भारत के सवर्णों के लिए क्यों अछूत हैं “सम्राट अशोक”
इस बार आज 29 मार्च 2023 को सम्राट अशोक की जयंती मनाई गई। ऐसे लोगों द्वारा जो अशोक की महानता को, भारत के लिए उनके योगदान को और बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार में उनके योगदान को भूले नहीं है। लेकिन भारत की सरकारों ने उस सम्राट अशोक को अनदेखा कर दिया, जिसके राज्य का चिन्ह आज भी इस्तेमाल होता है। जिसका दिया चक्र, जिसे अशोक चक्र कहा जाता है, भारत के तिरंगे में है। चाहे कांग्रेस की सरकार हो, जनता दल की सरकार हो, गठबंधन की सरकारें रही हों, या अब भाजपा की सरकार हो, भारत की तमाम सरकारों ने अगर सम्राट अशोक को नजरअंदाज कर दिया, तो सवाल उठता है ऐसा क्यों?
पहले बात सम्राट अशोक की। ताकि आप सम्राट अशोक की महानता समझ सकें।
सम्राट अशोक, जिनका जिक्र ईसा पूर्व 304 से ईसा पूर्व 232 को याद करते हुए होता है, भारतीय मौर्य राजवंश के महान सम्राट थे। उनका पूरा नाम देवानांप्रिय अशोक था। उनका राज्य काल ईसा पूर्व 269 से, 232 प्राचीन भारत में था। तमाम स्रोतों के मुताबिक मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट अशोक का साम्राज्य उत्तर में हिन्दुकुश, तक्षशिला की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी, सुवर्णगिरी पहाड़ी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल पाटलीपुत्र से पश्चिम में अफ़गानिस्तान, ईरान, बलूचिस्तान तक पहुँच गया था। सम्राट अशोक का साम्राज्य आज का सम्पूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, के अधिकांश भूभाग पर था, यह विशाल साम्राज्य उस समय तक से आज तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य रहा है।
इसी वजह से सम्राट अशोक को ‘चक्रवर्ती सम्राट अशोक’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है- ‘सम्राटों के सम्राट’। यह स्थान भारत में केवल सम्राट अशोक को मिला है। सम्राट अशोक को बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भी जाना जाता है। इस वजह से आज के बौद्ध समाज में सम्राट अशोक को काफी अहम दर्जा दिया जाता है।
सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़गानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया। सम्राट अशोक अपने पूरे जीवन में एक भी युद्ध नहीं हारे। सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका भेजा।
बावजूद इसके सम्राट अशोक भारत के सत्ताधारियों के बीच अनदेखे हैं। उनकी महानता का जिक्र सत्ता में बैठे लोग नहीं करते। दरअसल भारत की सत्ता में बैठे लोग सम्राट अशोक को एक चक्रवर्ती राजा के तौर पर तो याद करना चाहते हैं, लेकिन वो सम्राट अशोक को ऐसे महान राजा के रूप में याद नहीं करना चाहते, जिसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था और जिनकी वजह से न सिर्फ भारत बल्कि एशिया के कई हिस्से बौद्धमय हो गए। क्योंकि ऐसा करना उनको सूट नहीं करता।
दरअसल सम्राट अशोक और बौद्ध धर्म से उनके जुड़ाव की कहानी ऐतिहासिक कलिंग युद्ध के बाद परवान चढ़ी। हालांकि वो पहले से ही कुछ बौद्ध भिक्खुओं के संपर्क में थे। लेकिन कलिंग युद्ध में जब लाखों लोग मारे गए तो सम्राट अशोक परेशान हो गए। उनका मन मानवता के प्रति दया और करुणा से भर गया। और उन्होंने फिर कभी युद्ध न करने की प्रतिज्ञा की। यहाँ से अशोक के आध्यात्मिक और धम्म जीवन का युग शुरू हुआ। और महान चक्रवर्ती सम्राट ने महान बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया।
अशोक की यही पहचान भारत की सत्ता में एक के बाद एक आने वाले नेताओं और राजनैतिक दलों को रास नहीं आती है। क्योंकि अगर वो सम्राट अशोक का जिक्र करेंगे तो उन्हें अशोक की महानता का जिक्र करना पड़ेगा। उनके शासनकाल में हुए तमाम ऐतिहासिक कामों को याद करना पड़ेगा।
उन्हें बताना पड़ेगा कि सम्राट अशोक के ही समय में 23 विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई थीl जिसमें विश्वविख्यात तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, कंधार, आदि विश्वविद्यालय प्रमुख थे। …. उन्हें बताना पड़ेगा कि सम्राट अशोक के शासन काल को विश्व के बुद्धिजीवी और इतिहासकार भारतीय इतिहास का सबसे “स्वर्णिम काल” मानते थे। उन्हें बताना पड़ेगा कि वह सम्राट अशोक का ही शासनकाल था, जिसमें भारत “विश्व गुरु” था और सोने की चिड़िया कहलाया। जनता खुशहाल थी, लोगों के बीच कोई भेदभाव नहीं था।
आज की सरकारों को बताना पड़ेगा कि सम्राट अशोक के ही शासनकाल में सबसे प्रख्यात महामार्ग “ग्रांड ट्रंक रोड” जैसे कई हाईवे बने। लोगों के ठहरने के लिए सरायें बनायीं गईं थी। मानव तो मानव सम्राट अशोक के शासन में पशुओं के लिए भी पहली बार “चिकित्सालय” (हॉस्पिटल) खोले गएl पशुओं को मारना बंद करा दिया गया।
लेकिन मैंने जैसा कहा कि यह भारत की सत्ता में बैठे लोगों को सूट नहीं करता। क्योंकि जब वो अशोक का जिक्र करते हुए उनकी महानताओं का जिक्र करेंगे तो सवाल उठेगा कि अब अशोक जैसा शासन क्यों नहीं है? सवाल उठेगा कि फिर जब सम्राट अशोक के समय भारत बौद्धमय था, तो फिर बौद्ध धर्म कैसे खत्म हो गया। और इस सवाल का जवाब देने में कई लोगों के नकाब उतर जाएंगे। कई ऐसे लोगों का नाम आएगा, इतिहास कुरेदा जाएगा। भारत की सरकारें उस इतिहास को दबाए रखना चाहती है।
तब बात बौद्ध धर्म की भी आएगी। भारत के सत्ताधारियों को बताना पड़ेगा कि मगध साम्राज्य जिसके सम्राट अशोक थे, का इतिहास, भारत का इतिहास रहा है। उन्हें बताना पड़ेगा कि सम्राट अशोक ने अपने साम्राज्य के हर कोने में शिलालेखों, स्तंभलेखों सहित अन्य अभिलेखों के जरिये आम लोगों को नैतिक के अलावे जीवन की बेहतरी की शिक्षा दी। बताना पड़ेगा कि अशोक के दो लघु शिलालेख, 14 वृहद शिलालेख, 07 स्तंभ लेख, तीन गुफा लेख, चार लघु सतंभ लेख, दो स्मारक स्तंभ लेख मिले हैं। इन अभिलेखों के कई संस्करण अलग-अलग जगहों पर उत्कीर्ण करवाए गए हैं।
उन्हें बताना पड़ेगा कि सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए 84 हजार बौद्ध स्तूप बनवाएं। बस बात यहीं आकर रूक जाती है। क्योंकि हिन्दू राष्ट्र बनाने की होड़ में अशोक का बौद्ध प्रेम एक बड़ी बाधा है।
इसलिए भारत की सत्ता में बैठे लोग अशोक काल में उकेरे गए प्रतीतात्मक चिह्न, जिसे हम ‘अशोक चिह्न’ के नाम से जानते हैं और जो आज भारत का राष्ट्रीय चिह्न है, उसका तो इस्तेमाल करेंगे। वो सम्राट अशोक के राज चिन्ह “अशोक चक्र” को अपने भारतीय ध्वज में तो लगाएंगे। वो सम्राट अशोक के राज चिन्ह “चारमुखी शेर” को भारतीय “राष्ट्रीय प्रतीक” तो मानेंगे, देश में सेना का सबसे बड़ा युद्ध सम्मान, सम्राट अशोक के नाम पर “अशोक चक्र” तो देंगे, लेकिन भारत के सम्राट अशोक को याद नहीं करेंगे।
यह हैरान करने वाली बात है कि जिस सम्राट अशोक से पहले या बाद में कभी कोई ऐसा राजा या सम्राट नहीं हुआ जिसने “अखंड भारत” पर एक-छत्र राज किया हो। और जिसके नाम के साथ दुनिया भर के इतिहासकार “महान” शब्द लगाते हैं। उन्हीं के देश में उनकी जयंती नहीं मनाई जाती और ना ही कोई सार्वजानिक अवकाश रहता है।
जरा सोचिए, अगर सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म नहीं अपनाया होता तो भी क्या भारत की सरकार और आजादी के बाद से अब तक सत्ता में बैठे लोग उन्हें इस तरह अनदेखा करते? शायद नहीं। सरकारें भले सम्राट अशोक को भुला देना चाहती हों, लेकिन भारत का अंबेडकरवादी समाज अपने उस सम्राट को आज भी आदर देता है, वही है जो अशोक जयंती पर कार्यक्रम करता है, सम्राट अशोक को याद करता है। भारत को, भारत की सरकार को भी अपने इस महान सम्राट को वह सम्मान देना होगा, जिसके वह हकदार हैं। इसके लिए आवाज उठाने का वक्त आ गया है।
सौजन्य : Dalit dastak
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