भीमा कोरेगांव युद्ध : जानें 205 साल पुरानी इस लड़ाई के बारे में सबकुछ
कोरेगांव की लड़ाई 1 जनवरी 1818 में पेशवाओं तथा अंग्रेजों के बीच हुई थी. इस युद्ध में कई सारे दलित वीरों ने अपनी जान गवाई थी. लेकिन इस पूरे वाकये को आप सरसरी निगाह से पढेंगे तो आप चौक जाएंगे क्योंकि आपके लिए एक बार में ये अंदाजा मुश्किल हो जाएगा कि आखिर लड़ाई अंग्रेजों ने हमारे खिलाफ लड़ी या फिर दलितों ने सवर्णों के खिलाफ. यहाँ युद्ध दलितों ने अंग्रेजो के साथ मिलकर महाराष्ट्र के मराठाओ के खिलाफ अपने आत्मसम्मान के लिए लड़ा.
कोरेगांव की लड़ाई में दलित वर्ग के लोग ब्रिटिश शासन (अंग्रेजों) के पक्ष से लड़े क्योंकि मराठा वर्ग के पेशवाओं ने दलित समुदाय के लोगों के साथ काफी बुरा व्यवहार किया. हर साल 1 जनवरी को भीमा कोरेगांव में दलित समुदाय के लोग काफी बड़ी संख्या में इकट्ठे होते हैं और उन दलित वीरों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. आइए इस लेख के माध्यम से हम कोरेगांव की लड़ाई और इसके बारे में विस्तार पूर्वक जानते हैं.
भीमा कोरेगांव युद्ध की शुरुआत
यह युद्ध महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में 1 जनवरी 1818 को पेशवाओं तथा ब्रिटिश इंडिया कंपनी के बीच हुआ. भीमा कोरेगांव भीमा नदी के किनारे बसा एक गांव है. इस युद्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सिर्फ 800 सैनिक थे, जिनमे महार समुदाय के लोग थे तथा इनके दिलों में जातिवाद तथा छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों को हराने का जज्बा था, जिसकी वजह से महार सैनिक अपनी जान की परवाह किए बिना ही इस युद्ध में शामिल हुए.
कई सैनिक घायल हुए और कुछ सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए लेकिन इन महार सैनिकों ने हार नहीं मानी. आखिरकार कोरेगांव की लड़ाई में महार सैनिकों की जीत हुई. 1 जनवरी 1818 को मल्हार सैनिकों ने मराठा साम्राज्य के पेशवा गुट को हराकर भारत देश को छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों को मिटाने के लिए अपना एक कदम बढ़ाया.
क्या थी भीमा कोरेगांव युध की वजह?
कोरेगांव का युद्ध समाज में व्याप्त अस्पृश्यता, बुराइयों तथा दलित वर्ग के प्रति बुरा व्यवहार की वजह से ही जन्मा था. दरअसल, ये वो था जब समय पेशवा के शासनकाल में शुद्र वर्ग के लोगों को अपने साथ गले में एक हांडी लटकाए घूमना पड़ता था. ताकि जब इन्हें थूकना हो तो इसी हांडी में थूकें.
कमर में झाड़ू बांधनी पड़ती थी ताकि जो भी शूद्र लोग जहां से भी जाएं, इनके पंजों के बने हुए निशान साफ होते जाएं क्योंकि उनके कुछ महाशयों का मानना था कि अगर इनके पैरों के निशान पर सवर्णों का पैर पद गया तो वो अपवित्र हो जाएंगे. .
अब ऐसी प्रथा के खिलाफ समाज का एक तबका आखिर कब तक अपने ही राज्य में बहिष्कृत होता रहता. जहां अंग्रेज एक तरफ ज्यादातर राज्य अपने कब्ज़े में करना चाहते थे तो इन्हें भी समाज में अपना सम्मान वापस और इन कुप्रथाओं से निजात पाना था.
अंग्रेजों ने अपनी नीति को पूरा करने के लिए गायकवाड़ (बड़ौदा) तथा पेशवा (पुणे) के मध्य राजस्व से संबंधित विवाद करवाने में जुट गए और इसी के चलते कंपनी के पेशवा बाजीराव द्वितीय 1817 में अंग्रेजों को एक बड़ा हिस्सा देने के लिए मजबूर हो गए थे. और ऐसा होते होते ये यह विवाद काफी ज्यादा बढ़ता गया और बाद में इस विवाद का परिणाम यह निकला कि अंग्रेजों के साथ मिलकर महारों और पेशवा के बीच कोरेगांव का युद्ध हुआ ..
इस युद्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के मात्र 800 सैनिक और मराठा साम्राज्य के पेशवा गुट के 28000 सैनिकों ने भाग लिया था. लेकिन इस युद्ध में अंग्रेजों की जीत हुई थी. इस युद्ध में जिन दलित वर्ग के सैनिकों ने लड़ते हुई अपनी जान गवाई थी, उन मल्हार सैनिकों के सम्मान में सन 1822 में भीमा नदी के तट पर काले पत्थरों के द्वारा एक रणस्तंभ को बनाया गया. इस रणस्तंभ में हर साल इन दलित वीरों की याद में 1 जनवरी को इस युद्ध की वर्षगांठ मनाते हैं तथा इन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं..
युध का महत्व और दलित समाज पर इसका असर
कुछ इतिहासकार बताते हैं कि, यह युद्ध पेशवा फौज व महारों के बीच हुआ. यह युद्ध अंग्रेजो के खिलाफ भारत के शासकों का युद्ध था. जबकि कुछ ये बताते हैं कि मल्हार सैनिकों के लिए यह युद्ध अंग्रेजों का नहीं बल्कि अस्मिता तथा छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों की लड़ाई थी. इस युद्ध में करीब 600 लोगों की मृयु हुई थी.जानकी कई सारे लोग लापता थे जिनकी संख्या करीब 275 के आसपास थी जिन्हें बाद में मृत घोषित कर दिया गया. इन सभी महार सैनिकों की याद में एक स्तंभ का निर्माण किया गया. इस चौकोर मीनार को कोरेगांव स्तंभ भी कहते हैं.
यह कोरेगांव स्तंभ महार सैनिकों के साहस का परिचय देता है. इस कोरेगांव स्तंभ पर उन महान सैनिकों के नाम लिखे हुए हैं, जो इस लड़ाई को लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे. इस कोरेगांव स्तंभ में उन 49 सैनिकों के नाम दर्ज है जो इस युद्ध को लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे जिनमें 22 दलित वर्ग के लोग है.
इन सैनिकों को सन 1851 में सम्मानपूर्वक मेडल दिया गया इस युद्ध के बाद मराठा साम्राज्य के पेशवा गुट का पतन हो गया और भारत देश पर शासन अंग्रेजों का हो गया. जिसके चलते अंग्रेज सरकार ने भारत देश में शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया..
सौजन्य : Nedricknews
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