बहनें घोड़ी चढीं तो हुक्का-पानी हुआ बंद : पंचों ने कहा- लड़कियों को घोड़ी चढ़ने की हिम्मत कैसे हुई, 50000 जुर्माना भरो
राजस्थान के बाड़मेर का मेली गांव। इस गांव की लगभग 4,000 आबादी है। यहां बसने वाले करीब 300 परिवार दलित मेघवाल समाज के हैं।
यहां मैं शंकरराम मेघवाल और उनके परिवार से मिलने आई हूं। गांव पहुंचते-पहुंचते दोपहर के 12 बज गए हैं। मेघवाल समाज में ही किसी की शादी है। चारों ओर चहल-पहल है।
मैं एक बड़े से घर में दाखिल होती हूं। घर देखकर पता लगता है कि यहां एक संपन्न और खुशहाल परिवार रहता है। घर के अंदर दाखिल होते ही अहसास होता है कि चारों ओर उदासी है। इस परिवार को गांव में होनी वाली शादी का न्योता नहीं मिला था। ये लोग इससे अपमानित महसूस कर रहे हैं।
एक कोने में बूढ़ी मां खामोश बैठी है। बहू चिंता में डूबी है। बेटियों को फिक्र है कि अगर समाज ने उनके परिवार को स्वीकार नहीं किया तब क्या होगा।
दरअसल इस परिवार की दो बहनें जब दुल्हन बनीं तो उनकी बिंदोली घोड़ी पर निकाली गई। इसके बाद भाई को समाज से बाहर कर दिया गया। जाति पंचायत ने फरमान जारी कर कहा कि इनका हुक्का-पानी आज से बंद हुआ। परिवार से कोई रिश्ता न रखे, आना-जाना और बोलचाल न करे।
ब्लैकबोर्ड सीरीज में आज की कहानी एक बार फिर यह साबित करती है कि जब भी एक स्त्री पुरुष की बनाई परंपरा को तोड़ने की कोशिश करती है तो उसे और उसके परिवार को कुचल दिया जाता है।
शंकरराम मेघवाल की आठ बहनें हैं। छह बहनों की शादी हो चुकी है। शंकर ने अपनी सभी बहनों को बहुत सम्मान से पाला है। आखिरी दो बहनों की शादी में कोई कमी नहीं छोड़ी।
पूरे घर को सजाया गया। डांस के लिए डीजे लगा। बहनों की बिंदोली के लिए सजे-धजे दो घोड़े बुलवाए। गाजे-बाजे के साथ 23 साल की लक्ष्मी और 22 साल की दीपू की बिंदोली निकली।
7 फरवरी को शादी थी। बहनों को विदा कर दिया। इस तरह पुरानी प्रथाओं के दायरे को पार करके हुई इस शादी के जश्न में पूरा गांव और समाज शामिल हुआ। यही बदलाव मुसीबत बन गया।
दरअसल राजस्थान में दलित मेघवाल समुदाय की शादियों में लड़कियां घोड़ी नहीं चढ़ती हैं। इस इलाके में ऐसा पहली बार हुआ, जब दलित बेटियों ने घोड़ी पर बैठकर अपनी बिंदोली निकाली थी।
लक्ष्मी और उनकी छोटी बहन दीपू अपने ससुराल विदा हो गई थीं। बिंदोली चढ़ाने के बाद शंकर को इस बात की खुशी हो रही थी कि उनके परिवार ने समाज को लड़कियों को लड़कों के बराबर होने का संदेश दिया।
बहनों की शादी को 2 महीने से ज्यादा बीत गए थे। इसी बीच 18 अप्रैल को दलित मेघवाल समाज के पंचों ने शंकर को तलब किया। उसे तुगलकी फरमान सुनाते हुए कहा कि बहनों की बिंदोली निकालने के लिए दंड भरना होगा। ऐसा न करने पर समाज से बहिष्कृत कर दिया जाएगा।
शंकर की पत्नी रेखा कहती हैं, ‘हमारे गांव में ऐसा पहली बार हुआ था जब कोई लड़की घोड़ी पर चढ़ी हो। जब शादी हो रही थी तब समाज के सभी लोग हमारे साथ थे। तब किसी ने कुछ नहीं बोला। अब ढाई महीने बाद उन्होंने कहा कि आप लोगों ने जो किया वो गलत है।’
रेखा की आंखों में आंसू हैं। आंसू पोंछते हुई वो अपनी सास यानी शंकर, लक्ष्मी और दीपू की मां की तरफ देखती हैं। सास बहू की पीठ पर हाथ रख मुझसे टूटी-फूटी हिंदी और स्थानीय राजस्थानी भाषा में कहती हैं, ‘जब हमने कोई छोटा काम नहीं किया है, तो हम दंड क्यों भरें। बेटियों को बेटों के बराबर मानना बिल्कुल भी गलत नहीं है। मेरी आठ छोरियां हैं, सभी को प्यार से पाला। जब मैंने अपनी बेटियों के साथ भेदभाव नहीं किया तो ये समाज कैसे कर सकता है?’
लक्ष्मी जिनकी बिंदोली निकली थी, उनका ससुराल जोधपुर में है। उनके पति डॉक्टर हैं। वो मुझसे मिलने के लिए मायके आईं थीं। पंचों के फैसले के बाद लक्ष्मी बहुत गुस्से में हैं। नई शादी की उनकी खुशी उनके चेहरे से गायब हो गई है।
वो कहती हैं, ‘शादी वाले दिन पूरा समाज हमारे साथ था। जब घोड़ी पर हमारी बिंदोली निकल रही थी तब ही वो कह देते कि ये रस्म गलत है।
मेरा उन पंचों से निवेदन है कि अगर आपके घर में कोई भी पढ़ा-लिखा है तो आप उनसे पूछो कि आपने जो निर्णय लिया है वो सही है या नहीं। बहिष्कार करने का जो ये फैसला है, क्या ये न्याय पर आधारित है?’
लक्ष्मी और उनकी बाकी बहनों को भाई ने बहुत प्यार से पाला। बड़ी बहनों की शादियों के वक्त परिवार के हालात इतने बेहतर नहीं थे। इसलिए शंकर चाहते थे कि उनकी आखिरी दोनों बहनों की शादी एक मिसाल बन जाए।
लक्ष्मी कहती हैं, ‘जब मेरा भाई बिंदोली के लिए घोड़ी लाया तो वो बहुत खुश था। उसे देखकर लग रहा था कि जैसा उसका कोई बहुत बड़ा सपना पूरा हो रहा हो। आज उसकी हालत परिवार के लोगों से देखी नहीं जा रही। बिना कोई गलती किए वो सजा भुगत रहा है।’
आसपास के लोग उनसे पहले की तरह बात करते हैं, भरोसा भी देते हैं कि वो उनके साथ हैं, लेकिन समाज के किसी कार्यक्रम में इस परिवार को नहीं बुलाया जा रहा है। आसपास हो रही शादियों में भी परिवार को न्योता नहीं दिया जाता है।
वो कहती हैं, ‘हम दंड भरने को तैयार हैं, लेकिन हमारा कहना है कि अगर आप बिंदोली निकालने पर दंड लगा रहे हो तो सिर्फ लड़कियों पर दंड मत लगाओ, लड़कों पर भी लगाओ। हमने कहा कि जिन लड़कों की बिंदोली निकली है, जो घोड़े पर बैठे हैं, आप उनसे भी दंड लो। अगर आप उनसे दंड लेंगे तो हम भी दे देंगे। हमें दंड भरने में दिक्कत नहीं है।’
लक्ष्मी मानती हैं कि लड़कियों के लिए सबसे बड़ी लड़ाई बराबरी की है। मैं, मेरी बहनें और पूरा परिवार इस लड़ाई से पीछे नहीं हटेगा। वो कहती हैं, ‘मेरे भाई ने कभी महसूस ही नहीं होने दिया कि हम लड़की हैं। किसी मामले में लड़कों से कम हैं। मेरी भतीजी भी है, हम उसे बराबरी से पाल रहे हैं, हम उसके दिमाग में कभी ये ख्याल ही नहीं आने देंगे कि वो लड़की है और किसी से कम है।’
खुले माहौल में पली-बढ़ी लक्ष्मी के लिए ये यकीन करना मुश्किल है कि उनके परिवार का बहिष्कार कर दिया गया है। वो कहती हैं, ‘ हमारे समाज के पंचों के फैसले ने साबित कर दिया कि लड़कियां आज भी बहुत पीछे हैं, उनकी जगह अभी भी घर में झाड़ू पोंछा करने तक ही है।’
मैंने शंकर से बात करने की इच्छा जाहिर की। वो घर में तो थे, लेकिन मेरे सामने अब तक नहीं आए। पत्नी रेखा कहती हैं, ‘पंचों के फैसले के बाद से मेरे पति डिप्रेशन में चले गए थे। वो न तो रात को सो पाए और न ही दो दिन तक खाना खाया। उन्हें लग रहा था कि वो समाज की लड़ाई में हार गए हैं। समाज ने उन्हें तोड़ दिया है।’
इस बीच लक्ष्मी शंकर को बुलाकर लाती हैं। शंकर कहते हैं, ‘मैं बहनों की शादी वाले दिन बहुत खुश था। बहनों को घोड़ी पर बैठाकर उन्हें लड़कों की बराबरी का दर्जा दिया है। अब पता चला कि शादी के जश्न में शामिल होने के बाद बाद गांव के लोगों ने बैठकें की। हमारे घर की चर्चा की और पंचों में जाकर शिकायत की।’
कहानी सुनाते-सुनाते शंकर की आंखें भर आती हैं। वो आगे कहते हैं, ‘18 अप्रैल की बात है। उस दिन मैं घर पर ही था। मेघवाल समाज के पंचों ने फोन करके मुझे बुलाया। वहां पहुंचने पर पंचों ने पहले खरी-खोटी सुनाई। ताना मारा कि तुम समाज में नई परंपरा शुरू कर रहे हो।
इसके बाद पंचों ने साफ-साफ कहा कि तुम 50 हजार का दंड भरोगे या तुम्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। हमने जुर्माना नहीं भरा तो हमें समाज से बाहर कर दिया।’
पंचों पर सवाल उठाते हुए शंकर कहते हैं, ‘अगर उन्हें काम ही करने हैं तो समाज के लिए अच्छे काम करें। लड़कियों को बढ़ावा दें। सामाजिक बराबरी के लिए काम करें।
मेघवाल समाज के साथ जो भेदभाव होता है, उसे खत्म करने के लिए काम करें। वो तो खुद के समाज को ही पीछे हटाने का काम कर रहे हैं। अगर लड़कियां आगे बढ़ेंगीं तो हमारा मेघवाल समाज भी आगे बढे़गा।’
मेली गांव में लोग दबी जुबान में शंकर और उनके परिवार का समर्थन करते हैं, लेकिन पंचों के खिलाफ जाने की हिम्मत किसी में नहीं हैं। हमने यहां कई लोगों से बात करने की कोशिश की, लेकिन किसी ने भी कुछ नहीं कहा।
कुछ महिलाओं ने कैमरे पर बात करने से इनकार करते हुए ये जरूर कहा कि शंकर ने जो किया सही है। जब उनसे पूछा गया कि क्या वो पंचों के फैसले का विरोध करेंगे तो सभी का एक जैसा ही जवाब था, ‘समाज में रहना है तो समाज की माननी पड़ेगी। समाज से बाहर नहीं हो सकते न।’
मेली गांव के सरपंच भैराराम चौधरी पूरे मामले से पल्ला झाड़ते हुए कहते हैं, ‘मुझे न इस बारे में कुछ जानकारी है और न ही मेरा इसमें कुछ हस्तक्षेप है। इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कहूंगा।’
मेली गांव पहुंचकर अहसास होता है कि शंकर ने बहनों को घोड़ी पर चढ़ाकर एक लंबी लकीर तो खींच दी है, लेकिन समाज को उसे स्वीकार करने में अभी लंबा वक्त लगेगा।
न प्रथाएं आसानी से टूटती हैं और न ही नई रस्में आसानी से पैदा होती हैं। लड़कियों के लिए बराबरी हासिल करना एक लंबी लड़ाई है। शंकर और उनकी बहनों ने पहला कदम उठा दिया है…
सौजन्य : Dainik bhaskar
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