बिहार का जाति सर्वे: मंडल राजनीति के नए युग की ओर कदम, लेकिन पैंतरा बदलना होगा
कई मुश्किलों का सामना करने के बाद, बिहार ने अपने ऐतिहासिक और महत्वाकांक्षी जाति सर्वे (Bihar Caste Survey) के डेटा कलेक्शन का चरण पूरा कर लिया है. अगर सरकार यह डेटा जारी करती है तो बिहार स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसी कवायद सार्वजनिक रूप से आयोजित करने वाला पहला राज्य बन जाएगा.
कुछ अपनी जिज्ञासा और यह जानने के लिए कि इसका बिहार की राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ा है, हमने राज्य में कई सर्वे स्थलों का दौरा किया. हमने इस प्रक्रिया, इसके प्रति जनता की प्रतिक्रियाओं और इसके राजनीतिक प्रभाव को देखा.
नई मंडल राजनीति की जरुरत क्यों हैं?
हिंदी पट्टी की राजनीति दो महत्वपूर्ण विचारधाराओं के इर्द-गिर्द घूमती है. पहली, RSS-बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति की शैली. और दूसरा सामाजिक न्याय की राजनीति, जो ज्यादा प्रतिनिधित्व पाने वाले ऊंची जाति के हिंदुओं के खिलाफ पिछड़ी हिंदू जातियों और मुसलमानों को एकजुट करने की कोशिश करती है. इसका प्रतिनिधित्व जेडीयू, आरजेडी, एसपी, बीएसपी आदि करते हैं. पूरे 90 के दशक में, सामाजिक न्याय की विचारधारा, हिंदुत्व की राजनीति के लिए सबसे बड़ी बाधा थी.
‘पिछड़े बनाम अगड़े’ और ‘पचासी बनाम पंद्रह’ की अपनी बयानबाजी के जरिए, सामाजिक न्याय ने हिंदुत्व की राजनीति को हाशिए पर रखा.
ओबीसी और एससी के बड़े वर्ग ने बीजेपी की जीत में निर्णायक भूमिका निभाई है. इसकी पहली वजह है ओबीसी और एससी समुदाय की जातियों के बीच संसाधनों के गैर-बराबर बंटवारे की स्तिथि. यहां संसाधन से अर्थ है आरक्षण, विधानसभा सीटें और सामाजिक न्याय की बात करने वाली पार्टियों के बीच नेतृत्व.
दूसरी वजह है, आक्रामक हिंदुत्व की राजनीति. बीजेपी मुसलमानों को हिंदू संस्कृति के अस्तित्व के लिए खतरे के रूप में पेश करने में कुछ हद तक सफल हो गयी है.
इसका नतीजा यह हुआ कि हिंदुओं की सभी जातियां बीजेपी के प्रति एकजुट हो गईं.
बिहार में लोगों का जाति सर्वे पर क्या रुख है?
जाति सर्वे की राजनीति को इसी संदर्भ में समझा जा सकता है.
जैसे-जैसे 2024 के आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, बिहार में सामाजिक न्याय की बात करने वाली पार्टियां आक्रामक हिंदुत्व राजनीति का मुकाबला करने के लिए जाति सर्वे का इस्तेमाल करना चाहती हैं.
‘पिछड़ा बनाम अगड़ा’ की उनकी पुरानी बयानबाजी मंडल आयोग की रिपोर्ट के 30 साल से ज्यादा पुराने आंकड़ों पर आधारित थी. अब उन्हें ओबीसी, एससी और मुसलमानों के बीच आंतरिक विरोधाभास की कई जटिलताओं से निपटने के लिए मजबूत वैज्ञानिक डेटा की जरुरत है.
पार्टियों को यह भी उम्मीद है कि जातिगत राजनीति की यह नई लहर उन्हें आने वाले चुनावों में बीजेपी से मुकाबले में बढ़त दिलाएगी. लेकिन बिहार की जनता जातिगत सर्वे को कैसे ले रही है? क्या हम कह सकते हैं कि मंडल राजनीति के बाद जाति सर्वे बिहार की राजनीति में एक और बड़ा ब्रेकप्वाइंट है?
इसके साथ ही जाति सर्वे की कवायद से सामाजिक न्याय की बात करने वाली पार्टियों को कई उम्मीदें हैं. लेकिन फिलहाल यह बिहार की आबादी के लिए सबसे बड़ा मुद्दा नहीं दिखता है.
वे इसे राशन कार्ड, विधवा पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन, पक्के मकान आदि में अपना नाम जोड़ने के एक तरीके के रूप में देखते हैं. हमारी बातचीत के दौरान एक दलित महिला ने सर्वे करने वाले के बारे में कहा कि, “बार-बार लिख कर के ले जाते हैं, लेकिन कुछ मिलता तो नहीं है”.
ऊंची ओबीसी जाति के लोगों ने इस सर्वे को लेकर कमोबेश उत्साहित थे क्योंकि उन्हें लगा कि उनकी संख्या बढ़ेगी. दिलचस्प बात यह है कि ऊंची जातियों ने इस प्रक्रिया को जातिवादी और विकास-विरोधी कवायद के रूप में देखा. भूमिहार जाति के एक व्यक्ति के साथ हमारी बातचीत में उन्होंने कहा, “इससे जातिवाद बढ़ेगा, सरकार को आर्थिक जनगणना कराना चाहिए, आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए.”
सामाजिक न्याय दलों को इस डेटा का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए?
मैदान पर हमारा अनुभव बताता है कि मंडल की ‘अगड़ा बनाम पिछड़ा’ जैसी पुरानी बयानबाजी का अब उतना चुनावी महत्व नहीं है, जितना 90 के दशक में था.
हाशिये पर मौजूद लोगों को अपनी असल स्तिथि से गहरी निराशा होती है. सार्वजनिक शिक्षा सुविधाओं के उपयुक्त बुनियादी ढांचे की भारी कमी की वजह से हाशिए पर मौजूद आबादी के लिए आरक्षण कोई चुनावी मुद्दा नहीं है. सार्वजनिक स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे की कमी, कृषि संकट, भूमि जोत के हिस्से में असमानता और बड़े पैमाने पर नौकरी के संकट जनता को किसी भी अन्य चीज की तुलना में कहीं अधिक परेशान करते हैं.
सामाजिक न्याय पर चलने वाली पार्टियों को अगर जाति सर्वे के आंकड़ों को अपनी नई राजनीति का आधार बनाना है तो उन्हें निम्नलिखित बातें सुनिश्चित करनी होंगी.
सबसे पहले, इन पार्टियों को सोशल ग्रुप के लिए फोकस्ड नीतिगत हस्तक्षेप के लिए जाति सर्वे के डेटा का इस्तेमाल करना चाहिए. इसे 90 के दशक के सांस्कृतिक सवालों या अलंकारिक विरोध तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए. डेटा का इस्तेमाल शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी आदि में दलित-बहुजन-मुसलमानों के उत्थान के लिए किया जाना चाहिए.
दूसरा, सामाजिक न्याय दल इस वैज्ञानिक सर्वे डेटा का इस्तेमाल आनुपातिक प्रतिनिधित्व, प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण, यूनिवर्सल एजुकेशन सिस्टम जैसी स्ट्रक्चरल चेंज प्रोसेस के नए रास्ते खोजने के साथ-साथ आर्थिक आधार पर आरक्षण (EWS आरक्षण) की जरुरत पर सवाल उठाने के लिए कर सकते हैं.
तीसरा, एक गंभीर चिंता है कि यह डेटा ओबीसी और एससी की विभिन्न जातियों के बीच झगड़े को बढ़ा सकता है. जैसा कि हमने 2019 के आम चुनाव में देखा है, आंकड़ों में तो एसपी और बीएसपी को बढ़त थी लेकिन वे चुनाव हार गईं. ओबीसी, एससी और मुसलमानों के बीच अत्याचार से लेकर नाइंसाफी तक, हर दिन का विरोध, वोटर के व्यवहार को प्रभावित करता है. सामाजिक न्याय की परिपाटी पर चले वालीं पार्टियों को ओबीसी, ईबीसी, एससी और मुसलमानों के बीच आंतरिक संघर्षों को संबोधित करने के लिए जाति सर्वे डेटा का इस्तेमाल करना चाहिए.
फिर, 1990 के दशक में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद, इसने उत्तरी भारतीय राज्यों की राजनीति को काफी हद तक बदल दिया. पिछड़ों और दलितों, दोनों को राजनीतिक और सार्वजनिक संस्थानों में व्यापक हिस्सेदारी मिली.
बिहार का जाति सर्वे गैर-बीजेपी और कांग्रेस शासित अन्य राज्य सरकारों को भी जाति गणना की प्रक्रिया शुरू करने के लिए प्रेरित कर रहा है. यह मंडल राजनीति के एक नए युग की शुरुआत कर सकता है.
मंडल की राजनीति के नये युग को अपने में आर्थिक समृद्धि के साथ सम्मान का प्रश्न भी जोड़ना चाहिए. उच्च आशाओं और उम्मीदों का परीक्षण केवल तभी किया जा सकता है जब यह आंकड़ा सार्वजनिक नीतियों को बनाने के लिए उपलब्ध हो जाएगा.
सौजन्य : The quint
नोट : समाचार मूलरूप से thequint.com में प्रकाशित हुआ है ! मानवाधिकारों के प्रति सवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित !