फुले साहित्य आज भी समयानुकूल
हाल ही में मैंने फारवर्ड प्रेस, दिल्ली द्वारा प्रकशित जोतीराव फुले की पुस्तक ‘गुलामगिरी’ का हिंदी अनुवाद और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले पर केंद्रित ‘सावित्रीनामा’ पढ़ा। इन दोनों पुस्तकों के पढ़ने के पहले तक मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था कि हमारे देश की एक बड़ी आबादी को केवल इंसानी जीवन बिताने के अपने मूल अधिकार को हासिल करने के लिए विदेशी साम्राज्यवादियों से सहायता मांगनी पड़ी–
कहै जोतिबा अंग्रेजी है मां के दूध समान।
पीकर जिसे पाते कुलीनों के बच्चे अवसर और सम्मान।।
जोतिबा शूद्रों से करते शिक्षा का आह्वान।
शिक्षा से मिलेगा सुख, शांति और समाज में मान।।[1]
सावित्रीनामा में संकलित एक और कविता में यह भाव आया है–
आगे चलकर पेशवाओं का राज आया।
उनके जुल्म उत्पीड़न से शूद्रातिशूद्रों में डर समाया।।
थूकने को लटकाना पड़ता था गले में मृदांड।
पदचिन्ह मिटाने को चलना पड़ता था कमर में झाड़ू बांध।।
और–
“इसके बाद इस देश में अंग्रेज बहादुर लोगों का राज आया। उनसे हमारे दुख देखे नहीं गए। इसलिए इन ब्रिटिश और कुछ अमरीकी लोगों ने हमारे उस कैदखाने में बराबर दखल देना शुरू किया और हमें अत्यंत ही मूल्यवान उपदेश दिया। उन्होंने कहा–
‘अरे भाइयों, आप भी हमारे जैसे इंसान हैं; आपका और हमारा उत्पन्नकर्ता एवं पालनहार एक ही है; आपको भी हमारे जैसे सभी अधिकार मिलने चाहिए; फिर आप इन भटों के अन्यायपूर्ण वर्चस्व को क्यों मानते हैं?
अंग्रेज़ चले गए और अब हमारे देश पर हमारा शासन है। पर क्या इससे शूद्रों की स्थिति में कोई अंतर आया है? शायद आज उनकी स्थिति अंग्रेजों के राज से भी बदतर है। आज भी यदि दलित दूल्हा अपनी बारात घोड़े पर बैठकर ले जाता है तो उसकी टांग खींचकर न सिर्फ उसे उतार दिया जाता है वरन् उसकी पिटाई भी की जाती है। यदि कोई दलित अपनी मां का अंतिम संस्कार गांव के श्मशान में करता है तो मृतिका की अधजली देह को चिता से उठाकर फ़ेंक दिया जाता है।
इस तरह के मेरे कई व्यक्तिगत अनुभव हैं। मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले का एक गांव है– मारेगांव। इस गांव के दलितों ने निर्णय लिया कि वे गांव के मृत पशुओं के शवों को ठिकाने नहीं लगाएंगे। नतीजे में गांव के उच्च जाति के लोगों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया। बहिष्कार में उन्हें रोजगार न देना, दुकानों से सामान न देना, अपनी जमीन से उन्हें गुजरने न देना, उन्हें दूध न बेचना और उनके बच्चों का स्कूल में प्रवेश न देने जैसे अमानवीय निर्णय शामिल थे।
जब हम लोगों को यह पता लगा तो हमने जिले के एक भाजपा विधायक एवं जिले के ही एक कांग्रेस विधायक अर्थात मध्यप्रदेश की दोनों प्रमुख पार्टियों का सहयोग इस बहिष्कार का अंत करवाने के लिए मांगा। लेकिन हमें निराशा हाथ लगी। दोनों ने हमारी मदद नहीं की और बहिष्कार जारी रहा। ऐसी स्थिति अभी भी अनेक गांवों में है। उच्च जाति के अधिकांश लोग दलितों पर अत्याचार का विरोध करना तो दूर रहा, या तो उसका समर्थन करते हैं या उसके प्रति पूर्णतः उदासीन रहते हैं। उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं होती, उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
दूसरी ओर अमेरिका में जब एक अश्वेत नागरिक पर जुल्म होता है तो वहां के गोरे हजारों-लाखों की संख्या में सड़क पर उतर जाते हैं। लेकिन हमारे देश में उच्च जाति के लोग दलितों पर हो रहे अत्याचारों के मूकदर्शक बने रहते हैं, बल्कि अत्याचारियों के समर्थन में खड़े दिखते हैं। जहां तक पुलिस और प्रशासन का सवाल है, उनका रवैया भी ढुलमुल रहता है। जोतीराव फुले, सावित्रीबाई फुले और डॉ. आंबेडकर के बाद इनकी रक्षा के लिए व्यापक स्तरीय आंदोलन या अभियान नहीं हुआ है।
सौजन्य : Forward press
नोट : समाचार मूलरूप से forwardpress.in में प्रकाशित हुआ है| मानवाधिकारों के प्रति सवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित है !