चंद्रशेखर आजाद पर हमलाः दलित राजनीति को खत्म करने की कोशिश?
शिक्षा के माध्यम से दलितों के उत्थान के लिए 2015 में भीम आर्मी और 2020 में आजाद समाज पार्टी बनाने वाले चंद्रशेखर आजाद को बुधवार 28 जून को कुछ बदमाशों ने जान से मारने की कोशिश की। दिल्ली से अपने घर लौट रहे आजाद की कार पर देवबन्द, यूपी के पास कई गोलियां चलाई गईं जिसमें से एक गोली आजाद को छूकर निकल गई। इसके बाद उन्हे अस्पताल में भर्ती कराया गया। हालाँकि अब वह पूरी तरह से स्वस्थ हैं लेकिन यह भी सच है कि यदि गोली 2 इंच दूर लगी होती तो आजाद को बहुत नुकसान हो सकता था।
अभी पिछले हफ़्ते ही तमाम हिन्दी-अंग्रेजी अखबारों में उत्तर प्रदेश को ‘उत्तम प्रदेश’ साबित करने की चाह वाले इश्तिहार छापे गए। भारत के प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री दोनो इस विज्ञापन के माध्यम से इस दावे को करते नजर आए कि अब उत्तर प्रदेश, उत्तम प्रदेश बनने की राह पर है। शनिवार 1 जुलाई को भी जनसत्ता में छपे एक इश्तिहार में प्रधानमंत्री की एक हंसती तस्वीर के साथ लिखा गया – ‘माफियाओं को मिट्टी में मिलाया’।
प्रचारतंत्र के माध्यम से लगातार यह कोशिश की जा रही है कि उत्तर प्रदेश में घट रही घटनाओं पर पर्दा डाला जा सके। पर शायद सरकारें और सत्ता यह भूल जाती हैं कि सच हमेशा ‘नुकीला’ होता है जिसकी नोक मोटी इस्पात की चादरों और मजबूत दीवारों को भी भेद सकती है तो फिर एक अखबार में छपे इश्तिहार की शक्ति कितनी होगी उस पर मैं क्या कहूँ?
अखबारों की खबरें बता रही हैं कि यूपी पुलिस ने उस कार को कब्जे में ले लिया है जिसे अपराधियों ने चंद्रशेखर पर हमले के लिए इस्तेमाल किया था। साथ ही 4 अन्य लोगों को गिरफ्तार किया गया है लेकिन मुख्य अपराधी अभी भी पहुँच से बाहर हैं। लेकिन क्या यह सोचने का विषय नहीं है कि तमाम ‘उत्तम प्रदेश’ के दावों के बीच एक राजनैतिक पार्टी के प्रमुख को खुलेआम गोलियों से भूनने की कोशिश की जा रही है? क्या यह उत्तर प्रदेश की कानून और व्यवस्था की बदहाल स्थिति का सूचक नहीं है? उत्तर प्रदेश के निवासी शायद भूल रहे होंगे लेकिन उन्हे याद रखना चाहिए कि यूपी में कानून और व्यवस्था की अघोषित समाप्ति की घोषणा कुछ महीने पहले ही हो चुकी थी। अतीक अहमद नाम के अपराधी की हत्या खुलेआम पुलिस और मीडिया की उपस्थिति में कर दी जाती है। इसके बाद 7 जून को मुख्तार अंसारी का सहयोगी और मुन्ना बजरंगी से जुड़ा हुआ संजीव जीवा नाम के खतरनाक अपराधी को लखनऊ में एक कोर्ट परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी गई।
कानून से डर के पलायन का हाल यह है कि यह जानते हुए भी कि पुलिस आसानी से फ़ेसबुक पर किसी की भी आइडी से उसके घर तक पहुँच सकती है एक 30 साल का विमलेश सिंह नाम का आदमी पब्लिक प्लेटफॉर्म फेसबुक पर चंद्रशेखर आजाद को जान से मारने की धमकी दे डालता है। ऐसा प्रोत्साहन या तो जातीय और धार्मिक गौरव से आ सकता है जिसे पर्याप्त राजनैतिक संरक्षण का आश्वासन मिला हो या फिर किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा भी जिसकी आजाद से व्यक्तिगत दुश्मनी हो। यह तो जांच का विषय है लेकिन जातीय वैमनस्यता को दरकिनार नहीं किया जा सकता।
यदि भारत में जाति को ‘सच्चाई’ के रूप में चिन्हित करने की कोशिश की गई तो आजाद ने उसे ढोने के बजाय अपने गौरव के रूप में दर्शाया। उन्हे यह गौरव किसी जाति विशेष ने नहीं बल्कि भारत के संविधान ने प्रदान किया। भारत के संविधान ने उन्हे अपने और अपने समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए राजनैतिक स्वतंत्रता और समता प्रदान की ताकि दलितों और वंचितों के शोषण को अवरुद्ध किया जा सके। इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए आजाद ने 2015 में ‘भीम आर्मी’ नाम का एक संगठन बनाया जिसे हिंसक बताकर बदनाम करने की कोशिश की गई। जबकि इसका पूरा नाम था ‘भीम आर्मी भारत एकता मिशन’।
2017 में दलित ऐक्टिविस्ट और लेखक गौरी लंकेश की हत्या के बाद सहारनपुर जेल से ही चंद्रशेखर ने एक पत्र लिखा जिसमें वह लिखते हैं कि “मैं अपनी अंबेडकरवादी बड़ी बहन गौरी लंकेश की हत्या से दुखी हूं, लेकिन मैं उनके जज्बे को सलाम करता हूं। उनकी शहादत व्यर्थ नहीं जायेगी। मुझे खुशी है कि वह जिंदगी में कभी नहीं झुकीं…. उत्तर प्रदेश में सहारनपुर जिला जेल वर्तमान में मेरा घर है।……सबसे पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि यह देश हमारा है। 85 फीसदी दलित, पिछड़े वर्ग, मुस्लिम और अल्पसंख्यक अब अपने ही देश में गुलाम नहीं रहेंगे।”यह एक क्रांतिकारी घोषणा थी और और इस बात का आभास भी कि चंद्रशेखर आने वाले समय में कैसे और किससे संघर्ष करने वाले हैं।
मान्यवर कांशीराम जैसे दलित राजनैतिक विचारकों की गैरमौजूदगी और मायावती जैसे नेताओं का ऐतिहासिक रूप से राजनैतिक विलोपन दलित राजनीति के समापन की ओर संकेत कर रहा था। लेकिन चंद्रशेखर आजाद जैसे नेताओं का उभरना और दलित मुद्दों को लेकर सरकार और समाज के समक्ष मुखरता से आना एक नई संभावना को जन्म दे गया है। दलितों में ‘कर्मयोगी’ खोजने वाले नेताओं ने उनकी राजनैतिक चेतना को राशन की दुकानों पर लाकर खड़ा कर दिया है।
लाभार्थी राजनीति के माध्यम से दलित वोटों को प्रभावहीन करने की मंशा को चंद्रशेखर आजाद के उभार से नुकसान पहुँच सकता है। संभावना है कि इसे लेकर किसी अतिवादी में कुछ पुराने रोपित बीजों के माध्यम से घृणा के वृक्षों को आकार दिया जा रहा हो। यूपी पुलिस को चाहिए कि इस मुद्दे की निष्पक्षता से जांच करे ताकि ‘कानून और व्यवस्था’ को यूपी में अखबारों के इश्तिहारों के माध्यम से नहीं बल्कि दैनिक अनुभव के आधार पर महसूस किया जा सके।
सौजन्य : Satya hindi
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