बसपा की अकेली राह नहीं आसान, पुराने आंकड़ों के आधार पर खाका खींच रहे राजनीतिक विशेषज्ञ
बहुजन समाज पार्टी बसपा ने भले ही अपने दम पर चुनाव लड़ने का एलान किया है लेकिन बसपा के लिए यह राह आसान नहीं होगी। राजनीतिज्ञ विशेषज्ञ इसे लेकर अलग अलग राय दे रहे हैं। पुराने आंकड़ों को आधार बनाकर आगामी चुनाव की हार जीत का खाका खींच रहे हैं।
लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारियों में जुटे राजनीति दलों ने अपनी-अपनी रणनीति बनानी शुरू कर दी है। जहां कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल समेत कई दलों में महागठबंधन इंडिया में शामिल होने की घोषणा की है। वहीं बहुजन समाज पार्टी ने अपने दम पर अकेले ही लोकसभा चुनाव लड़ने का एलान किया है, लेकिन बसपा के लिए यह राह आसान नहीं होगी। राजनीतिक विशेषज्ञ लोकसभा चुनाव 2019 और उप्र विधान सभा चुनाव 2022 में बसपा को मिले वोट प्रतिशत के आधार पर 2024 के लोकसभा चुनाव की तस्वीर खींच रहे हैं।
बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती 1995, 1997, 2002 से 2003 और 2007 से 2012 तक यानी चार बार उप्र की मुख्यमंत्री रहीं। पार्टी ने दलित, पिछड़े, अतिपिछड़े, मुस्लिमों को साथ लेकर उप्र की राजनीति में कदम रखा। बाद में पार्टी सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय के नारे के साथ आगे बढ़ गई और 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। लेकिन 2012 के विधान सभा चुनाव में बसपा का यह नारा नहीं चल पाया और प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी।
2017 में भाजपा यूपी की जनता के दिलों पर ऐसी छायी कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बसपा, सपा समेत कई दलों का गठबंधन नहीं टिक पाया। इसके अलावा भाजपा को सबसे अधिक सांसद उत्तर प्रदेश से ही मिले।
अगर 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो बसपा ने सपा के गठबंधन में शामिल होकर चुनाव लड़ा था। इसके बावजूद बसपा को उप्र के सहारनपुर, बिजनौर, नगीना, आंबेडकर नगर, श्रावस्ती , लालगंज, घोस और गाजीपुर समेत दस सीटें ही मिली पायी थीं। सपा केवल पांच सीटों पर ही सिमट कर रह गई थी। कांग्रेस को तो केवल रायबरेली की एक लोकसभा सीट पर ही संतोष करना पड़ा। कांग्रेस से आगे तो अपना दल एस भी दो सीट पाकर आगे निकल गया था।
2022 के उप्र विधान में बसपा अकेले चुनाव लड़कर उप्र की केवल एक सीट बलिया की रसड़ा विधान को ही 6585 मतों से जीत पायी थी। निकाय चुनाव 2023 में भी बसपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। अब लोकसभा चुनाव 2024 का बिगुल बज चुका है। ऐसे में समाज के लोग बसपा को लेकर अलग- अलग मत पेश कर रहे हैं।
दलित चिंतक प्रो. सतीश कुमार मानते हैं कि दलितों को सत्ता परिवर्तन का हथियार बनकर रहने की बजाय, सत्ता में साझेदारी के लिए कदम उठाना चाहिए। गठबंधन से बसपा को कभी लाभ नहीं मिला। दलितों के लिए भाजपा और कांग्रेस कभी ठीक नहीं रही। दोनों के करनी और कथनी में अंतर है। दलितों को अपना मुस्तकबिल खुद ही तय करना होगा।
दलित चिंतक रामकुमार असनावड़े कहते हैं हम अध्यात्म पर काम कर रहे हैं, लेकिन जिस समाज में पैदा हुए हैं उसका चिंतन भी जरूरी है। इस समय समाज स्वयं को ठगा महसूस कर रहा है। बसपा अपने मिशन से भटक चुकी है। जिसका परिणाम 2019 के लोकसभा और 2022 के विधान सभा चुनाव के नतीजे हैं।
मुरारीलाल कैन का कहना है कि गठबंधन में चुनाव लड़कर पार्टी का वोट दूसरे दलों के प्रत्याशी को ट्रांसफर हो जाता है। इसलिए बहनजी ने लोकसभा चुनाव अकेले ही लड़ने का निर्णय लिया है वह सोच समझकर ही लिया होगा।
विधान सभा और लोकसभा में बसपा का वोट प्रतिशत
वर्ष चुनाव मिली सीट वोट प्रतिशत
2007 विधानसभा 206 51.12
2012 विधान सभा 80 19.85
2022 विधान सभा 01 12.88
2014 लोकसभा 00 19.06
2019 लोकसभा 10 6.28
सौजन्य : Amar ujala
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