दलित आरक्षण पर भिड़े थे गांधी-अंबेडकर:5 दिन उपवास के बाद समझौता; आज के दिन हुए पूना पैक्ट की कहानी
जिसे पूना पैक्ट के नाम से जानते हैं। इसके समझौते के बाद दलितों को मिला दो वोट का अधिकार खत्म हो गया। इस घटना को आज 91 साल पूरे हो रहे हैं।
19 सितंबर 1932 की सुबह। 3 अलग-अलग जगहों पर कुछ ऐसा माहौल था…
सीन-1: पुणे की यरवदा जेल। महात्मा गांधी ने ऐलान कर दिया था कि अगर 24 घंटे में दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र का फैसला वापस नहीं लिया जाता, वो अन्न त्याग देंगे। मरते दम तक भूखे रहेंगे।
सीन-2: बॉम्बे (अब मुंबई) का इंडिया मर्चेंट चैंबर हॉल। बरामदे में जानी-मानी हस्तियां जमा हो रही थीं। इन सबके पास एक मिशन था- बापू की जिंदगी बचाना। इसके लिए उनके पास बहुत कम वक्त बचा था।
सीन-3: डॉ भीमराव अंबेडकर का घर। वो गुस्से से भरे हुए थे। उनका कहना था कि गांधी जी का ये कदम एक चाल है। वो अपने लोगों से किसी भी कीमत पर धोखा नहीं करेंगे।
इससे ठीक 5 दिन बाद यानी 24 सितंबर 1932 की शाम 5 बजे पुणे की यरवदा जेल में अंबेडकर और गांधी के बीच एक समझौता हुआ।
जिसे पूना पैक्ट के नाम से जानते हैं। इसके समझौते के बाद दलितों को मिला दो वोट का अधिकार खत्म हो गया। इस घटना को आज 91 साल पूरे हो रहे हैं।
भास्कर एक्सप्लेनर में पूना पैक्ट को लेकर गांधी और अंबेडकर के बीच मचे खींचतान की पूरी कहानी जानेंगे…
जनवरी 1931 में लंदन में दूसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ। इसमें महात्मा गांधी और डॉ भीमराव अंबेडकर दोनों शामिल हुए। अंबेडकर ने यहां दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग रखी। सम्मेलन के समय ही महात्मा गांधी ने इसका विरोध कर दिया।
16 अगस्त 1932 को ब्रिटिश सरकार ने कम्युनल अवॉर्ड की शुरुआत की। इसमें दलितों के साथ कई समुदायों को भी अलग निर्वाचन क्षेत्र का अधिकार दिया गया।
साथ ही दलितों को 2 वोट का अधिकार भी मिला। दो वोट का अधिकार यानी दलित एक वोट से अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे और दूसरे वोट से वो सामान्य वर्ग के किसी प्रतिनिधि को चुन सकते थे।
महात्मा गांधी ने यरवदा जेल में ही शुरू कर दिया था अनशन
दलितों को दो वोट का अधिकार मिलते ही महात्मा गांधी ने इसका विरोध शुरू कर दिया। उनका मानना था कि दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र और दो वोट के अधिकार से हिंदू समाज बंट जाएगा। एक ही समाज में दलित हिंदुओं से अलग हो जाएंगे।
इसके विरोध में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार को कई चिट्ठियां लिखी। 18 अगस्त को तब के ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैक्डोनाल्ड को लिखी चिट्ठी में कहा कि वो इस फैसले का विरोध अपनी जान देकर भी करेंगे। 9 सितंबर को भी गांधी ने यही बात दोहराई। हालांकि अंग्रेजों पर इसका कोई असर नहीं हुआ।
सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की सुगबुगाहट पाकर ब्रिटिश सरकार ने महात्मा गांधी को राजद्रोह के आरोप में जेल में बंद कर दिया। 18 सितंबर को महात्मा गांधी ने जेल से ऐलान कर दिया कि जब तक दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र का फैसला वापस नहीं लिया जाता, वो कुछ भी नहीं खाएंगे।
मरते दम तक भूखे रहेंगे। आखिरी बार महात्मा गांधी ने ऐसा उपवास 1918 में अहमदाबाद के कपड़ा मिल के मजदूरों के पैसे बढ़ाने के लिए किया था।
महात्मा गांधी के उपवास के ऐलान से जवाहर लाल नेहरू चिढ़ गए थे
20 सितंबर की सुबह 11:30 बजे महात्मा गांधी ने अपना आखिरी खाना खाया। इसके बाद ऐलान किया कि जब तक उनकी बात नहीं मानी जाती वो मरते दम तक उपवास करेंगे। इसी दिन से उन्हें मनाने का सिलसिला भी शुरू हो गया।
उनके इस फैसले को लेकर बाद में जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा, ‘अपने बलिदान के लिए इस तरह का मुद्दा चुनने के उनके फैसले से तब चिढ़ हुई थी।’ उधर लंदन में जब यह खबर पहुंची तो हंगामा मच गया।
अंग्रेजों को डर था कि महात्मा गांधी के इस तरह की मृत्यु भारत के लोगों को भड़का सकती थी। ब्रिटेन ने साफ कर दिया कि वो कोई भी फैसला मानने को तैयार हैं, जो हिंदुओं और हरिजनों को मंजूर हो।
गांधी के इस कदम को डॉ भीमराव अंबेडकर ने गुस्से में एक चाल बताया
डॉ भीमराव अंबेडकर के लिए महात्मा गांधी का ये कदम किसी झटके की तरह था। वो गुस्से से भर उठे। यहां तक कि गांधी के इस कदम को अंबेडकर ने एक चाल बता दिया। 26 फरवरी 1955 को बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में अंबेडकर ने इसका जिक्र किया था।
दूसरी तरफ पूरी मुंबई के हिंदू, हरिजन नेताओं से मिलने लगे। महात्मा गांधी के स्वास्थ्य पर रोजाना अखबार में बुलेटिन छपने लगे। स्वास्थ्य जैसे-जैसे बिगड़ता जा रहा था, देश में खलबली बढ़ती जा रही थी। कांग्रेस के नेताओं ने अंबेडकर को समझौते के लिए मनाने की कोशिश की।
अंबेडकर ने दलितों को अधिकार दिलाने की बात को अपना कर्तव्य बताया। कहा कि भले ही उन्हें फांसी दे दी जाए पर वे अपने लोगों से धोखा नहीं करेंगे। अंबेडकर को इस बात से समस्या थी कि संयुक्त निर्वाचन में अपर कास्ट हिंदू दलितों का शोषण ही करेंगे।
अंबेडकर से गांधी के बेटे ने गिड़गिड़ाते हुए कहा कहा था- तबीयत ज्यादा बिगड़ रही है
22 सितंबर को अंबेडकर गांधी से मिलने यरवदा जेल में पुणे पहुंचे। गांधी के सेक्रेटरी महादेव देसाई के नोट्स के मुताबिक अंबेडकर ने कहा कि वे दलितों के लिए पॉलिटिकल पॉवर चाहते हैं। यह उनकी बराबरी के लिए जरूरी है। दोनों अपनी जिद पर अडे़ रहे। 23 सितंबर को भी इस बात का कोई निष्कर्ष नहीं निकला।
क्रिस्टोफ जाफरलॉट अपनी किताब ‘डॉ अंबेडकर एंड अनटचबिलिटी’ में लिखा है कि अगली सुबह महात्मा गांधी के बेटे देवदास गांधी नम आंखों से अंबेडकर के सामने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘पिताजी की तबीयत ज्यादा बिगड़ रही है।’
अंबेडकर को आम लोगों से मौत की धमकियां मिल रही थी। देश के सभी बड़े समाचार पत्रों में गांधीजी की बिगड़ती तबीयत और अंबेडकर की जिद की खबरें छप रही थी। इन सबसे अंबेडकर पर दबाव बढ़ रहा था।
अंबेडकर ने अपने दोस्त और तमिल नेता एमसी राजा से इस बारे में बात की। राजा ने अंबेडकर को समझाया। उन्होंने कहा कि देश के लोग दलितों को बारे में हमेशा यही मानसिकता बनाए रखेंगे कि इन लोगों ने गांधीजी की जान के लिए भी समझौता नहीं किया।
आखिरकार 25 सितंबर की शाम 5 बजे पूना पैक्ट साइन हुआ
यरवदा जेल में उपवास के तीसरे दिन यानी 23 सितंबर को महात्मा गांधी का ब्लड प्रेशर खतरे से ऊपर बढ़ने लगा। अंबेडकर समझौते के लिए तैयार हो गए।
24 सितंबर को शाम 5 बजे पूना पैक्ट पर 23 लोगों ने साइन किए। हिंदुओं और गांधी की ओर से मदन मोहन मालवीय ने इस पैक्ट पर हस्ताक्षर किए। वहीं, दलितों की तरफ से अंबेडकर ने साइन किए।
समझौते में तय हुआ कि दलित भी अपर कास्ट हिंदुओं के साथ ही वोट करेंगे। ब्रिटिश सरकार ने दलितों के लिए 71 सीट्स दी थी, जिन्हें बढ़ाकर 148 कर दिया गया। सी राजगोपालचारी ने अंबेडकर के साथ फाउंटेन पेन बदलकर समझौते पर मुहर लगाई।
यहां जो समझौता हुआ उसे ही पूना पैक्ट कहा गया। इसमें गांधी और अंबेडकर इस बात पर राजी हुए कि दलित समेत सभी हिंदू सभी उम्मीदवारों के लिए वोट करेंगे।
हिंदुओं और दलितों के बीच इस अंतर को खत्म करने के लिए टाइस लिमिट पर अंबेडकर 10 साल के लिए राजी हो गए, जबकि पहले 15 साल की मांग कर रहे थे। दूसरी तरफ महात्मा गांधी इसे 5 साल करने पर अड़े थे।
वो आखिर तक नहीं माने। तब सी राजगोपालाचारी ने सुझाव दिया कि इस बात पर बाद में चर्चा की जा सकती है। इस पर अंबेडकर और महात्मा गांधी दोनों ही सहमत हो गए।
पैक्ट साइन होने के बाद उसे लंदन भेजा गया। जब यह लंदन पहुंचा तब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड राज घराने के किसी सदस्य की शोकसभा में गए हुए थे। उन्हें जैसे ही खबर मिली वो 10 डाउनिंग स्ट्रीट आए और अपने सहयोगियों के साथ आधी रात तक उस दस्तावेज को पढ़ते रहे।
27 सितंबर को एक ऐलान हुआ। लंदन और दिल्ली में एक साथ यह बताया गया कि ब्रिटिश सरकार ने पूना पैक्ट को स्वीकार कर लिया है। यह सूचना यरवदा जेल में महात्मा गांधी तक पहुंचाई गई। तब जाकर उन्होंने शाम के 5:15 बजे उपवास खत्म किया।
सौजन्य :दैनिक भास्कर
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