अनुसार झारखंड सरकार की ओर से इन्हें अब तक कोई भी मूलभूत सुविधा उपलब्ध नहीं हो पायी है।स्थिति ऐसी है कि आवास के अभाव में आज भी यहां के बिरहोर लकड़ी के पट्टे से बनी झोपड़ी में रहने को विवश हैं, जिसके ऊपर प्लास्टिक ढककर रहना पड़ता है। बिरसा आवास हो या प्रधानमंत्री आवास किसी योजना का लाभ अब तक सरकार की ओर से उपलब्ध नहीं हो पाया है।
बताया जाता है कि वन पट्टा नहीं होने के कारण बिरहोर जाति के लोगों का ना तो जाति प्रमाण पत्र बन पाता है और ना ही आय और आवासीय प्रमाण पत्र। जिसके कारण इन्हें सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित रहना पड़ रहा है। यहां स्कूल के अभाव में इनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई नहीं होती है। ऐसे में इन्हें सरकारी नौकरी मिलने की कोई गुंजाइश नहीं दिखती है।
बुधराम बिरहोर बताते हैं कि “बहुत सारे लोगों का राशन कार्ड भी नहीं बन सका है। हम बिरहोरों को देखने एवं मूलभूत सुविधा उपलब्ध कराने के लिए प्रशासन की ओर से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। जिस कारण यहां के हम बिरहोर काफी खराब स्थिति में जी रहे हैं।”
ग्रामीण बताते हैं कि “हमलोगों पास न तो प्रधानमंत्री आवास है ना बिरसा आवास, ना ही बकरी शेड और ना ही आंगनबाड़ी केंद्र का भवन। एक झोपड़ी में आंगनबाड़ी केंद्र चलता है लेकिन नियमित नहीं। लोग बताते हैं कि इस क्षेत्र में ब्लॉक के अफसर आते तो हैं। लेकिन केवल घुम-घाम कर और कुछ फोटो खिंचवा कर चले जाते हैं।
बहादुर बिरहोर बताते हैं कि “हम लोग जंगल से बच्चम और कुदरुम के लत्तर (लता) को काटकर लाते हैं, उसकी छाल निकालकर उससे रस्सी बनाकर किसी तरह अपना जीवन यापन करते हैं। मगर उतनी आमदनी नहीं होने के कारण हम लोगों की स्थिति काफी खराब है।”
जनगणना 2011 के अनुसार झारखंड की आबादी लगभग 3.29 करोड़ है। जो भारत की कुल जनसंख्या का 2.72% हैं। जिसमें आदिम जनजाति बिरहोर की जनसंख्या 10,726 है जो लगातार कम से कमतर होती रही है। जिसका कारण उनकी जीवन शैली में सरकारी उदासीनता और उनकी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है।
सौजन्य :जनचौक
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