जातीय अपमान और उत्पीड़न का दर्दनाक वर्णन है ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी- ‘शवयात्रा’
ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म 30 जून, 1950 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फनगर जिले के बरला गांव में हुआ था. उन्होंने हिंदी साहित्य को कई कालजयी रचनाएं दी हैं. उनकी रचनाओं में शब्द झूठ नहीं बोलते (कविता संग्रह), सदियों का संताप (कविता संग्रह), सलाम (कहानी संग्रह), घुसपैठिए (कहानी संग्रह), छतरी (कहानी संग्रह), जूठन (आत्मकथा, दो भागों में) आदि शामिल हैं. ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है.
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने भारतीय समाज में दलितों के उत्पीड़न को अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज के सामने प्रस्तुत किया है. वे जहां दलितों के उत्पीड़न और संघर्ष को शब्द देते हैं, वहीं अपनी कहानियों के माध्यम से दलित समाज में फैले अंतर्विरोधों को दिखाना भी नहीं भूलते हैं. दलितों में भी दलित होते हैं. और ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘शवयात्रा’ दलित समाज के इसी अंतर्विरोध को सामने लाती है. उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से दलित जीवन की नरकीय अवस्था का भी चित्रण किया है.
‘शवयात्रा’ काफी चर्चित और विवादित कहानी है. चूंकि ओमप्रकाश वाल्मीकि खुद दलित थे और उन्होंने दलित समाज में फैले अंतर्विरोध को इस कहानी से माध्यम से दिखाने का साहस किया है. इस कहानी के लिए उन्हें अपने ही समुदाय की कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था. कुछ लोगों ने तो इस कहानी को दलित विरोधी कहानी भी कहा था. इस कहानी में दिखाया गया है कि ‘दलित में भी दलित’ होते हैं और ‘अछूतों में भी अछूत’. ‘शवयात्रा’ कहानी में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दिखाया है कि दो दलित समुदाय हैं जिनमें से एक अपने को दूसरे से श्रेष्ठ मानता है, दूसरे समुदाय को अछूत कहता है. प्रस्तुत है उनकी कहानी- ‘शवयात्रा‘
चमारों के गांव में बल्हारों का एक परिवार था, जो जोहड़ के पार रहता था. चमारों और बल्हारों के बीच एक सीमा रेखा की तरह था जोहड़. बरसात के दिनों में जब जोहड़ पानी से भर जाता था तब बल्हारों का संपर्क गांव से एकदम कट जाता था. बाकी समय में पानी कम हो जाने से किसी तरह वे पार करके गांव पहुंचते थे. यानी बल्हारों के गांव तक जाने का कोई रास्ता नहीं था. रास्ता बनाने की जरूरत कभी किसी ने महसूस ही नहीं की थी.
जब किसी चमार को उनकी जरूरत पड़ती, तो जोहड़ के किनारे खड़े होकर आवाज लगा देता. जोहड़ इतना बड़ा भी नहीं था, कि बल्हारों तक आवाज ही न पहुंचे. आवाज सुनकर वे बाहर आ जाते थे.
परिवार में सिर्फ दो जन ही रह गए थे- सुरजा, जिसकी उम्र ढल चुकी थी; और उसकी बेटी संतों, जो शादी के तीसरे साल में ही विधवा होकर मायके लौट आई थी. सुरजा की घरवाली को मरे भी तीन साल हो गए थे. घर-बाहर की तमाम जिम्मेदारियां संतों ने संभाल रखी थीं. सुरजा वैसे भी काफी कमजोर हो चला था. उसे सूझता भी कम था. लेकिन फिर भी गांव के छोटे-मोटे काम वह कर ही देता था.
सुरजा का एक बेटा भी था, जो दस-बारह साल की उम्र में ही घर छोड़कर भाग गया था. कुछ साल इधर-उधर भटकने के बाद उसे रेलवे में नौकरी मिल गई थी. इस नौकरी ने ही उसे पढ़ने-लिखने की ओर आकर्षित किया था. इसी तरह उसने हाईस्कूल करके तकनीकी प्रशिक्षण लिया और रेलवे में ही फिटर हो गया था. नाम था कल्लू, जो अब कल्लन हो गया था.
जब संतों की शादी हुई थी, सारा खर्च कल्लन ने ही उठाया था. सुरजा के पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं थी. कल्लन की शादी भी रेलवे कॉलोनी में ही हो गई थी. उसके ससुर भी रेलवे में ही थे. उसे पढ़ी-लिखी पत्नी मिली थी, जिसके कारण उसके रहने-सहन में फर्क आ गया था. उसके जीवन का ढर्रा ही बदल गया था.
गांव वह यदाकदा ही आता था. लेकिन जब भी वह गांव आता, चमार उसे अजीब-सी नजरों से देखते थे. कल्लू से कल्लन हो जाने को वे स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. उनकी दृष्टि में वह अभी भी बल्हार ही था, समाज-व्यवस्था में सबसे नीचे यानी अछूतों में भी अछूत.
गांव में वह अपने आपको अकेला महसूस करता था. परिवार के बाहर एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जिससे वह दो घड़ी बतिया सके. गांव के पढ़े-लिखे लोग भी उससे कटे-कटे रहते थे. आखिर वह था तो बल्हार ही, जोहड़ पार रहनेवाला. गांव वाले उसे कल्लू बल्हार ही कहकर बुलाते थे. उसे यह संबोधन अच्छा नहीं लगता था. नश्तर की तरह उसे बींधकर हीन भावना से भर देता था.
इस बार वह काफी दिन बाद गांव आया था. उसने आते ही सुरजा से कहा, “बापू, मेरे साथ दिल्ली चलो. सरकारी मकान में सब एक साथ रह लेंगे.”
“ना बेट्टे, इब आखरी बखत में यो गांव क्यूं छुड़वावे… पुरखों ने यहां आक्के किसी जमान्ने में डेरा डाल्ला था. यहीं मर-खप्प गए, इसी माट्टी में. इस जोहड़ की ढैंग पे रहके जिनगी काट दी. इब कहां जांगे,” सुरजा ने आंखें मिचमिचाकर अपने मन की बात कही थी, जैसे अतीत में वह कुछ ढूंढ़ रहा था.
कल्लन ने संतों की ओर देखा. वह तो चाहती थी, इस जहालत से छुटकारा मिले. लेकिन बापू की बात काटने का उसमें न कभी पहले हौसला था, न अब है. बस चुपचाप बैठकर पैरे के अंगूठे से मिट्टी कुरेदने लगी थी. जैसे उसका सोच उसे कहीं बहुत दूर ले जा रहा था, जहां दूर-दूर तक भी कोई किनारा दिखाई नहीं पड़ता था. कल्लन ने जोर देकर कहा, “बापू, यहां न तो इज़्जत है, ना रोटी, चमारों की नजर में भी हम सिर्फ बल्हार हैं… यहां तुम्हारी वजह से आना पड़ता है… मेरे बच्चे यहां आना नहीं चाहते… उन्हें यहां अच्छा ही नहीं लगता..”
उसकी बात बीच में ही काटकर सुरजा बोला, “तो बेट्टे, हियां मत आया कर… म्हारी तो कट जागी इसी तरह. बस, संतों की फिकर है. यो अकेल्ली रह जागी… यो टूटा-फूटा घर भी शायद अगली बारिश ना देख पावे. तुझे जो म्हारी चिंता है, तो तू इस घर कू पक्का बणवादे…” सुरजा के मन में यह बात कई बार आई थी. लेकिन कह नहीं पाया था. आज मौका पाकर कह दिया.
“बापू, मेरे पास जो दो-चार पैसे हैं, उन्हें यहां लगाकर क्या होगा. आपके बाद मैं तो यहां रहूंगा नहीं… संतों मेरे साथ दिल्ली चली जाएगी.” कल्लन ने साफ-साफ कह दिया.
सुनते ही सुरजा भड़क गया. उसके मुंह से गालियां फूटने लगीं. चिल्लाकर बोला, “तू! मेरे मरने का इंतजार भी क्यूं करै है… इसे आज ही ले जा. और हां, अपणे पैसों की धौंस मुझे ना दिखा… अपने धौरे रख… जहां इतनी कटगी है, आगे बी कट ही जागी.”
उन दोनों के बीच जैसे अचानक संवाद सूत्र बिखर गए थे. खामोशी उनके इर्द-गिर्द फैल गई थी.
सुबह होते ही कल्लन दिल्ली चला गया था. पैसों का बंदोबस्त करके वह हफ़्ते भर में लौट आया था. साथ में पत्नी सरोज और दल साल की बेटी सलोनी भी आई थी. बेटे को वे उसकी ननिहाल में छोड़कर आ गए थे. कल्लन ने आते ही बापू से कहा, “किसी मिस्तरी से बात करो. कल ईंटों का ट्रक आ जाएगा.”
सुनते ही सुरजा की आंखों में चमक आ गई थी. उसे कल्लन की बात पर विश्वास ही नहीं हुआ था. लेकिन कल्लन ने उसे विश्वास दिला दिया था. वह उसी वक़्त मिस्तरी की तलाश में निकल पड़ा था.
गांव में ज्यादातर मकान सूरतराम ठेकेदार ने बनाए थे. सुरजा उसी के पास पहुंचा, “ठेकेदारजी, म्हारा भी एक मकान बणा दो.”
सूरतराम ने पहले तो सूरजा को ऊपर से नीचे तक देखा. तन पर ढंग का कपड़ा नहीं और चला है पक्का मकान बनवाने. सूरतराम जल्दी में था. उसे कहीं जाना था. उसने हँसकर सुरजा को टाल दिया, “आज तो टेम ना है, फिर बात करेंगे.”
सुरजा ने हार नहीं मानी. सुबह ही वह मुंहअंधेरे निकल पड़ा था. पास के गांव में साबिर मिस्तरी था. पुराना कारीगर. सुरजा ने उसे अपने आने का मकसद बताया. साबिर मान गया था, “ठीक है, मैं कल आके देख लूंगा. अपना मेहनताना पेशगी लूंगा.”
“ठीक है मिस्तरीजी. कल आ जाओ… जोहड़ पे ही म्हारा घर है.” सुरजा अपनी खुशी छिपा नहीं पा रहा था. लौटते समय उसके पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. कमज़ोर शरीर में भी जैसे स्फूर्ति भर गई थी.
जब तक वह लौटकर घर पहुंचा, ईंटें आ चुकी थीं. लाल-लाल ईंटों को देखकर सुरजा अपनी थकावट भूल गया था. वह उल्लास से भर उठा था. उसने ऐसी ख़ुशी इससे पहले कभी महसूस ही नहीं की थी.
जोहड़ पार ईंटे उतरती देखना गांव के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था. पूरे गांव में जैसे भूचाल आ गया था. गांव के कई लोग जोहड़ के किनारे खड़े थे.
रामजीलाल कीर्तन सभा का प्रधान था. रविदास जयंती पर रात-भर कीर्तन चलता था. भीड़ में वह भी खड़ा था. जब उससे रहा नहीं गया तो चिल्लाकर बोला, “अबे ओ! सुरजा… यो इन्टे कोण लाया है?”
सुरजा ने उत्साहित होकर कहा, “अजी बस, म्हारा कल्लण पक्का घर बणवा रिया है.”
रामजीलाल की आंखें फटी की फटी रह गईं. अपने भीतर उठते ईर्ष्या-द्वेष को दबाकर उसने कहा, “यो तो चोखी बात है सुरजा… पर पक्का मकान बणवाने से पहले परधानजी से तो पूछ लिया था या नहीं?”
रामजीलाल की बात तीर की तरह सुरजा के सीने में उतर गई. उसे लगा, जैसे कोई सूदखोर साहूकार सामने खड़ा धमकी दे रहा है. गुस्से पर काबू पाने का असफल प्रयास करते हुए सुरजा गुर्राया, “परधान से क्या पूछणा…?”
“फेर भी पूछ तो लेणा चाहिए था.” कहकर रामजीलाल तो चला गया लेकिन सुरजा को संशय में डाल गया था.
रामजीलाल सीधा प्रधान के पहुंचा. जोहड़ पार के हालात नमक-मिर्च लगाकर उसने प्रधान बलराम सिंह के सामने रखे. बलराम सिंह ने उस वक्त कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की. सिर्फ सिर हिलाकर मूंछों पर हाथ फेरता रहा. प्रधान भी घाघ था. वह रामजीलाल की फितरत से वाकिफ था. उसके चले जाने के बाद वह कुछ गमगीन-सा हो गया था. सुरजा बल्हार पक्का मकान बनवा रहा है, यह बात उसे बैचेन करने के लिए काफी थी. वैसे भी सुरजा गांव के लिए अब उतना उपयोगी नहीं था.
यह खबर पूरे गांव में फैल गई थी, जोहड़ पार बल्हारों का पक्का मकान बन रहा है. रेलवे की कमाई है, ईंटों का ट्रक आ गया है. सीमेंट, रेत, बजरी, सरिये आ रहे हैं. बात फैलते-फैलते इतनी फैल कि मकान नहीं गांव की छाती पर हवेली बनेगी. खिड़की-दरवाज़ों के लिए सागौन की लकड़ी आ रही है, सुना है रंगीन संगमरमर के टाइल भी आ रहे हैं. जितने मुंह उतनी बातें.
अगले दिन सुबह ही प्रधान का आदमी आ धमका था जोहड़ के किनारे. सुरजा को मन मार के उसके साथ जाना पड़ा.
सुरजा को देखते ही बलराम सिंह चीखा, “अंटी में चार पैसे आ गए तो अपनी औकात भूल गया. बल्हारों को यहां इसलिए नहीं बसाया था कि हमारी छाती पर हवेली खड़ी करेंगे… वह जमीन जिस पर तुम रहते हो, हमारे बाप-दादों की है. जिस हाल में हो… रहते रहो… किसी को एतराज नहीं होगा. सिर उठा के खड़ा होने की कोशिश करोगे तो गांव से बाहर कर देंगे.”
बलराम सिंह का एक-एक शब्द बुझे तीर की तरह सुरजा के जिस्म को छलनी छलनी कर गया था. सुरजा की आंखों के सामने जिंदगी के खट्टे-मीठे दिन नाचने लगे. जैसे कल ही की बात हो. क्या नहीं किया सुरजा ने इस गांव के लिए, और बलराम चुनाव के दिनों में एक-एक वोट के लिए कैसे मिन्नतें करता था, तब सुरजा बल्हार नहीं, सुरजा ताऊ हो जाता था. सुरजा ने एक सर्द सांस छोड़ी. बिना कोई जवाब दिए वापस चल दिया. बलराम सिंह ने आवाज देकर रोकना चाहा. लेकिन वह रुका नहीं. बलराम सिंह की चीख अब गालियों में बदल गई, जो बाहर तक सुनाई पड़ रही थी.
घर पहुंचते ही सुरजा ने कल्लन से कहा, “तू सच कहवे था कल्लू… यो गांव रहणे लायक ना है.” उसकी लंबी मूंछे गुस्से में फड़फड़ा रही थीं. आंखों के कोर भीगे हुए थे.
“बापू, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा… ये ईंटें तो कोई भी खरीद लेगा, ये मकान बनने नहीं देंगे.” कल्लन ने सुरजा को समझाने की कोशिश की. लेकिन सुरजा ने भी ज़िद पकड़ ली थी, वह झुकेगा नहीं. जो होगा देखा जाएगा. उसने मन ही मन दोहराया.
“ना, बेट्टे, मकान तो इब बणके रहवेगा… जान दे दूंगा, पर यो गांव छोड़के ना जाऊंगा.” सुरजा ने गहरे आत्मविश्वास से कहा.
कल्लन अजीब-सी दुविधा में फंस गया था. भावावेश में आकर वह ईंटें तो ले आया था, पर गांव के हालात देखकर उसे डर लग रहा था. कहीं कोई बवेला न उठ खड़ा हो. पत्नी सरोज और बेटी सलोनी साथ आ गए थे. लेकिन सलोनी को यहां आते ही बुख़ार हो गया था. सरोज के पास जो दो-चार गोलियां थीं, वे दे दी थीं सलोनी को. लेकिन बुख़ार कम नहीं हुआ था. सरोज का मन घबरा रहा था. वह लगातार कल्लन से जाने की जिद कर रही थी, “बेकार यहां मकान पर पैसा लगा रहे हो. संतों हमारे संग रहेगी. बापू को समझाओ.” लेकिन कल्लन सुरजा को समझाने में असमर्थ था. उसने सरोज से कहा, “अब, आख़िरी बखत में बापू का जी दुखाना क्या ठीक होगा?” सरोज चुप हो गई थी.
सुरजा ने रात-भर जागकर ईंटों की रखवाली की थी. एक पल के लिए भी आंखें नहीं झपकी थीं. सुबह होते ही वह साबिर मिस्तरी को बुलाने चल दिया था. सुरजा को डर था, कहीं कोई उसे उलटी-सीधी पट्टी न पढ़ा दे, उसे अब किसी पर भी विश्वास नहीं था.
सलोनी का बुखार कम नहीं हो रहा था. सरोज ने कल्लन से किसी डॉक्टर को बुलाने के लिए कहा. गांव-भर में सिर्फ एक डॉक्टर था. कल्लन उसे ही बुलाने के लिए चल दिया.
कल्लन को देखते ही डॉक्टर ने मना कर दिया. सामान्य पूछताछ करके कुछ गोलियां पुड़िया में बांधकर दे दी. कल्लन ने बहुत मिन्नतें कीं, “डॉक्टर साहब, एक बार चल के तो देख लो?” डॉक्टर टस से मस नहीं हुआ.। कल्लन ने कहा, “मरीज को यहीं आपके क्लीनिक में लेकर आ जाता हूं.”
“नहीं… यहां मत लाना… कल से मेरी दुकान ही बंद हो जाएगी. यह मत भूलो तुम बल्हार हो.” डॉक्टर ने साफ-साफ चेतावनी दी, “ये दवा उसे खिला दो, ठीक हो जाएगी.”
कल्लन निराश लौट आया था. डॉक्टर ने जो गोलियां दी थीं, वे भी असरहीन थीं. बुखार से बदन तप रहा था. तेज बुख़ार के कारण वह लगातार बड़बड़ा रही थी. संतों उसकी सेवा-टहल में लगी थी. एक मिनट के लिए भी वहां से नहीं हटी थी. सरोज की चिंता बढ़ रही थी. उसके मन में तरह-तरह की शंकाएं उठ रही थीं.
सुरजा सुबह का गया दोपहर बाद लौटा था. थका-हारा, हताशा उसे इस हाल में देखकर कल्लन ने पूछा. “क्या हुआ बापू?” सुरजा ने निढाल स्वर में कहा, “होणा क्या था? मिस्तरी कहीं दूर रिश्तेदारी में गया है. दस-पंद्रह दिन बाद आवेगा… बेट्टे! मुझे ना लगे इब वो आवेगा.” सुरजा ने अपने मन की हताशा जाहिर की.
“क्यों, बापू, हम तो उसकी मेहनत का पैसा उसे पेशगी दे रहे थे, फिर भी वह मुकर गया.” कल्लन ने तअज्जुब जाहिर किया.
“गांव के ही किसी ने उसे रोका होगा… साबिर ऐसा आदमी ना है… वह भी इनसे डर गिया दिक्खे.” सुरजा ने गहरे अवसाद में डूबकर कहा. दोनों गहरी चिंता में डूब गए थे.
“सलोनी का जी कैसा है?” सुरजा ने पूछा.
“उसकी तबीअत ज्यादा ही बिगड़ गई है. अस्तपाल ले जाना पड़ेगा.” कल्लन ने चिंता व्यक्त की.
“किसी झाड़-फूंकवाले कू बुलाऊं… कहीं कुछ ओपरा ना हो?” सुरजा ने मन की शंका जताई.
“नहीं, बापू… मैं कल सुबह ही उसे लेकर शहर जाऊंगा. बस, आज की रात ठीक-ठाक कट जाए.” कल्लन के स्वर में गहरी पीड़ा भरी हुई थी. सुरजा ने उसे ढाढ़स बंधाया.
पूरी रात जागते हुए कटी थी. सलोनी की तबीअत बहुत ज्यादा बिगड़ गई थी. सुबह होते ही कल्लन ने सलोनी को पीठ पर लादा. उसके इर्द-गिर्द ठीक से कपड़ा लपेटा. सरोज साथ थी. वे धूप चढ़ने से पहले शहर पहुंच जाना चाहते थे.
शहर गांव से लगभग आठ-दस किलोमीटर दूर था. आने-जाने का कोई साधन नहीं था. कल्लन ने गांव के संपन्न चमारों से बैलगाड़ी मांगी थी, लेकिन बल्हारों को वे गाड़ी देने को तैयार नहीं थे.
पीठ पर लादकर सलोनी को ले चलना कठिन हो रहा था. वह बार-बार पीठ से नीचे की ओर लुढ़क रही थी. कल्लन की पत्नी सहारा देते हुए उसके पीछे-पीछे चल रही थी. वे जल्दी से जल्दी शहर पहुंचना चाहते थे. लेकिन रास्ता काटे नहीं कट रहा था.
जैसे-जैसे धूप चढ़ रही थी, सलोनी का जिस्म निढाल हो रहा था. उसकी सांसें धीमी पड़ गई थीं. शहर लगभग आधा किलोमीटर दूर रह गया था. अचानक कल्लन को लगा जैसे सलोनी का भार कुछ बढ़ गया है. बुखार से तपता जिस्म ठंडा पड़ गया था. उसने सरोज से कहा, “देखो तो सलोनी ठीक तो है.”
सलोनी के शरीर में कोई स्पंदन ही नहीं था. सरोज दहाड़ मारकर चीख पड़ी थी, “मेरी बेटी को क्या हो गया… देखो तो यह हिल क्यों नहीं रही.” उसने रोते हुए कहा.
कल्लन ने सलोनी को पीठ से उतारकर सड़क के किनारे लिटा दिया था. वह हताश ठगा-सा खड़ा था. उसके अंतस में एक हड़कंप सी मच गई थी. दस वर्ष की जीती-जागती सलोनी उसके हाथों में ही मुर्दा जिस्म में बदल गई थी. सब कुछ आंखों के सामने घटा था. वे जोर-जोर से चीखकर रो रहे थे. रास्ता सुनसान था. उनकी चीखें सुनने वाला भी कोई दूर-दूर तक नहीं था. वे काफी देर इसी तरह बैठे रोते रहे. उन्हें सूझ ही नहीं रहा था- क्या करें. सड़क किनारे कच्चे रास्ते पर सलोनी के शव को लिए वे तड़प रहे थे. काफी देर बाद एक व्यक्ति शहर की ओर से आता दिखाई पड़ा. उन्हें उम्मीद की एक झलक दिखाई दी. शायद आनेवाला उनकी कोई मदद करे.
राहगीर क्षण-भर उनके पास रुका. लेकिन बिना कुछ कहे, आगे बढ़ गया. शायद उसने उन्हें पहचान लिया था. उसी गांव का था. कल्लन को लगा इनसान की ‘ज़ात’ ही सब कुछ है.
आखिर वे उठे और बेटी का शव कंधों पर रखकर गांव की ओर लौट चले. कंधों पर जितना बोझ था, उससे कहीं ज्यादा बोझ उनके भीतर समाया हुआ था. सलोनी के बचपन की किलकारियां रह-रहकर उनकी स्मृतियों में कुलांचे भर रही थीं. भारी मन से वे सलोनी का शव उठाए गांव की ओर बढ़ रहे थे. रास्ता जैसे खत्म ही नहीं हो रहा था. जितना समय शहर के पास पहुंचने में लगा था, उससे ज्यादा गांव पहुंचने में लग रहा था. सरोज का हाल बहुत ही चिंताजनक था. वह सिर्फ घिसट रही थी. टूट तो कल्लन भी गया था लेकिन किसी तरह स्वयं को संभाले हुए था. सरोज अधमरी-सी हो गई थी. उससे चला नहीं जा रहा था.
सुरजा ने उन्हें दूर से ही देख लिया था. पहचाना तो उन्हें पास आने पर ही. लेकिन दूर से आती आकृतियों को देखकर उसने अंदाज़ा लगा लिया था. वे जिस तरह सलोनी को ला रहे थे, देखकर उसका माथा ठनका. वह घर से निकलकर सड़क तक आ गया था. सलोनी का शव देखकर वह स्वयं को नहीं संभाल पा रहा था. वह तड़प उठा था. जमीन पर दोहत्थड़ मार-मारकर वह रोने लगा था. कल्लन की आंखों से भी बेतहाशा आंसू बह रहे थे. उनका रोना-धोना सुनकर संतों भी आ गई थी. उन्हें ढाढ़स बंधानेवाला कोई नहीं था.
शहर से लौटने में उन्हें वैसे ही समय ज्यादा हो गया था. किसी को बुलाने के लिए भी समय नहीं था. रात-भर इंतजार करने की स्थिति में नहीं थे. कल्लन चाहता था कि शाम होने से पहले ही दाह-संस्कार हो जाए. सलोनी के शव को देखकर सरोज बार-बार बेहोश हो रही थी.
समस्या थी लकड़ियों की. दाह-संस्कार के लिए लकड़ियां उनके पास नहीं थीं. सुरजा और संतों लकड़ियों का इंतजाम करने के लिए निकल पड़े थे. उन्होंने चमारों के दरवाजों पर जाकर गुहार लगाई थी. लेकिन कोई भी मदद करने को तैयार नहीं था. घंटा-भर भटकने के बाद भी वे इतनी लकड़ी नहीं जुटा पाए थे कि ठीक से दाह-संस्कार हो सके. घर में उपले थे. संतों ने कहा, “लकड़ियों की जगह उपले ही ले जाओ.”
चमारों का शमशान गांव के निकट था. लेकिन उसमें बल्हारों को अपने मुर्दे फूंकने की इजाजत नहीं थी. कल्लन की मां के समय भी ऐसी ही समस्या आई थी. चमारों ने साफ मना कर दिया था. गांव से बाहर तीन-चार किलोमीटर दूर ले जाकर फूंकना पड़ा था. इतनी दूर सलोनी के शव को ले जाना… लकड़ी, उपले भी ले जाने थे. सुरजा और कल्लन के अलावा कोई नहीं था, जो इस कार्य में हाथ बंटा सकता था.
बल्हारों के मुर्दे को हाथ लगाने या शवयात्रा में शामिल होने गांव का कोई भी व्यक्ति नहीं आया था. ‘ज़ात’ उनका रास्ता रोक रही थी. कल्लन ने काफी कोशिश की थी. वह रविदास मंडल, डॉक्टर अम्बेडकर युवक सभा के लोगों से जाकर मिला था. लेकिन कोई भी साथ आने को तैयार नहीं था. किसी न किसी बहाने वे सब कन्नी काट गए थे.
रेलवे कॉलोनी में ‘अंबेडकर जयंती’ के भाषण उसे याद आने लगे थे. उसने उन तमाम विचारों को झटक दिया था. गहरी वितृष्णा उसके भीतर उठ रही थी. उसे लगा, वे तमाम भाषण खोखले और बेहद बनावटी थे.
कल्लन ने सुरजा से कहा, “बापू! और देर मत करो…” उन दोनों ने कपड़े में लिपटे सलोनी के शव को उठा लिया था. स्त्रियों के शमशान जाने का रिवाज बल्हारों में नहीं था. लेकिन संतों और सरोज के लिए इस रिवाज को तोड़ देने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा था. संतों ने लकड़ियों का गट्ठर सिर पर रखकर हाथ में आग और हांडी उठा लिए थे. पीछे-पीछे सरोज उपलों भरा टोकरा लिए चल पड़ी थी.
इस शवयात्रा को देखने के लिए चमारिनें अपनी छतों पर चढ़ गई थीं. उनकी आंखों के कोर भीगे हुए थे. लेकिन बेबस थीं, अपने-अपने दायरे में कैद. बल्हार तो आखिर बल्हार ही थे. अपने ही नहीं, उन्हें तो दूसरों के मुर्दे भी ढोने की आदत थी…
चमारों का गांव और उसमें एक बल्हार परिवार.
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