मंदिर-प्रवेश का आंदोलन बहुत हुआ, अब ज्ञान-संस्कृति, न्याय और संपत्ति के मंदिरों में प्रवेश करने की जरूरत
आज शायद ही कोई प्रमुख मंदिर मिलेगा, जहां जहां जाति के आधार पर किसी हिंदू को सीधे तौर पर प्रवेश न करने दिया जाता हो, बेशक गर्भगृह में प्रवेश पर कई जगह पाबंदी लागू हो (दिलीप मंडल)
वायकोम सत्याग्रह (1924-25) भारत में सामाजिक लोकतंत्र और समता स्थापित करने के लिए चले दीर्घकालिक संघर्ष का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. इस आंदोलन में शामिल लोगों में टी.के. माधवन, इवी रामासामी पेरियार, मोहनदास करमचंद गांधी और सबसे बढ़कर नारायणा गुरु प्रमुख थे. तब के त्रावणकोर और वर्तमान केरल राज्य के कोट्टायम शहर के वायकोम शिव मंदिर के पास से गुजरने वाली सड़कों पर उस दौर में पिछड़ी और अनुसूचित जातियों के लोगों को गुजरने की इजाजत नहीं थी. इस पाबंदी को धार्मिक आधार बनाकर लागू किया गया था. ये सत्याग्रह दो साल तक चला और आखिरकार सड़क सभी जातियों के लिए खोल दी गईं. 1936 में पूरे त्रावणकोर राज्य में हिंदुओं की सभी जातियों के लिए मंदिर खोल दिए गए|
सवाल उठता है कि क्या वायकोम सत्याग्रह ने अपने सारे लक्ष्य पूरे कर लिए? इसका जवाब हां और न दोनों हो सकता है. इस तरह के देश भर में चले सैकड़ों आंदोलनों की वजह से मंदिर प्रवेश में होने वाली छुआछूत काफी हद तक कम या खत्म हो चुकी है. आज शायद ही कोई प्रमुख मंदिर मिलेगा, जहां जहां जाति के आधार पर किसी हिंदू को सीधे तौर पर प्रवेश न करने दिया जाता हो, बेशक गर्भगृह में प्रवेश पर कई जगह पाबंदी लागू हो. लेकिन वायकोम आंदोलन का विराट लक्ष्य अगर समाज में समता लाना और खासकर अवसरों की समानता सुनिश्चित करना था, तो वह लक्ष्य अभी अधूरा है|
इस संदर्भ में मेरा सुझाव है कि हिंदुओं की वंचित और शोषित जातियों को अब मंदिर प्रवेश का आंदोलन बंद कर देना चाहिए. बल्कि इसकी जगह उनका ध्यान सत्ता और संपत्ति के उन स्रोतों की तरफ जाना चाहिए, जहां वे या तो गायब हैं या बेहद कम संख्या में हैं|
वायकोम समेत तमाम मंदिर प्रवेश आंदोलनों की एक बड़ी समस्या ये रही कि इन आंदोलनों ने खुद को मंदिर जाने और पूजा पाठ करने की मांग तक खुद को सीमित रखा. तमिलनाडु को छोड़कर कहीं भी इन आंदोलनों ने सभी जातियों से पुजारी बनाने या मंदिर के संचालन में हिस्सेदारी लेने की मांग नहीं की. 1924-25 में तो इस मांग के बारे में शायद सोचा भी नहीं जा रहा होगा. हिस्सेदारी का सवाल तब मंदिर प्रवेश तक ही सीमित था|
अब अगर मंदिर प्रवेश की कोई मांग होती है तो उसमें मंदिर कमेटियों और ट्रस्ट आदि में हिस्सेदारी और पुजारी बनने के अधिकार की मांग को जोड़ देना चाहिए. वरना ये दान-दक्षिणा देने के अधिकार तक सीमित रह जाएगा. ऐसा भी नहीं है कि मंदिरों में भेदभाव पूरी तरह खत्म हो गया है. खासकर पुजारी बनने के सवाल पर हिंदू समाज अब भी पुरानी लीक से हटने के लिए तैयार नहीं है. सबरीमला मंदिर में पुजारी नियुक्ति के विवाद में ये बात फिर से सामने आई है|
सौजन्य : hindi.theprint.in
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