द्रौपदी मुर्मू के अपमान से दलित-बहुजन आक्रोशित
आगामी 28 मई, 2023 को संसद के नए भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया जाएगा। वहीं इस मौके पर प्रधानमंत्री को राजदंड के रूप में ‘सेलोंग’ सौंपा जाएगा। इस आशय की जानकारी बीते दिनों केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संवाददाता सम्मेलन में दी। वहीं देश भर के दलित-बहुजन इस बात को लेकर आक्रोशित हैं कि उद्घाटन प्रधानमंत्री के बजाय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हाथों क्यों नहीं कराया जा रहा है। साथ ही वे इस बात का भी विरोध कर रहे हैं कि लोकतांत्रिक देश में धार्मिक विचारों पर आधारित राजदंड का प्रतीकात्मक उपयोग क्यों किया जा रहा है।
बताते चलें कि कांग्रेस सहित देश के 19 विपक्षी दलों ने यह कहकर बहिष्कार किया है कि भाजपा आदिवासी समाज से आने के कारण द्रौपदी मुर्मू के हाथों नए संसद भवन का उद्घाटन नहीं करा रही है। विपक्षी दलों के संयुक्त बयान के मुताबिक– “भारत के संविधान के अनुच्छेद 79 में कहा गया है कि ‘संघ के लिए एक संसद होगी, जिसमें राष्ट्रपति और दो सदन होंगे, जिन्हें क्रमश: राज्यों की परिषद और लोगों की सभा के रूप में जाना जाएगा।’ राष्ट्रपति न केवल भारत में राज्य प्रमुख होता है, बल्कि संसद का भी अभिन्न अंग होता है। वह संसद को बुलाता है, सत्रावसान करता है और संबोधित करता है। संक्षेप में, राष्ट्रपति के बिना संसद कार्य नहीं कर सकती है। फिर भी प्रधानमंत्री ने उनके बिना नए संसद भवन का उद्घाटन करने का निर्णय लिया है। यह अशोभनीय कृत्य राष्ट्रपति के उच्च पद का अपमान करता है और संविधान के पाठ व भावना का उल्लंघन करता है। यह सम्मान के साथ सबको साथ लेकर चलने की उस भावना को कमजोर करता है, जिसके तहत देश ने अपनी पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति का स्वागत किया था।”
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट के जरिए अपना विरोध जताया है। उन्होंने लिखा है– “… नए संसद भवन के शिलान्यास पर भी मोदी जी ने श्री रामनाथ कोविंद जी को नहीं बुलाया। अब नए संसद भवन के उद्घाटन को भी मौजूदा राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के हाथों से नहीं करवा रहे। देशभर का एससी और एसटी समाज पूछ रहा है कि क्या हमें अशुभ माना जाता है, इसलिए नहीं बुलाते?”
राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष व कांग्रेस नेता डॉ. नंद कुमार साय ने प्रधानमंत्री को पत्र भेजा है। भेजे गए पत्र को फेसबुक पर साझा करते हुए साय ने प्रधानमंत्री को संबोधित करते हुए लिखा– “28 मई को नए संसद भवन का लोकार्पण होना है। संसद भवन देश का संवैधानिक भवन है। इसलिए इस भवन का लोकार्पण देश के संवैधानिक प्रमुख माननीया राष्ट्रपति महोदया से कराएं। आप स्वयं लोकार्पण करने का लोभ संवरण करें!”
वहीं सोशल मीडिया पर इसे लेकर व्यापक विरोध देखा रहा है। वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने सेंगोल प्रकरण पर फेसबुक पोस्ट में लिखा– “भारत का राजचिह्न, अशोक के सिंह-स्तंभ की अनुकृति है, जो सारनाथ के संग्रहालय में सुरक्षित है। मूल स्तंभ में शीर्ष पर चार सिंह हैं, जो एक-दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं। फिर सेंगोल का विचार कहां से और क्यों लाया जा रहा है! कितने प्रतीक चिह्न होंगे? वह भी सुंदर है लेकिन प्रतीक चिह्नों का मेला थोड़े लगाना है। राजकीय चिह्न एक ही रहने दीजिए!”
वहीं तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर के सेवानिवृत्त प्रोफेसर बिलक्षण रविदास ने अपने फेसबुक पोस्ट में कहा है कि “यह बहुत ही दुखद और निंदनीय है कि तानाशाही मोदी सरकार के द्वारा लगातार संवैधानिक मूल्यों का हनन किया जा रहा है। नए संसद भवन के उद्घाटन कार्यक्रम दिनांक 28.05.2023 में महामहिम राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू महोदया एवं महामहिम उपराष्ट्रपति महोदय को आमंत्रित नहीं किया गया है। उद्घाटन स्वयं प्रधानमंत्री मोदी जी करने जा रहे हैं, जबकि संवैधानिक वरिष्ठता क्रम में वे राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के बाद तीसरे स्थान पर आते हैं। बहुजन समाज से आने वाली महिला राष्ट्रपति महोदया का यह घोर अपमान है।”
जातिगत जनगणना की मांग को लेकर नीति आयोग की बैठक में शामिल होने से बिहार ने किया इंकार
केंद्र सरकार के नीति आयोग की आज होनेवाली बैठक में बिहार सहित अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भाग लेने से इनकार किया है। इनकार करनेवालों में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अलावा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, पंजाब के मुख्यमंत्री भागवंत सिंह मान भी शामिल हैं। बिहार की ओर से बैठक में भाग नहीं लिए जाने के संबंध में बिहार सरकार द्वारा जो कारण बताए गए हैं, उनमें एक अहम कारण जातिगत जनगणना नहीं कराया जाना बताया जा रहा है। अन्य कारणों में बिहार को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिया जाना व केंद्र प्रायोजित योजनाओं की संख्या बढ़ाया जाना बताया गया है। बिहार सरकार द्वारा कहा गया है कि केंद्र प्रायोजित योजनाओं की संख्या अधिक-से-अधिक 30 होनी चाहिए, लेकिन वर्तमान में इसकी संख्या सौ है।
सतनामी समाज का गुरु विवाद पहुंचा जंतर-मंतर
छत्तीसगढ़ में सतनामी पंथ को माननेवालों की संख्या अच्छी खासी है। गुरु घासीदास के विचारों पर आधारित सतनामी पंथ के लोग इन दिनों गुरुओं को लेकर आक्रोशित हैं। इसी संबंध में गत 18 मई, 2023 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर गुरु घासीदास सेवादार संघ द्वारा धरना दिया गया। संघ के अध्यक्ष सुबोध लखन के मुताबिक, गुरु घासीदास द्वारा प्रवर्तित सतनाम धर्म का उदय 1820 से 1850 के बीच हुआ। लेकिन 1860 में गुरु बालकदास की हत्या के बाद से अभी तक इस धर्म पर कब्जा करने की कोशिशें की जा रही हैं।
बताते चलें कि धरना के दौरान ही छत्तीसगढ़ के नवलपुर जिले के बेमेतरागांव से गुरु बालकदास का शहीदी मिट्टी कलश में रखी गई थी, जिसे धरना के समापन के बाद दिल्ली के सराय काले खां स्थित श्मशान घाट पर यमुना नदी में प्रवाहित किया गया।
लखन ने बताया कि सतनामी धर्म स्थलों संपदा-साधन का उपयोग निजी पंडों के तिजोरी भरने एवं राजनैतिक सत्ता की दलाली-ठेकेदारी को बंद करने के लिए सतनाम धर्म स्थल सर्वोच्च प्रबंधन संस्थान कानून बनाने की मांग के लिए यह प्रदर्शन आयोजित किया गया है। आयोजकों की एक मांग यह भी रही कि सरकार ऐसा कानून बनाए, जिसके जरिए सतनाम पंथियों को जातिवादी उच्च-नीच के भेदभाव का शिकार न होना पड़े और उन्हें हिंदू धर्म का न माना जाय।
सतनामी पंथियों के प्रदर्शन को पूर्व सांसद डॉ. उदित राज सहित अनेक गणमान्य लोगों ने अपना समर्थन दिया।
सौ साल का हुआ बांग्ला दलित साहित्य, परिचर्चा आयोजित
गत 26 मई, 2023, कोलकाता, साहित्य अकादेमी के क्षेत्रीय कार्यालय, कोलकाता द्वारा अपनी विशिष्ट कार्यक्रम शृंखला ‘दलित चेतना’ के अंतर्गत ‘बांग्ला साहित्य में दलित चेतना’ विषयक विमर्श का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता अकादेमी में बांग्ला भाषा परामर्श मंडल की सदस्या तथा प्रख्यात लेखिका कल्याणी ठाकुर चांडाल ने की। आरंभ में औपचारिक स्वागत भाषण करते हुए अकादेमी के सचिव डॉ. के. श्रीनिवास राव ने सौ वर्षीय बांग्ला दलित साहित्य की परंपरा को रेखांकित किया।
कार्यक्रम में मनोरंजन व्यापारी, असित विश्वास, मृण्मय प्रामाणिक एवं मंजुबाला ने अपने विचार प्रकट किए। वक्ताओं ने इस बात को रेखांकित किया कि बांग्ला दलित साहित्य किस प्रकार ब्राह्मणवादी कुचक्र के शिकार दलित समाज की चेतना और उसके प्रतिरोध को अपने में समाहित किए हुए है। असित विश्वास ने बांग्ला नाटक, मंजुबाला ने चुनी कोटाल की आत्मकथा तथा मृण्मय प्रामाणिक ने तुलनात्माक साहित्य को लेकर अपने विचार रखे। पश्चिम बंगाल दलित साहित्य अकादमी के अध्यक्ष मनोरंजन व्यापारी ने इस अवसर पर दलित विषयक प्रचलित शब्दों को संदर्भित करते हुए चेतना को साहित्य के साथ-साथ जीवनचर्या में भी शामिल करने पर बल दिया। धन्यवाद ज्ञापन अकादेमी के क्षेत्रीय सचिव डॉ. देवेंद्र कुमार देवेश के द्वारा किया गया।
सौजन्य : Forward press
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