दलित-बहुजन छात्रों के कत्लगाह क्यों बन रहे आईआईटी जैसे शिक्षण संस्थान?
गत 9 जुलाई, 2023 की सुबह आईआईटी, दिल्ली के उदयगिरी हाॅस्टल में एक छात्र का शव पंखे से लटका मिला। करीब 23 वर्षीय आयुष आसना इंजीनियरिंग के चौथे वर्ष का छात्र था। वह दलित वर्ग से आता था। आत्महत्या के पीछे की वज़ह अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई है। उसके सहपाठी बताते हैं कि वह पिछले कई दिनों से मानसिक तनाव में जी रहा था। पुलिसिया बयान यह है कि पुलिस को कोई सुसाइड नोट नहीं मिला।
इस साल आईआईटी जैसे उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षण संस्थानों में छात्रों की खुदकुशी का यह पांचवा मामला है। इसी साल फरवरी में आईआईटी, बांबे के एक छात्र ने हाॅस्टल की सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी। इसके बाद आईआईटी, चेन्नई के तीन छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी। खुदकुशी करनेवालों में अधिकांश छात्र दलित, पिछड़े और जनजाति समुदायों से थे।
आईआईटी, दिल्ली के छात्रों का कहना है कि डीन ऑफ स्टूडेंट्स के शोक संदेश में इस बात का उल्लेख नहीं था कि वह अनुसूचित जाति का छात्र था। वे मांग कर रहे हैं कि अगर उसे कैम्पस में जाति आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ा हो, तो इसकी गहन जांच की जानी चाहिए।
आईआईटी, दिल्ली में एससी-एसटी छात्र प्रतिनिधि और मानविकी एवं सामाजिक विभाग में पीएचडी स्कॉलर शाइना वर्मा ने एक भेंट वार्ता में बताया कि “यह सिद्ध करना बहुत आसान है कि आयुष आसना ने अवसाद (डिप्रेशन) के चलते आत्महत्या की। हमें कैसे पता चलेगा, कि यह जातिगत भेदभाव का मामला था या नहीं। हमारे पास इस बात को जांचने के लिए पर्याप्त उदाहरण हैं कि कैंपस में जातिगत भेदभाव व्याप्त है। इस मामले की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। हम यह भी देखना चाहते हैं कि संस्थान प्रबंधन यह सुनिश्चित करने के लिए क्या कुछ सुधार के उपाय कर रही है, ताकि आयुष को जिस पीड़ा से गुजरना पड़ा, उसका सामना अन्य छात्रों को न करना पड़े व छात्रों को न्याय मिले। इसके लिए परिसर के भीतर एससी-एसटी छात्रों को सुरक्षित महसूस कराने के लिए वह क्या कर सकता है?”
बहुजन समुदायों से आने वाले छात्रों का कहना है कि कैंपस में सीनियर छात्रों द्वारा पहले वर्ष के छात्रों को पाठ्य सामग्रियां देने का चलन रहा है। इससे छात्रों को आसानी हो जाती है। लेकिन बहुजन छात्रों को ऊंची जातियों के सीनियर छात्र अपनी पाठ्य सामग्रियां नहीं देते हैं। संस्थान में अनुसूचित जाति का कोई शिक्षक नहीं है। बहुजन समुदाय के छात्रों ने बताया कि “भले ही यह आत्महत्या मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के कारण हुई हो, लेकिन हम कहां जाएं? क्या संस्थान जाति आधारित उत्पीड़न होने पर हमें परामर्श देने के लिए मानसिक स्वास्थ्य के कांउसलरों का कोई इंतजाम करता है? हम तो बस ओरियंटेशन कार्यक्रमों में ही उनको देखते हैं। अगर समग्रता से देखा जाए, तो जाति इस आत्महत्या को और भी गंभीर बना देती है।”
गौर तलब है कि आईआईटी, बांबे में दलित छात्र दर्शन सोलंकी की आत्महत्या के बाद वहां के निदेशक ने इस दिशा में कुछ क़दम ज़रूर उठाए थे। इस संंबंध में आईआईटी, दिल्ली के एक दलित छात्र ने बताया कि “आईआईटी, बांबे के साथियों ने हमें यह जानकारी दी है कि एसटी-एससी सेल के लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। और जब हमने अपने कैंपस (आईआईटी, दिल्ली) में गठित करने की मांग की तो हमसे पूछा गया कि यहां ऐसे सेल की ज़रूरत ही क्या है?”
वास्तव में भेदभाव रैंकिंग की प्रक्रिया से ही शुरू हो जाती है। बहुजन छात्रों को आईआईटी, जेईई परिणामों में कम रैंकिंग मिलती है, भले ही वरिष्ठ छात्र उनसे जाति नहीं पूछते, लेकिन रैंकिंग के आधार पर यह जान लेते हैं कि छात्र बहुजन समुदाय से है। यही कारण है कि एससी-एसटी छात्रों में हीन भावना पैदा हो जाती है, क्योंकि उन्हें लगातार याद दिलाया जाता है कि वे संस्था के लायक नहीं हैं। एक छात्र जिसने एक संस्थान में पहुंचने के लिए बहुत संघर्ष किया, उसे हमेशा यह एहसास कराया जाता है कि वह एक अयोग्य है। उसे विभिन्न समितियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता।
भारत में जब आईआईटी जैसे संस्थानों की स्थापना की गई, तब शुरू से ही इनका चरित्र अभिजात्य था। इनका निर्माण विदेशी सहायता से हुआ था, इसलिए इसमें आने वाले करीब-करीब शत-प्रतिशत छात्र विदेश, विशेषकर अमेरिका, चले जाते थे। वहां उन्हें आसानी से नौकरियां मिल जाती थीं। यही कारण है कि इस संस्था में उच्च जाति के धनी वर्गों के ही छात्र-छात्रा प्रवेश ले पाते थे, क्योंकि वही लोग मंहगी कोचिंग का ख़र्च उठा सकते थे। एससी वर्ग का आरक्षण होने के कारण इन जातियों के कुछ छात्र ज़रूर आते थे, लेकिन यहां के माहौल और परीक्षा की संरचना के कारण उनमें अधिकांश परीक्षा उत्तीर्ण ही नहीं कर पाते थे और यहां से निकाल दिए जाते थे।
बहरहाल, 2006 में उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी आरक्षण लागू किए जाने के बाद इन संस्थानों में बड़े पैमाने पर एससी-ओबीसी के छात्र भी आए। इससे इन संस्थानों की संरचना में काफ़ी बदलाव आया तथा इसके साथ ही छात्रों-शिक्षकों के बीच दबा हुआ द्वंद्व भी सतह पर आ गया।
दिल्ली आईआईटी में मात्र 0.5 प्रतिशत एससी के शिक्षक हैं। अगर परिसर में इसी तरह माहौल रहा, तो इन वर्गों से शिक्षक आ ही नहीं सकते। अनेक जनपक्षधर शिक्षाविद नई शिक्षा नीति लेकर आशंकित नज़र आते हैं। इन शिक्षाविदों ने नीति दस्तावेज़ में आरक्षण की अनुपस्थिति पर चिंता जताई है। वे इस बात से भी चिंतित हैं कि प्रवेश और निकास के बिंदुओं वाले स्नातक पाठ्यक्रमों की नई संरचना के प्रस्ताव से हाशिए पर रहने वाले बहुजन समुदायों के छात्र-छात्राओं पर इस नीति का बुरा असर पड़ेगा। निश्चित रूप से आईआईटी की संरचना पर भी इसका असर पड़ना अवश्यंभावी है।
सौजन्य : Forward press
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