अंबेडकर ने क्यों आजादी की लड़ाई में भाग लेने से मना कर दिया?
भारत छोड़ो आंदोलन – बात है 8 अगस्त 1942 की जब बम्बई के गोवलिया टैंक मैदान की जब उस दिन वहां हजारों की संख्या में भीड़ इकठ्ठा थी. वही मच जिससे अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति ने ‘भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पारित किया. मंच पर मौजूद महात्मा गांधी ने खड़े होकर कहा कि, ‘अब एक साथ खड़े होकर आवाज उठाने का वक्त अब आ गया है. मैं आपको एक मंत्र देना चाहता हूं जिसे आप अपने दिल में उतार लें, यह मंत्र है, करो या मरो.‘ गांधी के इस भाषण ने पूरे देश को खड़ा कर दिया. ये एक ऐसा आंदोलन बन गया जिसने ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिलाकर रख दीं.
इस मन्त्र ने ब्रिटिश हुकूमत के अन्दर इतना डर पैदा कर दिया था कि आन्दोलन शुरू होते ही गांधी, नेहरु पटेल, आजाद समेत कई बड़े नेताओं ने गिरफ्तार करवा दिया. ऐसा इसलिए ताकि अनोदलं ठंडा पड़ जाए. लेकिन इस बार तस्वीर उल्टी बनी क्योंकि मंत्र का असर सिर्फ आजादी की लड़ाई लड़ रहे नेताओं पर ही नहीं बल्कि जिनके लिए लड़ी जा रही थी यानि जनता पर भी बराबर हुआ था. इनकी नेताओं की गिरफ्तात्री के बाद अब कमान जनता ने संभाल ली थी. संचार व्यवस्था को ठप कर दिया गया, रेल पटरियां उखाड़ दी गयी जगह जगह पुलिस से मुठभेड़ हुई हालत ये हो गयी थी कि जगह जगह बंदी जेल तोड़कर भागने लगे थे.
दिन 14 अगस्त साल 1931, ये वो दिन था जब अंबेडकर महात्मा गांधी से पहली बार मिले थे. उनसे मिलने के लिए गांधी जी ने उन्हें खुद पत्र लिखकर आमंत्रित किया था. गांधी जी की बातें इतनी आत्मीयता भरी होती थीं कि विरोधी भी उनसे मिलकर उनके कायल हो जाते थे. लेकिन उस दिन गांधी की भाषा थोड़ी रूखी थी.
ये भाषा सुनकर गांधी थोड़ा सहज कर बोले –
‘मुझे पता लगा है कि आपको मेरे और कांग्रेस के खिलाफ कुछ शिकायते हैं. लेकिन मैं आपको बताऊं कि अपने स्कूल के दिनों से ही मैं अछूतों की समस्या के बारे में सोचता रहा हूं. तब तो आपका जन्म भी नहीं हुआ था. आपको शायद यह भी मालूम होगा कि इसे कांग्रेस के कार्यक्रम में शामिल कराने के लिए मुझे कितनी कोशिश करनी पड़ी…और यह सचमुच की बात है कि आप जैसे लोग मेरा और कांग्रेस का विरोध करते हैं. अपना रुख जाहिर करने के लिए खुलकर बोलिए.’
इसके जवाब में अंबेडकर ने जो बात कही उससे गांधी और अंबेडकर के बीच के कड़वाहट को साफ़ देखा जा सकता है, ‘यह सच है कि जब आपने अछूतों की समस्या के बारे में सोचना शुरू किया तब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था. सभी बूढ़े और बुजुर्ग लोग हमेशा अपनी उम्र की दुहाई देते हैं. यह भी सत्य है कि आपके कारण ही कांग्रेस ने इस समस्या को मान्यता दी. लेकिन मैं आपसे कहूंगा कि कांग्रेस ने इस समस्या को औपचारिक मान्यता देने के अलावा कुछ भी नहीं किया. आप कहते हैं कि कांग्रेस ने अछूतों के उत्थान पर बीस लाख रुपये खर्च किए. मैं कहता हूं कि ये सब बेकार गए. इतने में मैं अपने लोगों का नजरिया बदलकर रख देता. लेकिन इसके लिए आपको मुझसे बहुत पहले मिलना चाहिए था.’
जब पूना पैक्ट के लिए अड़ गए थे गांधी – भारत छोड़ो आंदोलन
इस बात से तो आप सब वाकिफ होंगे कि अंबेडकर भारत के दलित, शोषित और वंचित तबकों के हक़ की लड़ाई लड़ रहे थे. उन्ही की कोशिशों के बाद साइमन कोम्मिसिओं ने साल 1928 में डिप्रेस्ड क्लासेज को काफी हद तक राज्य में प्रतिनिधित्व देने को राजी हुआ.
जिसके बाद इससे सम्बंधित दस्तावेज तैयार हुए और 17 अगस्त 1932 को अंग्रेजी हुकूमत ने दलितों को एक अलग निर्वाचन दिया और साथ ही दो वोट का अधिकार भी दिया जिसके एक वोट से वो अपने प्रतिनिधित्व चुन सकते थे और दुसरे से वो सामान्य वर्ग के किसी प्रतिनिधि को.
गांधी शुरू से ही दलितों के उत्थान के पक्षधर थे लेकिन दलितों के लिए अलग निरावचन क्षेत्र और दो वोट के आदिकार के विरोधी थे. उनका ये मानना था कि इससे दलितों और सवर्णों के बीच खायी बढ़ेगी जिसका असर पूरे हिन्दू समाज पर पड़ेगा.
इसी के चलते गांधी ने यरवदा जेल में शुरू कर दिया. देश भर में अंबेडकर के विरोध में पुतले फूंके गए और दलितों की बस्तियां जलाई गयी जिसके बाद आखिरकार अंबेडकर को झुकना पड़ा. और यहीं गांधी और अंबेडकर के बीच पूना पैक्ट तय हुआ.
जिसके बाद दलितों के अलग निर्वाचन क्षेत्र और दो वोट के अधिकार को वापस ले लिया गया. हालांकि ये अलग बात है कि इसके बदले में दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 147 और केंद्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18 फीसदी कर दी गई.
भारत छोड़ो आंदोलन – साल 1955 में अंबेडकर ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में ये साफ़ कहा कि, ‘गांधी जी कभी एक समाज सुधारक नहीं थे वो बिलकुल रूढ़िवादी हिन्दू थे. उन्होंने ने एक पॉलिटिशियन की तरह काम किया है इसलिए मैं उन्हें महात्मा कहने से भी इनकार करता हूं.’
एकसाथ आजादी के खिलाफ क्यों थे अंबेडकर?
फ्रेंच राजनीति विज्ञानी क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो अपनी जीवनी में लिखते हैं कि, “डॉ अंबेडकर वाइसराय की एग्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य थे. सदस्य का दर्जा आज के समय के कैबिनेट मंत्री के बराबर होता था. क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो लिखते हैं, ‘उस समय अंबेडकर के हाथ में श्रम विभाग से जुड़ी जिम्मेदारी थी. बतौर वायसराय काउंसिल के सदस्य अंबेडकर ने निचले तबके के उत्थान के लिए कई सामाजिक कानून बनवाए.
भारतीय ट्रेड यूनियन (संशोधन) विधेयक पारित कराया, जिसने हर कंपनी में एक ट्रेड यूनियन को अनिवार्य बना दिया. ब्रिटिश शासन में वेतन भुगतान (संशोधन) विधेयक और कई कारखाने (संशोधन) विधेयक भी उन्हें पास करवा दिया. उन्होंने ब्रिटिश सेना में बड़ी संख्या में दलितों की भर्ती करवाई और विशेष रूप से, महार बटालियन को बहाल करवाया.’
कुल मिलकर आप ये कह सकते हैं कि अंबेडकर जिस पद पर थे वो इसे अपने हाथ में मिली अपनी ऐसी बड़ी ताकत समझते थे जिसके जरिए आजादी से पहले वो दलितों और वंचितों के हित में बड़े काम कर सकते थे उनका मानना था कि वे देश की आजादी से पहले ब्रिटिश सरकार में ही दलितों के लिए कुछ कर देंगे जिससे जातिवाद की खाई और लोगों की सोच बदल जाए. अंबेडकर कहते थे कि भारत को एकदम पूरी आजादी नहीं मिलनी चाहिए थी क्योंकि भारतीय समाज इसके लिए तैयार नहीं था.
क्या इस वजह से अंबेडकर ने किया ‘भारत छोड़ो आन्दोलन ‘का विरोध?
भारत छोड़ो आंदोलन – जब अंग्रेज भारत से चले गए तब एक और ऐसी बात थी जिसे लेकर अंबेडकर डरे हुए थे जिसके बारे में फ्रेंच राजनीतिज्ञ क्रिस्तोफ जाफ्रालो लिखते हैं कि,
‘जब भारत छोड़ो आंदोलन हुआ. उसी समय द्वितीय
हुआ था. इस दौरान दुनिया ने जापानियों और नाजियों की हरकतों को देखा था. नेहरू की तरह अंबेडकर भी मजबूती से मानने लगे थे कि नाज़ी, इतालवी फासीवादी और जापानी अंग्रेजों से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं. ये सब देखकर ही अंबेडकर ने अंग्रेजों के साथ मिलकर काम करने का फैसला किया था.’
दरअसल उन्हें इस बात का डर था कि कहीं अंग्रेजों के जाने के बाद नाजी और जापानियों ने भारत पर कब्ज़ा कर लिया तो ये देश हित में नहीं होगा. आन्दोलन के दौरान वो इस बात का जिक्र करते हैं कि, ‘सभी भारतीयों की सच्ची का देश भक्ति यही है कि वे ‘भारत छोड़ो’ जैसे आंदोलनों में अराजकता फैलने से रोकें, क्योंकि इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तरह के आंदोलन हमारे देश को जापान का गुलाम बनाने में मदद करेंगे.
सौजन्य : Nedrick news
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