सरकार से वार्ता के आश्वासन पर कुड़मी समाज का रेल रोको आंदोलन स्थगित, एसटी में शामिल करने की है मांग
रांची। आदिवासी में शामिल किये जाने की मांग को लेकर झारखंड, बंगाल और ओड़िशा के कुड़मी (कुर्मी) समाज का 20 सितंबर की सुबह से अनिश्चितकालीन ‘रेल टेका-डहर छेंका’ (रेल रोको-रास्ता रोको) आंदोलन शुरू हुआ, जिसे शाम को वापस ले लिया गया। झारखंड के आंदोलनकारियों के साथ एडीएम लॉ एंड ऑर्डर ने दो घंटे की वार्ता के बाद आश्वासन दिया गया कि उनकी मांगों पर कि 25 सितंबर को झारखंड के मुख्य सचिव से तथा 2 अक्टूबर को केंद्रीय गृह सचिव से आंदोलनकारियों की वार्ता होगी। उक्त आश्वासन के बाद आंदोलनकारी अपना आंदोलन वापस ले लिया।
आंदोलन स्थगन का दूसरा कारण यह भी रहा कि कोलकाता हाईकोर्ट ने कुड़मी आंदोलन पर रोक लगा दी थी। दरअसल 20 सितंबर के रेल रोको आंदोलन के कारण करीब 172 ट्रेनों को रद्द कर दिया गया था, जबकि कई ट्रेनों को डाइवर्ट कर दिया गया था। इसी को लेकर हाईकोर्ट ने मामले में हस्तक्षेप किया। हाईकोर्ट ने कहा कि “कुड़मी समुदाय चाहे तो अपनी आवाज संस्थागत स्थानों पर उठा सकता है। लेकिन इस तरह का आंदोलन, जिससे आम जनमानस परेशान हो, वह करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है।”
हालांकि कुड़मियों के इस आंदोलन का असर झारखंड में व्यापक रूप में देख गया। जबकि झारखंड पुलिस आंदोलन को लेकर काफी अलर्ट थी। चप्पे-चप्पे पर सुरक्षा बलों की तैनाती की गई थी। कुड़मी आंदोलन में महिलाओं की भी भागीदारी देखी गई।
आदिवासी कुड़मी मंच के मुख्य सलाहकार, अजीत महतो ने कहा कि आदिवासी कुड़मी समाज के लोग बीजेपी, जेएमएम, कांग्रेस, आजसू आदि राजनीतिक दलों का झंडा थामे हुए हैं। इस वजह से समाज के लोग एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। हम लोग उन्हें समझाने का प्रयास कर रहे हैं। हमने साफ कह दिया है कि समाज के लोग केवल दो साल के लिए पार्टी छोड़कर मंच का झंडा थाम लें, तो रिजल्ट मिलते देर नहीं लगेगी।
आंदोलन खत्म करने को लेकर टोटेमिक कुड़मी विकास मोरचा के केंद्रीय अध्यक्ष शीतल ओहदार ने बताया कि हमें भरोसा दिया गया है कि 25 सितंबर को झारखंड के मुख्य सचिव से आंदोलनकारियों की वार्ता होगी, इस बातचीत के बाद सरकार रास्ता निकालेगी। हमने अभी आंदोलन स्थगित कर दिया है।
कुड़मी समाज को एसटी में शामिल करने के लिए किए जा रहे आंदोलन पर प्रतिक्रिया देते हुए पूर्व मंत्री गीताश्री उरांव ने कहा कि कुरमी/कुड़मी जाति समुदाय को आदिवासी बनाने को लेकर किया जा रहा आंदोलन आदिवासियों के हक-अधिकारों को हड़पने की मंशा को लेकर है। इन लोगों का आदिवासी बनने का दावा बिल्कुल निराधार व बेबुनियाद है। आदिवासियों के जमीन व जंगल के लंबे संघर्षो में इनकी कोई भूमिका नहीं है।
उन्होंने कहा कि आदिवासियों को अपने अधिकार को बचाने के लिए आपस में मिलकर संघर्ष करना होगा। पूर्व मंत्री ने कहा कि कुरमी/कुड़मी लोगों का रेल टेका आंदोलन पूरी तरह केन्द्र सरकार व भाजपा की सांठ-गांठ से संचालित है।
आदिवासी समन्वय समिति के प्रदेश संयोजक लक्ष्मी नारायण मुंडा ने कहा कि कुरमी/कुड़मी जाति समुदाय के संगठनों का आंदोलन आदिवासी समुदाय के राजनीतिक हिस्सेदारी, प्रतिनिधित्व, आरक्षण, जमीन, नौकरी, रोजगार और हक-अधिकारों पर काबिज होने और मूल आदिवासियों को हाशिए में डालने के लिए है। कुरमी/कुड़मी जाति कभी आदिवासी नहीं है। आदिवासी एक रेस है, उस रेस में ये समुदाय कभी नहीं रहा है।
उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार और भाजपा की भूमिका का पर्दाफाश हो गया है। देश की करोड़ों रुपये राजस्व घाटे में डालने, ट्रेन संचालन को रद्द करके लाखों यात्रियों को परेशानी में डालने जैसे अपराधिक कृत्यों के बावजूद रेल मंत्रालय की चुप्पी साबित कर रही है कि इस खेल में वो भी शामिल हैं। इसलिए आदिवासी समुदाय को इस साज़िश को समझकर इसके खिलाफ खड़ा होना होगा।
पूर्व सांसद सह आदिवासी सेंगेल अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष सालखन मुर्मू ने कहा कि कुर्मी-महतो पहले कभी भी आदिवासी सूची में नहीं थे। जोर जबरदस्ती करके वे एसटी नहीं बन सकते हैं। भले ही कुछ राजनीतिक दल वोट बैंक के लोभ लालच में उनको भड़का रहे हैं। यदि उनके पास प्रमाण और तथ्य हैं तो उन्हें हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिए। देश और जनता को परेशान और गुमराह करने की जरूरत नहीं है।
उन्होंने आगे कहा कि अगर यही हाल रहा तो कुर्मी-महतो के आदिवासी विरोधी प्रयास को रोकने के लिए भारत के 13 करोड़ असली आदिवासी उग्र आंदोलन के लिए बाध्य हो सकते हैं।
वहीं कुड़मी समुदाय आदिवासी है के पक्ष में पूर्व सांसद शैलेंद्र महतो कहते हैं कि कुड़मी जनजाति पिछले कई वर्षों से अपनी पहचान आदिवासियत की लड़ाई लड़ रही है। कुड़मी के इतिहास, भाषा, संस्कृति, साहित्य से इसकी पहचान समाज में स्थापित है। 3 मई 1913 के भारत सरकार के कई दस्तावेजों में कुड़मी को जनजाति माना है। खासकर भारत सरकार के गजट नोटिफिकेशन और 16 दिसंबर 1931 के बिहार- ओडिशा के गजट नोटिफिकेशन में हिंदू, मुसलमान, इंसाई, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी से अलग मानते हुए संथाल, मुंडा, उरांव, खड़िया की तरह कुड़मी को ओबॉरिजनल (आदिवासी) ट्राइब माना है।
शैलेंद्र महतो कहते हैं कि इसके अलावा पटना हाइकोर्ट के तीन फैसले (कृतिवास महतो बनाम भूदान महतानी, हरकानाथ ओहदार बनाम गणपत राय व अन्य मोहरी महतो बनाम मोकरम महतो) के निष्कर्ष यही हैं कि छोटानागरपुर के कुड़मी महतो प्रजातीय रूप से आदिवासी जनजाति है। कुड़मी हिंदू विधि से नहीं बल्कि प्रथागत नियमों द्वारा शासित होते हैं और कुड़मी गैर आर्य वंश है।
वे आगे कहते हैं कि देश के आंदोलन की बात हो या झारखंड के आंदोलन की हर लड़ाई में कुड़मियों ने अपना बलिदान दिया है। दुःख की बात है कि कुड़मियों को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के मुद्दे पर केंद्र की भाजपा सरकार कोई जवाब नहीं दे रही है। जबकि वर्ष 2022 में भारत सरकार के जनजातीय मंत्रालय ने कई जनजातियों को अनुसूचित जनजाति में का दर्जा दिया है।
इसके पूर्व 2018 में मेरे नेतृत्व में 42 विधायक, दो सांसदों ने कुड़मी को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास को समर पत्र भी लिखा जिसमें तत्कालीन विपक्ष के नेता हेमन्त सोरेन ने भी हस्ताक्षर किये थे।
पूर्व सांसद महतो कहते हैं कि इसके भी पूर्व में अगर हम देखें तो झारखंड बनने के बाद 22 अगस्त 2003 को तत्कालीन जमशेदपुर की सांसद आभा महतो के नेतृत्व में झारखंड के 15 सांसदों ने कुड़मी को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के लिए तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को मांग पत्र सौंपा था। इसमें 13 सांसद भाजपा के और 2 सांसद कांग्रेस पार्टी के थे।
राजनीतिक दवाब के कारण वर्ष 2004 में झारखंड की अर्जुन मुंडा की सरकार ने मंत्रिमंडल में कुड़मी को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने का प्रस्ताव केंद्र की यूपीए (प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह) सरकार को भेजा था। सवाल है कि आखिर केंद्र सरकार कुड़मियों को धोखा क्यों दे रही है? जबकि कुड़मियों को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग संवैधानिक है।(विशद कुमार की रिपोर्ट।)
सौजन्य :जनचौक
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