‘आज़ादी के सात दशकों में उन सिद्धांतों पर काम नहीं किया गया जिनके बल पर देश आज़ाद हुआ था’
साल 1947 में 15 अगस्त को जब देश आज़ाद हुआ तो जानी-मानी इतिहासकार और नारीवादी उमा चक्रवर्ती महज़ छह साल की थीं और दिल्ली के एक स्कूल में पढ़ती थीं. लेकिन उस दिन की कई यादें आज भी उमा के लिए ताज़ा हैं. 20 अगस्त 1941 को दिल्ली में जन्मीं उमा एक मेहनती और संवेदनशील छात्रा रहीं, जिन्होंने अपने शुरुआती जीवन में स्वतंत्रता आंदोलन का चरम, देश की आज़ादी, बंटवारे के समय हुई हिंसा, गांधी जी की हत्या का दौर और संविधान को बनते हुए देखा. उसके बाद उमा ने भारतीय गणतंत्र और उसके संवैधानिक तंत्रों को धीरे-धीरे स्थापित हुए देखा और समझा है.
आज़ादी के बाद के सालों में जिन बड़ी-छोटी घटनाओं और सवालों से देश गुज़रा है उसका असर भी उमा के व्यक्तित्व और अकादमिक कामों पर साफ दिखता है. उमा को ज़्यादातर लोग एक नारीवादी इतिहासकार और भारत में नारीवाद आंदोलन की ‘फाउंडिंग मदर’ की तरह जानते हैं. लेकिन असल में अकादमिक कार्य और बतौर शिक्षक दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस में तीन दशकों (1966 -98) तक पढ़ाना उनके जीवन का एक सिर्फ पहलू रहा है.
वे सत्तर के दशक से ही नारीवादी आंदोलन और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए होने वाले विभिन्न आंदोलनों से जुड़ी हुई हैं और सिख दंगे, गुजरात दंगे जैसे कई मुद्दों पर पीड़ितों को न्याय दिलाने की दिशा में भी उन्होंने काम किया है. एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में उमा कई फैक्ट फाइंडिंग टीम और आंदोलनों का हिस्सा रही हैं.
बीते दशक में उमा ने कुल सात फिल्में निर्देशित की हैं- ए क्वाइट लिटिल एंट्री, फ्रैगमेंट्स ऑफ ए पास्ट, एक इंकलाब और आया: लखनऊ 1920-1949, प्रिज़न डायरीज़, मैनी सन्स बिहाइंड ए डार्क स्काई, दरबार- ए – वतन और ये लो बयान हमारे) जिनके ज़रिये उमा ने राजनीति और सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय रहीं महिलाओं के साथ हुए अत्याचार की कहानी बताई है.
उमा ने जाति, महिलाओं के मुद्दों सहित इतिहास के कई विषयों पर करीब सात किताबें और पचास से अधिक शोध लेख लिखे हैं. उनका मुख्य काम जाति और जेंडर के सामाजिक ताने-बाने सहित ही बौद्ध धर्म और प्राचीन भारत के इतिहास का विश्लेषण जैसे विषयों पर हैं. बतौर मानवाधिकार कार्यकर्ता, नारीवादी, शिक्षक, इतिहासकार, लेखक और फिल्म निर्माता उमा चक्रवर्ती ने लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों के पक्ष में और हर तरह के उत्पीड़न और दमन के ख़िलाफ़ समय-समय पर आवाज़ उठाई है.
इस स्वतंत्रता दिवस उमा चक्रवर्ती से 76 साल पहले के इस दिन से जुड़ी उनकीं यादों, अनुभव और आज़ाद भारत की प्रमुख घटनाओं को उनके काम और नज़रिये से समझने के लिए पर द वायर के लिए सृष्टि श्रीवास्तव ने बातचीत की है.
आपने देश को आज़ाद होते हुए देखा, पहली बार आज़ाद भारत के झंडे को फहरते देखा. साल 1947 में देश के आज़ाद होने को लेकर आम लोगों में क्या भावना थी? साथ ही उसके बाद शुरू हुए बंटवारे का उस भावना और उत्सव पर क्या असर था?
मुझे याद है कि 1947 में 14-15 अगस्त की आधी रात को जब देश आज़ाद हुआ तो 15 अगस्त को मेरे स्कूल में एक समारोह हुआ था और हम सब को मिठाई मिली थी. मैंने आज़ादी के उस दिन को उत्सव की तरह समझा था. जब पहली बार तिरंगा फहराया गया था उस समय की याद आज भी एकदम ताज़ा है क्योंकि उस माहौल में झंडा फहराए जाने का बहुत महत्व था और इसी कारण से तिरंगे के साथ मेरा जुड़ाव आज भी है.
मैं आज के भारत में तिरंगे से जुड़े विरोधाभास को समझती हूं लेकिन उस दौर में तिरंगा देश के अंग्रेज़ों से आज़ाद होने का प्रतीक था. मेरी बहन तब 8 साल की थी और बड़ा भाई 10 साल का था. उस समय राजनीति की तो समझ नहीं थी, लेकिन बच्चों को उनके अनुभव के आधार पर आज़ादी और तिरंगे के बारे में जितनी समझ हो सकती है वो थी. आम लोगों में भी ख़ुशी का माहौल था और अपने देश को लेकर तमाम सपने और उम्मीदें थीं. लेकिन ये उत्सव ज़्यादा देर तक नहीं टिका.
एक ही पल देश में आज़ादी का उत्सव था, लोगों के मन में ये भावना थी कि अब उनके देश की स्थिति बेहतर होगी और दूसरे ही पल उस उत्सव का रंग पहले बंटवारे से जुड़े दंगों और फिर महात्मा गांधी की हत्या के कारण फ़ीका पड़ चुका था. इधर तिरंगे के फहरने का उत्सव था और थोड़े समय बाद ही बंटवारे के कारण दंगों की शुरुआत हो चुकी थी जिसके कारण लाखों लोगों को अपने घर, ज़मीन और अपने देश को मजबूरी में छोड़ना पड़ा था और विस्थापित होकर अपनी ज़िंदगी फिर से शुरू करनी पड़ी.
बंटवारे के दंगों से जुड़ी एक घटना मेरे घर के ठीक सामने घटी जहां तीन मुसलमान अपनी जान बचाने के लिए पुलिस थाने की तरफ़ भाग रहे थे, जो अब संसद मार्ग पुलिस थाना है. उसके पीछे एक पुलिस मुख्यालय हुआ करता था. शायद वो सोच रहे थे कि पुलिस स्टेशन में वो सुरक्षित रहेंगे. चूंकि ये घटना मेरे घर के सामने हो रही थी मेरे भाई-बहनों ने भी साफ देखी, उस उम्र में इसका कारण तो समझ नहीं आता था पर हम पर इसका असर बहुत ज़्यादा हुआ था. इसके तुरंत बाद मैं बीमार पड़ी थी और मेरी मां बताती हैं कि मैं उस बुखार में ये पूछ रही थी कि हिंदू और मुसलमान एक दूसरे को क्यों मार रहे हैं. मुझे शायद इतनी अक्ल नहीं थी कि मैं इसका कारण समझ पाऊं लेकिन बाकियों की तरह वो गुस्सा मैं भी महसूस कर रही थी.
मेरा स्कूल (नवीन भारत हाईस्कूल) एक खाली पड़ी ज़मीन के पास शिफ्ट हो गया था, अब उस जगह के पास सांसदों के क्वार्टर हैं. जहां स्कूल चल रहा था वहां कोई गेट या दीवार नहीं थी. मुझे याद है वहां एक उम्रदराज़ सरदार आते थे जो बहुत बड़बड़ाते थे और किस्से कहते रहे थे. वो पाकिस्तान से आए हुए थे और धीरे-धीरे मेरे लिए वो टोबा टेक सिंह हो गए थे. वो अक्सर कहते थे, ‘मां मैं कभी न पिंडी जांवां उत्थे मेरी मां मरी सी उत्थे मेरा प्यों मरा सा’ (मैं कभी वहां नहीं जाऊंगा जहां मेरे माता-पिता मरे थे). उन्होंने अपने परिवार को वहां खोया था और शायद इस स्कूल में उनको कुछ सुकून मिलता था. इन जैसे लोगों के लिए तो देश का आज़ाद होना अपने साथ बहुत से दुख और क्षतियां लेकर आया था.
इसी तरह मुझे महात्मा गांधी की हत्या का दिन आज भी साफ़ तौर पर याद है. हम बंगला साहिब गुरुद्वारे के पास रहते थे. उस समय ज्यादातर लोगों के घर में रेडियो भी नहीं थे लेकिन जैसे ही ये दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई और बात फैली, लोग खुद को घर में रोक ही नहीं पाए. सब बाहर आकर एक दूसरे के साथ इस दुख को बांटने या यूं कहें इस सदमे को समझने-समझाने को कोशिश कर रहे थे. मैं अपने पिता के साथ किंग्सवे (जो अब राजपथ है ) गई थी, जहां गांधी जी के पार्थिक शरीर को लाया गया था और मुझे साफ़ याद है कि मैंने एक कार के बोनट पर चढ़कर वो दृश्य देखा था. गांधीजी की हत्या के बाद राजपथ का दृश्य याद करते हुए आज सोचती हूं कि ये वो व्यक्ति थे जिसने सांप्रदायिकता के खिलाफ़ अपनी जान दे दी और मैंने उस दौर को देखा है.
कुल मिलाकर वो आज़ादी के उत्सव की ख़ुशी इस तरह की हिंसात्मक घटनाओं में कहीं गायब होने लगी और गांधी जी की हत्या के साथ सबको समझ आया कि देश में सांप्रदायिक हिंसा अपने चरम पर पहुंच चुकी है. आम लोगों को आज़ादी से जो ख़ुशी मिली थी या उनकी जो आशाएं थीं, उसके बाद की घटनाओं के कारण वो अचानक क्रोध में बदल चुकीं थीं. हमारे देश में आज़ादी अपने साथ बंटवारा, विस्थापन, हिंसा, गांधी जी जैसे व्यक्तित्व की हत्या और कई निजी क्षतियां लेकर आई थी.
आपातकाल को आज़ाद भारत के इतिहास का काला अध्याय कहा जाता है. तब तक आपने मानवाधिकार आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया था, उस दौर को कैसे याद करती हैं?
साल 1975 में जब आपातकाल की घोषणा हुई उस समय मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस में पढ़ा रही थी जहां बहुत-सी राजनितिक गतिविधियां होती थीं जिसमें लड़कियों की भी बड़ी भागीदारी थी. 70 का दशक सवालों से भरा हुआ था और देशभर में नौजवान अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे और बिहार, गुजरात और दिल्ली में भी छात्र आंदोलन हो रहे थे. छात्र कई लोकतांत्रिक मुद्दे उठा रहे थे जिसका एक सकारात्मक प्रभाव भी पड़ रहा था.
उसी दौरान समाजवादी धड़ा अपनी भाषा (हिंदी) में पढ़ाए जाने की लड़ाई शुरू कर रहा था जिसके परिणामस्वरूप आज दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं के पास ये विकल्प है कि वो अपनी परीक्षा हिंदी या अंग्रेजी में दे सकते हैं.
1973 में एक छात्र नेता (आरके जैन) ने एमए इतिहास की परीक्षा को पहली बार हिंदी में दी थी और टॉप किया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उस साल दीक्षांत समारोह में आई जहां उन्होंने इस छात्र नेता को डिग्री अपने हाथों से दी और इस छात्र ने इंदिरा गांधी के सामने उस डिग्री को लेकर फाड़ दिया और सवाल किया कि जब इस डिग्री से नौकरी नहीं मिल सकती तो इसका क्या फायदा है.
इंदिरा गांधी को इस घटना का बहुत झटका लगा और कुछ दिन बाद जब वो मिरांडा हाउस के स्थापना दिवस पर बतौर अतिथि आईं तो उन्होंने लड़कियों के सामने इस घटना का ज़िक्र किया और इसे गलत बताया. उस वक़्त कॉलेज की यूनियन की नेता ने उनका वहीं विरोध किया और डिग्री फाड़ने या सवाल करने को सही ठहराया था.
राजनीति हम सबके रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा रही है. हमने छात्रों, शिक्षकों, मज़दूरों, नौजवानों और उन सभी लोगों के साथ उनके हक़ की लड़ाई है और स्थिति को और लोकतांत्रिक और बेहतर बनाने की कोशिश की है. आपातकाल का दौर सेंसरशिप और सरकार के दमनकारी रवैये से भरा हुआ था. लेकिन वो 19 महीने में ख़त्म हो गया और उसके पहले और उसके बाद उतना स्पेस था जहां लोग यथास्थिति को चुनौती दे सकते थे और गलत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते थे.
इसके पहले बांग्लादेश युद्ध के समय दिल्ली के विरोध-प्रदर्शनों में हमारे छात्र- छात्राएं हमें लेकर जाते हैं और शिक्षकों और छात्रों के बीच एक तरह की राजनीतिक साझेदारी होती थी. उनका एक दूसरे के विकास में योगदान होता था और विश्वविद्यालयों में एक प्रगतिशील माहौल होता था. सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षक, छात्र सब मिलकर लोकतांत्रिक गतिविधियों के ज़रिये एक बेहतर समाज बनाने की कोशिश करते थे.
फिर आपातकाल की घोषणा के बाद क्या कुछ बदला? उस दौर को आज के समय, जब हाल में व्यापक रूप से कई छात्र-छात्राओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और नौजवानों की गिरफ्तारियां हुई हैं, की तुलना में कैसे देखती हैं?
आपातकाल का समय आया तो सभी सवालों, आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों को दबा दिया गया. प्रेस पर भी सेंसरशिप लग गई और विपक्षी नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया. ये हम सबके लिए एक झटका था क्योंकि कई शिक्षकों की भी गिरफ्तारी हुई जिसमें से लगभग 6 शिक्षकों को 19 महीने जेल में रहना पड़ा. वो दौर बहुत ही भयावह था क्योंकि मानवाधिकारों की बात करने वालों को जेल में डाला जा रहा था. मेरी समझ में वो दौर दमन, अत्याचार और सरकार के मनमाने रवैये का था.
मेरी एक सहकर्मी हुआ करती थीं- रोमा मित्रा जो लोहिया की करीबी थीं और समाजवादी राजनीति में सक्रिय थीं. रोमा भारतीय संविधान की बड़ी जानकार थी और उनसे मेरी अच्छी मित्रता थी. उस दौरान रोमा को भी अंडरग्राउंड होना पड़ा. रोमा बाहर आने के बाद बहुत बीमार हो गईं क्योंकि एक मिडिल क्लास तबके की उम्रदराज़ महिला को इस तरह के दौर से गुज़रना पड़ा.
उस दौरान इस तरह की घटनाओं और लोगों की गिरफ्तारियों के कारण मैं नागरिक अधिकारों के आंदोलन से जुड़ गई और जेल में रह रहे लोगों के अधिकारों पर काम करने की शुरुआत की. उसी दौर पीयूसीएल और पीयूडीआर में बना और मैं इन संगठनों से भी जुड़ गई. आपातकाल के बाद पीयूसीएल और पीयूडीआर के कुछ लोगों ने मिलकर जेल सुधार समिति बनाई और हमें तिहाड़ जाने की अनुमति मिल गई. वहां मैंने जो स्थिति देखी, ख़ासतौर पर जेल मुलाक़ात को देख कर मुझे लगा कि इस जगह पर कितनी अमानवीयता है जिसे सुधारे जाने की ज़रूरत है.
इसी समय से मैंने हिस्ट्री आर्काइव पर फिल्में बनना शुरू कीं, सभी फिल्मों में मैंने उन महिलाओं की कहानी दिखाने की कोशिश की जिन्हें उनके राजनितिक और सामाजिक काम के लिए जेल में डाला गया. कुल मिलाकर अकादमिक काम हो या पढ़ाना हो या सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर काम करना हो या फिर फिल्म निर्माता के रूप में, मेरा उद्देश्य हमेशा उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ उठाना रहा है.
हाल ही में देश में नौजवान छात्र-छात्राओं की गिरफ्तारियां आपातकाल के समय की याद ज़रूर दिलाती हैं पर अभी का दौर उससे भी भयावह है क्योंकि आपातकाल को बकायदा घोषित किया किया गया था और 19 महीने में ख़त्म हो गया था. मुझे इस बात की ख़ुशी है कि नौजवान छात्र-छात्राएं और कार्यकर्ता हमारी अधूरी लड़ाई को आगे बढ़ा रहे हैं, और एक समान और लोकतंत्रिक देश बनाने की कोशिश कर रहे हैं
आपने 1984 के सिख दंगों और 2002 के गुजरात दंगों पर एक अकादमिक और कार्यकर्ता के रूप में काम किया है, उस दौर का भारतीय गणतंत्र पर क्या प्रभाव पड़ा है? आज जिस तरह की सांप्रदायिकता घटनाएं हो रहीं हैं उन्हें कैसे देखतीं हैं?
1984 का दंगा देश पर संगठित हिंसा का पहला धक्का था, जिसके बाद ये मॉडल बन गया. बड़ी बात ये भी थी कि ये हिंसक घटनाएं राजधानी दिल्ली में हो रहीं थीं. मैंने और मेरी ही एक छात्रा नंदिता हसकर ने उस दौर की घटनाओं को दर्ज करने का काम शुरू किया. हमने दंगा पीड़ितों, दंगाइयों, और राहत कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत को रिकॉर्ड किया. मुझे याद है कि कई सिख महिलाओं ने उस समय कहा था, ‘उत्थे कुछ न होइया हमें अपने वतन विच मारा’ (हम पाकिस्तान से तो सुरक्षित आ गए और हमें हमारे वतन में मारा). वो बहुत बुरा दौर था जिसके आधार पर मैंने नंदिता हसकर के साथ मिलकर अपनी पहली किताब (दिल्ली रॉयट: थ्री डेज़ इन लाइफ ऑफ़ ए नेशन) लिखी.
उसके बाद बाबरी हिंसा हुई, फिर 2002 में गुजरात दंगे और एक धर्म के लोगों को निशाना बनाकर नियोजित हिंसा (टारगेटेड वायलेंस) या संगठित हिंसा को हमने पहली बार इस रूप में समझा. गुजरात दंगों के बाद मैंने वहां फैक्ट फाइंडिंग की थी. उस समय हमने किसी को निशाना बनाकर या पहचान करके होने वाली हिंसा को पहली बार एक अलग तरह की हिंसा के रूप में समझा था और साथ ही इसी कड़ी में पहचान करके महिलाओं की साथ होने वाली लैंगिक हिंसा को भी समझा था.
फिर हमने इस विषय पर काम करना शुरू किया और सांप्रदायिक हिंसा बिल की मांग की थी और बलात्कार कानूनों के अंतर्गत टारगेटेड वायलेंस को एक अलग अपराध की श्रेणी में लाने की बात शुरू की थी. इसी आधार पर मई 2023 में मुज़फ्फरनगर दंगों (2013) के दौरान हुए एक बलात्कार के मामले में पहली बार इस क़ानून के तहत (सेक्शन 376 (2) (g)) सज़ा सुनाई गई है. इस क़ानून में सांप्रदायिक हिंसा के दौरान हुए बलात्कार को एक विशिष्ट हिंसा के तौर पर देखा जाता है.
नब्बे के दशक में मंडल कमीशन के दौर में आपने जाति और पितृसत्ता के बीच के व्यापक संबंधों पर बहुत काम किया है. आज़ादी के 76 साल बाद जातिगत हिंसा और दलित महिलाओं के साथ होने वाली लैंगिक हिंसा को कैसे देखती हैं?
15 साल की उम्र में मैंने आंबेडकर का धर्म बदलकर बौद्ध धर्म अपनाना देखा उस वक्त मुझे उतना नहीं समझ आया था कि उन्होंने ऐसा क्यों किया या इसके क्या मायने थे. लेकिन इस घटना का भी मुझ पर प्रभाव पड़ा. आंबेडकर ने कहा था ‘पैदा तो हिंदू हुआ पर मरूंगा हिंदू नहीं’ उस वक्त मुझे इस बात की बहुत जिज्ञासा थी कि समाज में वो कौन लोग हैं जो बौद्ध धर्म की तरफ आकर्षित हुए और क्यों, जिसके लिए मैंने अपने सबसे पहले शोध में बौद्ध धर्म के सामाजिक ताने-बाने को समझने की कोशिश की.
भारत में लोकतांत्रिक अधिकारों और समानता की लड़ाई जाति के सवाल को संबोधित किए बिना नहीं की जा सकती. 90 के दशक में नवउदारवाद के साथ जाति के सवाल को भी गंभीरता से लिया गया. दिल्ली जैसे बड़े महानगरों में ऐसा माना जाता है कि जाति नहीं है क्योंकि यहां जाति का सवाल और उसके आधार पर होने वाला भेदभाव अक्सर वर्ग और भाषा के सवाल के पीछे छुपा दिया जाता है.
मंडल का अध्यादेश हमारे सामने लागू हुआ और दिल्ली विश्वविद्यालय के ग्वायर हॉल के सामने हमने देखा बड़ी संख्या में छात्र सड़कों में निकलकर आ रहे हैं और नौकरियों पर अपना अधिकार जताते हुए प्रदर्शन कर रहे हैं. हमने उनका बर्ताव बहुत करीब से देखा और उनसे बातचीत करने की कोशिश की लेकिन उनके जवाब में ही उनकी जातिवादी मानसिकता साफ़ दिख रही थी.
कुछ लड़कियों के जवाब से मुझे झटका लगा था क्योंकि वो कह रही थीं कि ‘हमें बेरोज़गार पति नहीं चाहिए’ ये बात साफ़ इनकी जातिवादी मानसिकता दिखा रही थी क्योंकि अध्यादेश में तो आरक्षण एक तबके के लोगों को मिलने की बात कही गई थी ये तो कहीं नहीं लिखा था कि आप उस जाति के लोगों से विवाह नहीं कर सकते.
जाति की समस्या और खासतौर पर अंतरजातीय विवाह को लेकर जो लोगों की सोच है वो साफ़ दिख रही थी. इसी अनुभव को लेकर मैंने ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ लेख लिखा और ये बताने की कोशिश की कि जिस समाज और इतिहास को हम सुनहरा दिखाने की कोशिश करते हैं, असल में, जाति और जेंडर के बीच के ताने-बाने की जड़ें उसी इतिहास में मिलती हैं. ब्राह्मणवाद- मतलब वो व्यवस्था जो समाज में जातिवाद को बनाए रखे और पितृसत्ता- मतलब, महिलाओं पर अपना अधिकार जमाए रखना और इस व्यवस्था में महिलाओं पर प्रभावी सेक्सुअल नियंत्रण के लिए सिर्फ़ पितृसत्ता ही नहीं, बल्कि जातिवाद बनाए रखने की भी ज़रूरत होती है.
आज भी जब दलितों, खासतौर पर दलित महिलाओं के साथ भेदभाव, बहिष्कार या हिंसा की ख़बरें आती हैं तो फिर सात दशक बाद वही सवाल उठता है कि ‘कौन आज़ाद हुआ’. ये तो आज़ादी के संघर्ष और संविधान के मूल्यों के साथ धोखा है जहां भेदभाव खत्म करने और समानता लाने की बात हुई थी. ये सवाल आज भी लोकतांत्रिक आंदोलनों में शामिल करने की जरूरत हैं.
आज के भारत में आंदोलनों की क्या भूमिका देखती है?
जैसा मैंने बताया कि 70 के दशक मैंने मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में काम करना शुरू किया और महिला आंदोलन की शुरुआत भी इसी दौरान हुई थी. मेरा और मेरे जैसे कई लोगों का एक पैर महिला आंदोलन में और दूसरा लोकतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई में था.
अस्सी के दशक में दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के पाठ्यक्रम को संशोधित किया गया था और ये मेरे द्वारा किए गए सबसे रचनात्मक कार्यों में से एक है. हम 15 शिक्षक एक-एक रीडिंग, किताब पहले पढ़ते थे और फिर उस पर बातचीत करके उसे शामिल या न शामिल करने का निर्णय लेते थे जिसका सकारात्मक प्रभाव कई सालों तक छात्र -छात्राओं पर हुआ.
इसी सप्ताह दिल्ली विश्वविद्यालय के ग्रेजुएशन के इतिहास के पाठ्यक्रम से ब्राह्मणीकरण और असमानता पर पेपर हटा दिया गया है. यानी अब छात्र जाति, जेंडर और वर्ग की असमानता के बारे में वैसे नहीं पढ़ पाएंगे जैसे पढ़ते थे. ये दिखाता है कि किस तरह से विश्वविद्यालय में अब माहौल बदला है जो पाठ्यक्रम पहले लोकतांत्रिक तरीके से शिक्षक बनाते थे, अब अचानक कई तरह के दबावों के कारण उसे बदल जिया जता है और कई ज़रूरी किताबों को या विषयों को बाहर कर दिया जाता है.
मुझे लगता है कि मैं और मेरे अन्य साथी अपने सभी तरह के कामों के ज़रिये देश उत्पीड़न और अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की कोशिश करते आए हैं. इसी कारण से विश्वविद्यालय की जगह मेरे जीवन में बहुत ख़ास जगह रही है. वहां सिर्फ आप किसी विषय की शिक्षा नहीं दे सकते, इस तरह का माहौल और बातचीत होनी चाहिए जिससे वो अच्छे इंसान बने और दुनिया को बेहतर बनाने का प्रयास करें.
मुझे गर्व है कि मेरे कुछ छात्र-छात्रों ने हमारी लड़ाई को आगे बढ़ाया है. अन्याय और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ किसी भी तरह का काम, आवाज़ उठाना या आंदोलन लोकतंत्र और भारतीय गणतंत्र को और मजबूत बनाता है.
जब देश आज़ाद हुआ और फिर संविधान लागू हुआ, तब लोगों में आज़ाद भारत को लेकर जो समझ या सपने थे, उसे 76 सालों बाद कैसे देखती हैं?
जब देश आज़ाद हो रहा था या संविधान लागू हो रहा था तब लोगों में विश्वास था कि एक अब परिस्थितियां बेहतर होंगीं और भेदभाव नहीं होगा जो उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत में झेला था. आज़ाद भारत की कल्पना में लोगों के मन में समृद्धि, शांति और समानता जैसे सिद्धांत शामिल थे. लोगों ने सोचा था कि गरीबी और भुखमरी जैसी चीज़ें खत्म होंगी और भारत गणतंत्र की स्थापना होगी. लेकिन उसके बाद जो घटनाएं हुई उन्होंने उन मूल्यों को ही पलटकर रख दिया जिस पर स्वतंत्रता का आंदोलन खड़ा था जैसा मैंने बंटवारे और गांधी जी की हत्या के दौर को याद करते हुए बताया.
उन सिद्धांतों को पलटने का एक उदाहरण हैं अंग्रेज़ों के समय के कई दमनकारी कानूनों को लंबे समय तक लागू करके रखना. मैंने एक फिल्म बनाई थी ‘एक इंकलाब और आया’ जिसमें मैंने एक असल कहानी दिखाई है कि कैसे एक 17 साल की लड़की को सरकार ‘निवारक निरोध अधिनियम’ के तरह गिरफ्तार करती है और 9 महीने तक बाल सुधार गृह में रखती है.
उसके बाद हम हाल की घटनाएं देखें तो सीएए आंदोलन से जुड़े कई नौजवान छात्र- छात्राओं को जेल में डाल दिया था, वो छात्र जो सड़क पर संविधान पढ़ रहे थे उन्हें गिरफ्तार किया गया और हम आज भी उन दमनकारी कानूनों पर ही बहस कर रहे हैं.
1949 में लोग कह रहे थे, ‘ये आज़ादी झूठी है देश की जनता भूखी है’ और 2020 में जब अचानक लॉकडाउन की घोषणा हुई और लाखों मज़दूर सड़कों पर दो वक्त की रोटी के लिए मीलों पैदल जा रहे थे, तो सवाल वही उठता है कि हमने सात दशकों में देश की असल समस्याओं पर काम नहीं किया है , उन सिद्धांतों पर काम नहीं किया गया, जिनके बल पर देश को आज़ाद कराया गया था.
इस देश को मैंने आज़ाद होते हुए देखा है, मेरी उम्र इस गणतंत्र से ज़्यादा है और मैं मानती हूं कि ये मेरी कर्मभूमि है. अब जब मैं देखती हूं कि इस देश की स्थिति को बेहतर करने के लिए काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं, अकादमिकों या सवाल करने वाले प्रगतिशील लोगों की देशभक्ति पर सवाल उठाए जाते हैं तो मुझे ये उस भावना के साथ धोखेबाज़ी लगती है जिसके साथ लोगों ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी.
आज के भारत की स्थिति को देखती हूं तो यही लगता है कि गांधी जी ने तो सांप्रदायिकता के खिलाफ़ आवाज़ उठाते हुए अपनी जान दे दी, कितने और लोगों ने लंबा संघर्ष किया, जेल में रहे और शहीद हुए, क्या इसी भारत के लिए उन्होंने ये सब किया जहां धर्म के आधार पर लोगों की लिंचिंग हो, या धर्म के आधार पर दंगें हों या ट्रेन में एक धर्म के लोगों को उनकी पहचान के आधार पर हत्या कर दी जाए.
मैं फिर कहूंगी ये स्वतंत्रता आंदोलन और उससे जुड़े सपनों और वादों के साथ धोखा है.
मैं कई बार कहती हूं कि मैं उस दौर में पैदा हुई जहां सपने थे और आशा थी और अब शायद मैं इस घोर निराशा के दौर में ही इस दुनिया को अलविदा कहूंगी. मुझे ये बात सबसे ज़्यादा परेशान करती है कि जिस देश को हम स्वर्णभूमि कहकर गर्व करते हैं उसकी आज ये स्थिति है कि अब हम पूछते हैं कि आखिर कौन आज़ाद हुआ.
पर हां इस निराशा के दौर में जो हमारी छोटी -छोटी जीत हुई हैं, जो भी काम मैंने भारत को और लोकतांत्रिक बनाने की दिशा में किया उससे अगर थोड़ा भी सकारात्मक प्रभाव पड़ा है तो वो मुझे ख़ुशी देता है. मुझे लगता है कि मैं हमेशा समानता और धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद के लिए लड़ती रहूंगी और जिस तिरंगे को मैंने पहली बार आज़ाद भारत में फहराते हुए देखा था वो एक आज़ाद और धर्मनिरपेक्ष देश का ही प्रतीक था और उसके लिए मैं अपना काम आज भी जारी रखूंगी.
सौजन्य : The wire hindi
नोट : समाचार मूलरूप से thewirehindi.com में प्रकाशित हुआ है ! मानवाधिकारों के प्रति सवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित !