फुले दंपत्ति काे समझने का आधार उपलब्ध कराती ‘सावित्रीनामा’
जब हम दलित-बहुजन आंदोलन; और उसके साथ-साथ, भारतीय समाज के आधुनिकीकरण के लंबे इतिहास के एकदम आदि बिंदु की पड़ताल करना शुरू करते हैं, उस समय सिवाय फुले दंपत्ति के कोई दूसरा नाम नजर नहीं आता। प्रस्तुत पुस्तक में उन महामानवों के मूल रचनाकर्म को सहेजा गया है।
हिंदुस्तान को आधुनिक राज्य बनाने में योगदान तो अनेक नेताओं का है, लेकिन उनमें शिखरपुरुष एक ही हैं– जोतीराव फुले। इस स्थान पर वे अकेले न होकर, अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ विराजमान हैं। हालांकि यह कहना उचित होगा कि शिखर पद पर वे हैं ही इसलिए, क्योंकि सावित्रीबाई फुले उनके साथ हैं।
उनीसवीं शताब्दी में ममतामयी, तलस्पर्शी, जिम्मेदार, कर्तव्यपरायण, उदारमना, त्यागी और संघर्षशीला स्त्री के रूप में, यदि हम किसी एक को चुनना चाहें तो निस्संदेह वे सावित्रीबाई फुले ही होंगी। वे अपने आप में एक मिसाल हैं। ऐसे दौर में जब तथाकथित बड़े घरों की कथित पढ़ी-लिखी महिलाएं अच्छी सहधर्मिणी बनने के नाम पर अपने पतियों के वश में रहने के लिए स्त्री-सुलभ आचरण का सुझाव दे रही थीं,[1] सावित्रीबाई ने सहधर्मिणी बनने के बजाय सहचरी बनने का निर्णय लिया था। फिर चाहे जोतीराव द्वारा खोले गए स्कूलों में शिक्षिका की जिम्मेदारी हो या पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर समाजसेवा में लगी समाजसेविका की; या फिर उनके द्वारा खोले गए अनाथालय में कुशल धाय, स्त्री सदनों में समाज की सताई स्त्रियों की सेवा में जुटी तथा छात्रावास में विद्यार्थियों की देखभाल करने वाली ममतामयी मां की; अथवा प्लेग के सताए लोगों को पीठ पर लादकर उपचार-केंद्र पहुंचाने वाली करुणाशील दायी की, वे हर जगह, हर हाल में अग्रणी रहीं।
कई अवसरों पर तो उनका चरित्र इतना उदात्त, अनुकरणीय और निखरा-निखरा लगता है कि उनके आगे जोतीराव के व्यक्तित्व की आभा भी फीकी पड़ने लगती है। अपने पत्रों, पति-पत्नी के सहज संवाद के दौरान भी, वे इस बात का पूरा ध्यान रखती थीं कि किसी भी कारणवश, उनके पति का आभामंडल कमजोर न दिखे। एक दिन सावित्रीबाई के अपने ही भाई ने जोतीराव की आलोचना करते हुए कहा कि–
“तुम और तुम्हारे पति बहिष्कृत हो। तुम दोनों मिलकर महार, मांग आदि निचली जातियों के लिए जो काम करते हो, वह पतित है और हमारे कुल के लिए कलंक है। इसलिए मेरा तुमसे आग्रह है कि तुम्हें भट ब्राह्मणों का कहना मानकर, जाति-रूढ़ि के हिसाब से चलना चाहिए।”[2]
उस समय वे चुप नहीं रहीं, तत्काल प्रतिवाद किया था–
“भाई तुम्हारी सोच संकीर्ण है। ब्राह्मणों की शिक्षा के कारण तुम्हारी बुद्धि कमजोर हो गई है। तुम गाय और बकरी को प्यार से सहलाते हो, नागपंचमी के दिन जहरीले नाग को पकड़कर दूध पिलाते हो। महार और मांग भी तो तुम्हारे जैसे इंसान ही हैं, फिर उन्हें अछूत क्यों मानते हो।”[3] फुले को पत्र लिखते समय वे इस बात का भी ध्यान रखती हैं कि उनका कोई भी कदम, यहां तक कि कोई एक शब्द भी व्यक्तित्वों की टकराहट का कारण न बन जाए।
अपने पत्रों में वे जोतीराव फुले को ‘सत्यस्वरूप ज्योतिबा स्वामी’ लिखकर संबोधित करती हैं। यहां ‘स्वामी’ जैसे शब्द आधुनिकता और स्त्री-स्वातंत्र्य के समर्थकों को अखर सकते हैं, लेकिन हमें यह समझ लेना चाहिए कि इसके पीछे उन दोनों का सघन दांपत्य प्रेम है, जिसमें एक-दूसरे के प्रति समर्पण की प्रबलतम भावना है। उतना उठान है जहां स्त्री-पुरुष, बड़े-छोटे का भेद सिरे से गायब हो जाता है। यह भावना इकतरफा हरगिज नहीं है। इसी पुस्तक में एक संदर्भ आया है–
“सावित्रीबाई के दिल में गरीबों के प्रति अथाह प्रेम था। वे उन्हें घर पर बुलाकर भोजन करातीं। किसी स्त्री की साड़ी फटी दिख जाए तो घर बुलाकर नई साड़ी भेंट कर देती थीं। जब इससे घर का खर्च बढ़ने लगा तो ज्योतिबा ने एक दिन कहा– ‘हमें इतना खर्च नहीं करना चाहिए।’ इसपर उस ममतामयी ने जवाब देने के बजाय पलटकर पूछा– ‘हमें क्या मरने के बाद कुछ साथ लेकर जाना है?’” साफ है कि जिस प्रेम के भरोसे वे फुले को ‘स्वामी’ कहकर संबोधित करती थीं, अवसर आने पर स्वामिनी भी बन जाती थीं। यही सफल दांपत्य की विशेषता है।
अपने युग की उस आधुनिकतम स्त्री का बड़प्पन देखिए कि पुणे में फैले प्लेग के कारण जब नगरवासी घर छोड़कर सुरक्षित ठिकाने की तलाश में जा रहे थे। परिवार में बीमार की तीमारदारी तो दूर, मरने पर लोग उन्हें पहचानने से इंकार कर देते थे, ऐसे भीषण दौर में जब पुणे के घर-घर में मौत पसरी हुई थी; और श्मशान में जलाने के लिए लकड़ियों और दफनाने के लिए जगह कम पड़ने लगी थी – तब उस भीषण चुनौती और डर से भरपूर समय में भी सावित्रीबाई ने अपने डॉक्टर पुत्र को प्लेग के रोगियों की सेवा करने के लिए विदेश से घर बुला लिया था। वे खुद 11-12 वर्ष के प्लेग-ग्रस्त बालक को उपचार केंद्र लाते हुए, प्लेग का शिकार हुई थीं। उनके बाद उनका इकलौता बेटा भी प्लेग के रोगियों की सेवा करते-करते मर गया था। सेवा और आत्मोत्सर्ग का ऐसा उदाहरण भारत तो क्या पूरे विश्व में नहीं है।
ऐसे विराट व्यक्तित्व की स्वामिनी सावित्रीबाई फुले के समग्र रचनाकर्म को फारवर्ड प्रेस ने हिंदी पाठकों के लिए एक जिल्द में उपलब्ध कराया है। अनुवादक उज्ज्वला म्हात्रे अच्छी लेखिका, समाजसेवी और आंदोलनकर्मी हैं। यह अनुवाद उन्होंने सीधे मराठी से किया है। इस सहजता के साथ कि ‘सावित्रीनामा’ एकदम हिंदी की मूल कृति लगती है। जगह-जगह आवश्यक संदर्भ देने से पुस्तक न केवल सामान्य पाठकों के लिए अपितु शोधकर्ताओं के लिए भी उपयोगी बन चुकी है।
‘सावित्रीनामा’ में सावित्रीबाई के पति के नाम लिखे गए पत्र हैं, उनमें कुछ ऐसी घटनाएं दर्ज हैं, जो आधुनिक दलित-बहुजन साहित्य के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास पर टिप्पणी हैं। उनके अलावा सावित्रीबाई फुले की लंबी कविता ‘बावन्नकशी सुबोध रत्नाकर’ है, साथ में फुले के दुर्लभ भाषण हैं। सावित्रीबाई फुले के अपने भाषण भी हैं। भूमिका के रूप में फुले साहित्य के मर्मज्ञ प्रो. हरी नरके का लेख है, जो अपने आप में दस्तावेजी रचना है। ‘सावित्रीनामा’ के आधार पर सावित्रीबाई फुले की कविताओं को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहला प्रकृति केंद्रित रचनाएं और दूसरी सामाजिक चेतना विषयक कविताएं। सामाजिक आजादी की चाहत दोनों धारा की कविताओं की प्रमुख विशेषता है। कवयित्री ने प्रकृति-विषयक कविताओं को कदाचित चुना ही इसलिए है कि प्रकृति सबकी समानता और स्वतंत्रता की बात कहती है।
‘सावित्रीनामा’ की अधिकांश रचनाएं भारत में सामाजिक न्याय की उपेक्षा और विशाल बहुजन समाज की दुर्दशा पर गंभीर टिप्पणी जैसी हैं। स्वतंत्रता की चाहत में वे कभी अज्ञान को अपना दुश्मन बताती हैं, तो कभी अंग्रेजी माई की प्रशंसा करने लगती हैं–
“अंग्रजी माई हमें ज्ञान सच्चा हमें देती है
मानवता का दूध पिला, शूद्रों को समर्थ कर देती है।” (‘अंग्रेजी माई’)
पुस्तक में फुले के दुर्लभ भाषण हैं। एकदम बेजोड़। आज, स्वतंत्रत भारत के लोकतांत्रिक परिवेश में भी बड़े-बड़े लेखक बुद्धिजीवी जो बात कहने का साहस नहीं जुटा पाते, उन बातों को फुले डंके की चोट और धमाकेदार भाषा में कह रहे थे–
“हमारे इतिहास की बामनों ने पुराणों में जो खिचड़ी पकाई है, उसे जांच-परखकर हमें तय करना होगा कि वह अच्छी है या बुरी। पुराणों की खिचड़ी में चावल किस देश का, दाल किस प्रदेश की। वह अरहर की है या मसूर की। बादाम पिस्ते, मुनक्का, अफगानी हैं या ईरानी। इलायची, गोलमिर्च, जायफल, लौंग जावा-सुमात्रा से लाए गए या यहीं के हैं, मिर्च ताजी हरी वाली है या सुखाई हुई लाल मिर्च। नमक भी इसी देश का हैं या ईरान का, यह हमें परखना होगा… जब भट इस खिचड़ी को खाते हैं तो भूदेव बन जाते हैं, अन्य लोग उसे चखते भी हैं तो उसका सारा जहर उनके शरीर में फैल जाता है।”
अपनी संपूर्ण प्रतीकात्मकता के बावजूद फुले का यह कथन, जितना तब प्रासंगिक था, उतना, बल्कि उससे कहीं ज्यादा आज प्रासंगिक है। बीती डेढ़-पौने दो शताब्दियों में दलित-बहुजन आंदोलन को एक से बढ़कर एक नेता, मार्गदर्शक, दार्शनिक, बुद्धिजीवी मिले। डॉ. आंबेडकर, पेरियार ई.वी. रामासामी, आयोथि थास, डॉ. रामस्वरूप वर्मा आदि लंबी सूची है इस क्षेत्र में काम करने वालों की। लेकिन जब हम दलित-बहुजन आंदोलन; और उसके साथ-साथ, भारतीय समाज के आधुनिकीकरण के लंबे इतिहास के एकदम आदि बिंदु की पड़ताल करना शुरू करते हैं, उस समय सिवाय फुले दंपत्ति के कोई दूसरा नाम नजर नहीं आता। प्रस्तुत पुस्तक में उन महामानवों के मूल रचनाकर्म को सहेजा गया है। इसलिए यह हर उस व्यक्ति के लिए दिशा-निर्देशक और दुर्लभ नगीने जैसी है, जो सामाजिक न्याय के संघर्ष में रुचि रखता है; और उसकी ईमानदार पड़ताल करना चाहता है।
समीक्षित पुस्तक – सावित्रीनामा : सावित्रीबाई फुले का समग्र साहित्यकर्म
लेखिका : सावित्रीबाई फुले
अनुवाद : उज्ज्वला म्हात्रे
प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली
मूल्य : 220 रुपए मात्र
संदर्भ :
[1] जैसे वृक्ष की छाया वृक्ष को छोड़कर दूर नहीं जाती, तैसे ही पतिव्रता स्त्री को स्वामी का आश्रय लेना चाहिए। पतिव्रता स्त्री को स्वतंत्र किसी हालत में न रहना चाहिए। क्योंकि हमारे शास्त्रकारों ने कहा है कि स्त्री को बाल अवस्था में पिता की आज्ञा पालनी चाहिए, तरुण अवस्था में पति की आज्ञा पालनी चाहिए और वृद्ध अवस्था में पुत्र की आज्ञा के विपरीत न चलना चाहिए। सत्यकार्य में पति को बंधु की समान सम्मति दे और दासी के समान उसका आज्ञा पालन करे… स्वामी की प्रसन्नता जिसमें हो, सदा उसी कार्य में तत्पर रहें। इसी में स्त्री का एहिक और पारलौकिक सुख है।
सौजन्य : Forward press
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