चैती बरसात ने तोड़ी दलित-बहुजन किसानों की कमर
हाल के दिनों में पूरे उत्तर भारत में चैत के महीने में बेमौसम बरसात ने दलित-बहुजन किसानों पर कहर बरपाया है। इनमें अधिकांश वे किसान हैं जो छोटे व सीमांत हैं। इनमें उनकी संख्या भी कम नहीं है जो भूमिहीन होने के बावजूद आय के अन्य विकल्प नहीं होने के कारण बटाई पर खेती करते हैं।
“… सब नाश कइ दिहेस” – बाहर झमाझम होती बारिश देख ईश्वर को गरियाते एक बटाईदार किसान की इस गाली में उसकी अथाह पीड़ा निहित है। बस उसकी आंखों से आंसू नहीं निकले पर मन ज़ार ज़ार रो रहा है। भगवान को गारियाने वाला यह किसान संझा सवेरे दोनों जून एक-एक घंटे नित्य पूजा-पाठ करने वाला घोर आस्तिक है। जिसकी वह सुबह-शाम पूजा करता आया है, उसे वो अचानक गरियाने लगे तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस किसान को कितना भारी नुकसान हुआ है। चैत के महीने में बारिश ने फसल पर ही नहीं, इस किसान के पूरे छह महीने की कमाई और निवेश पर पानी फेरा है। तबाही के ये मंजर पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले (पूर्व में इलाहाबाद) के फूलपुर, सहसो और झूंसी आदि तहसीलों में भी देखे जा रहे हैं।
आंधी, बारिश और ओला की दोहरी मार ने पूरी तरह से कृषि पर निर्भर किसानों की कमर तोड़ दी है। सरसों और गेहूं की फसल पककर तैयार होने में क़रीब 15-20 दिन का फ़र्क़ होता है। गत 18 -19 फरवरी को जबर्दस्त ओला गिरने से पहले सरसों की खेत में खड़ी फसल से सारी सरसों झर गयी। फिर जब गेहूं पककर कटने के लिए तैयार ही हो रहा था कि दोबारा 28-31 मार्च को हुई भारी बारिश ने गेहूं की फसलों को भारी नुकसान पहुंचाया है। वहीं अख़बारों में फसल बीमा योजना और फसल नुकसान के मुआवजे का सरकारी झुनझुना ख़ूब बज रहा है, लेकिन ज़मीनी हक़ीकत इस दावे के ठीक उलट है।
कई दिनों बाद खिले धूप में गेहूं कटाई में जुटी राजवंती गेंहू की फसल दिखाते हुए कहती हैं –“बालियां करियाय (काली हो) गयी हैं। बेंचै पे बहुतै कम दाम मिलिंहें।” राजवंती बताती हैं कि इस साल गेहूं के सीजन में एक भी बार बारिश नहीं हुई और ठंड की मियाद भी बहुत कम रही। इससे गेहूं के दाने पहले से ही छोटे और कमज़ोर पड़े। ऊपर से यह बारिश कोढ़ में खाज बनकर आयी। पंद्रह दिनों में दो बार हुई बारिश के चलते गेहूं की सूखी बालियां काली पड़ गई हैं। बाज़ार में अब ये कौड़ियों के भाव बिकेंगीं। राजवंती बटाई पर खेती करती है।
गुड्डन के पति की पिछले साल 3 बीघे खेत लीज पर लिया था। लेकिन धान की फसल के समय डेंगू से उनकी मौत हो गई। जबकि लीज की मियाद रबी की फसल तक थी। चूंकि क्षेत्र में छुट्टा आवारा सांड़ों और गायों का बहुत उत्पात है और पति भी गुजर चुके हैं तो रखवाली कौन करेगा, यही सोचकर गुड्डन ने पूरे 3 बीघे खेत में सरसों की बुआई कर दिया। लेकिन ओला गिरने से पूरी फसल खेत में चौपट हो गयी। कितने पैसे देकर लीज पर लिया था पूछने पर गुड्डन कहती हैं– “रुपिया पैसा न पूछा भैय्या।”
तुलापुर गांव के मोहन लाल की फसल बारिश होने से ठीक एक दिन पहले ही काटी गयी थी। वो अपने खेत की गेहूं की बालियां दिखाते हैं, जो कि पानी पड़ने से सड़ गयी हैं। मोहन लाल कहते हैं इस साल गेंहू सरसों के साथ साथ भूसे की भी किल्लत होगी। यह पूछने पर कि बारिश से हुए नुकसान के मुआवजे के लिए आपके गांव का भी सर्वे हुआ है, मोहन लाल बताते हैं कि उनके गांव में तो ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्या आप लोगों ने विभाग और बीमा वालों को सूचित नहीं किया था? इस सवाल के जवाब में मोहन लाल बताते हैं कि –“आधा तो दयू (दई) ने बर्बाद कर दिया और आधा अपने से बर्बाद करवाना हो तो उन्हें बताओ।”
मुहावरे की भाषा में नहीं समझा ज़रा सही से बताइये। आग्रह करने पर मोहन लाल जी बताते हैं कि इसे इस तरह समझिए कि 18 फरवरी को ओले गिरे सरसों की कड़ी फसल छिनगाय छितराय उठी। लेकिन पूरा का पूरा झर गयी हो, ऐसा भी नहीं है। मान लीजिये कि 30 प्रतिशत बच गया है। आप अपने नुकसान की सूचना उनको देंगे तो वो हफ्ते भर में आएंगे। जबकि सरसों ऐसी फसल है कि पकने के बाद दो दिन भी पेड़ में नहीं टिक सकती है। धूप लगते ही खुद ब खुद फली चटक जाएगी और सरसों नीचे झर जाएगा। तो जो 30 प्रतिशत बचा है उसे बचाने में समझदारी है कि उनके सर्वें के लिए हफ्ते भर फसल को और छोड़कर वो 30 प्रतिशत भी गंवा देने में। और फिर वो जब आएंगे तो क्या रिपोर्ट लगाएंगे कितना मुआवजा मिलेगा या कि नहीं मिलेगा यह किसे पता।
बटाईदारों को नहीं मिलता कृषि योजना का कोई फायदा
गांवों में रहने वाले अधिकांश दलित-बहुजन समुदाय के किसानों के पास खेत या तो नहीं है या नाम मात्र का है। उनके पास उच्च शिक्षा और तकनीकी कुशलता भी नहीं है। ऐसे में इस समाज के बहुतायत परिवारों का जीवन खेती-किसानी पर निर्भर है। ये लोग सालाना एक मुश्त पैसे चुकाकर बड़े किसानों और संपन्न लोगों के खेत दो तूर (रबी और खरीफ) के लिए लीज पर लेते हैं। वहीं मझोले किसान, सवर्ण किसान अपने खेतों को बटाई पर देते हैं। बटाई पर देने का मतलब होता है कि खाद, पानी, दवाई, बीज दोनों का आधा-आधा होगा। जबकि जुताई निराई, कटाई, मड़ाई का श्रम या पूंजी अधियार या बटाईदार वहन करेगा। और जो फसल पैदा होगा उसमें खेत मालिक और बटाईदार आधा-आधा बांट लेंगे। इस तरह लीज और बटाई पर खेत लेकर खेती करने वाले दलित-बहुजन किसानों का नाम राजस्व विभाग के आंकड़ों में दर्ज़ ही नहीं होता। सोसायटी में यूरिया डीएपी लेने के लिए भी आधारकार्ड के साथ साथ जोतबही दिखाना पड़ता है। जाहिर है जिनके नाम खेत ही नहीं है, उनकी फसलों का कृषि बीमा भी नहीं होगा। और जब कृषि बीमा ही नहीं होगा तो फसल नुकसान का मुआवजा भी नहीं मिलेगा।
फसल बीमा नुकसान भरपाई की प्रक्रिया
साल 2016 में शुरु किया गया प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत किसानों को फसल खराब होने के 72 घंटे के भीतर संबंधित बीमा कंपनी को सूचना देना होता है। ऐसा न करने पर बीमा कंपनी क्लेम नहीं देती है। इसके बाद क्लेम के लिए फॉर्म भरना होता है, जिसमें फसल खराब होने का कारण, कौन सी फसल बोयी थी, किस क्षेत्र में फसल खराब हुई, ये सारे ब्यौरे भरने होते हैं। बीमा पॉलिसी की एक कॉपी ज़मीन के कागज आदि के साथ अटैच करने होते हैं। आवेदन करने के बाद बीमा कंपनी के प्रतिनिधि और राजस्व विभाग के अधिकारी कुछ दिन में नुकसान का आकलन करने के लिए खेत का निरीक्षण करने जाते हैं।
मेड़ुआ गांव के एक किसान बताते है कि कृषि लोन लेने के कारण हर साल ग्रामीण बैंक खाते से कृषि बीमा के नाम पर पैसे आप से आप कट जाते हैं, लेकिन पिछले चार साल में कई बार धान और सरसों की फसल बर्बाद हुई। बहुत हाथ-पांव मारने के बाद भी कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई। मुआवजा मिलना तो दूर, कोई झांकने तक नहीं आया।
जो कर्ज़दार है वही बीमाधारक है
उत्तर प्रदेश में क़रीब 2.35 करोड़ किसान हैं, जिनमें केवल 10 प्रतिशत किसानों यानि 20-25 लाख किसानों को ही बीमा योजना का फायदा मिलता है। अमूमन किसानों में फसल बीमा कराने की चेतना नहीं है। केवल उन्हीं किसानों का फसल बीमा हुआ है या होता है, जिन्होंने ग्रामीण बैंक से कृषि लोन ले रखा है। क़र्ज़दार किसानों के लिए अनिवार्य बीमा बैंक इसलिए कर देती है ताकि बैंक का पैसा न ड़ूबे। कृषि लोन उन्हीं किसानों को मिलता है जिनके पास खेती के लायक ठीक-ठाक ज़मीन हो और खसरा खतौनी पर उनका नाम चढ़ा हो।
साल 2022 में रबी फसल के लिए 19.50 लाख किसानों ने बीमा कराया था। जबकि खरीफ के अंतर्गत बोयी जाने वाली फसलों के लिए 21.37 लाख किसानों ने फसल बीमा कराया था। और कंपनियों ने इन किसानों से 781 करोड़ की प्रीमियम वसूला था। अक्टूबर महीने में बारिश से धान की फसलों को बहुत नुकसान हुआ तो बीमा कंपनियों द्वारा 597 करोड़ रुपये क्षतिपूर्ति के तौर पर किसानों के खाते में बीमा सुरक्षा के तहत भेजा गया था।
बता दें कि प्रधानमंत्री बीमा योजना राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना और संशोधित राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना को हटाकर लाया गया है, जिसमें किसान के व्यक्तिगत नुकसान की जगह ब्लॉक या गांव को इकाई मानकर नुकसान का आकलन किया जाता है। बता दें कि उत्तर प्रदेश में चार कंपनियों एचडीएफसी, इफको टोकियो, यूनिवर्सल सोपो और एग्रीकल्चर इंश्योरेंस का टेंडर प्रधानमंत्री बीमा योजना के लिए पिछले तीन साल से नामित चला आ रहा है। लेकिन 31 मार्च 2023 को इनकी मियाद खत्म हो गई है।
सौजन्य : Forward press
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