14 साल की उम्र में शादी, 12 साल बाद अलग हुई; 1000 बच्चों को स्कूल से जोड़ चुकी
आदिवासी परिवार में पैदा हुई। पापा बंधुआ मजदूर थे। 6 बहनों में सिर्फ मैंने 8वीं तक पढ़ाई की। स्कूल जाती, तो सवर्ण जाति के लड़के छेड़ते। वे पापा से कहते- दलित आदिवासी होकर बेटी को पढ़ा रहे हो। मस्टराइन (टीचर) बनाओगे क्या। गाय-बकरी चराएगी, हमारे यहां काम-धंधा करेगी, तो पैसे भी मिलेंगे।
14 साल की हुई, तो हैजा से मां की मौत हो गई। पापा डरने लगे कि जवान बेटी घर में बिन मां के रहेगी, तो दबंग उसके साथ कुछ गलत कर देंगे। उन्होंने मेरी शादी 24 साल के दिहाड़ी मजदूरी से करा दी। ससुराल आई, तो पति जानवर की तरह पीटने लगा। मैं कई-कई दिनों तक बेड से नहीं उठ पाती। 12 साल तक इस बर्बरता को झेलती रही। उसके बाद पति से अलग हो गई।’
ये कहानी है मध्य प्रदेश के रीवा जिले की रहने वाली सिया दुलारी की। सिया आदिवासी महिलाओं और बच्चों के लिए काम करती हैं। उन्होंने 50 गांवों के 1000 से ज्यादा बच्चों को स्कूल पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई हैं।
ये वो बच्चे हैं जिनकी पढ़ाई छूट गई थी। साथ ही सिया ने 1400 से ज्यादा लोगों को ‘आदिवासी वन अधिकार कानून’ के तहत रहने और खेती करने के लिए जमीन का पट्टा भी दिलाया है।
42 साल की सिया ‘रेवांचल दलित आदिवासी सेवा संस्था’ चलाती हैं। सिया जिन इलाकों में काम करती हैं, वहां कोल आदिवासी समुदाय के लोग सबसे ज्यादा रहते हैं। करीब 10-15 गांव में पिछले तीन-चार सालों में ऐसे भी मामले आए हैं, जहां गरीबी की वजह से आदिवासी लोग अपनी बेटियों को बेचने पर मजबूर हुए हैं।
सिया बताती हैं, ‘जिन लोगों की शादी नहीं होती है। अधेड़ उम्र के मर्द इन लड़कियों को 80 हजार से एक लाख रुपए में खरीदकर ले जाते हैं। ये लोग दूसरे राज्यों के होते हैं। कुछ साल पहले एक आदिवासी परिवार ने अपनी 17 साल की लड़की को उत्तर प्रदेश के एक परिवार के हाथों बेचा था। लड़का 40 साल का था। उसके तीन बच्चे थे।
जब मुझे इसके बारे में पता चला तो, मैंने यूपी और एमपी पुलिसी की मदद से एफआईआर दर्ज करवाई। लड़के को जेल हुई। लड़की को छुड़वाया। आज वो लड़की अपनी पसंद के लड़के से शादी करके रह रही है। सिया ऐसे आधे दर्जन मामले को रोकने में कामयाब रही हैं।’
सिया के माथे पर सिर्फ एक बिंदी है। हाथ में कांच की एक-एक चूड़ी पहन रखी हैं। सिया कहती हैं, ‘विधवा होने पर औरतों की चूड़ियां तोड़ी जाती है। सिंदूर नहीं लगाती हैं। मेरे पति जिंदा हैं, फिर भी मैं विधवा की तरह रहती हूं।
एक रोज पति ने लाठी-डंडे से पिटाई करते हुए सारी चूड़ियां तोड़ दी। बिंदी नोचकर फेंक दिया। साड़ी को आग में जला दिया। कहा- तुम कभी मेरे नाम का सिंदूर मत लगाना। तभी से मैं ऐसे ही रहती हूं। बाद में जब लोगों ने ये कहना शुरू किया कि कुछ भी हो, पति तो मेरा जिंदा है न… तब से बस एक बिंदी लगाती हूं।’
सुबह के करीब 10 बज चुके हैं। सिया की संस्था में काम करने वाले स्टाफ आने लगे हैं। सिया कहती हैं, ‘अभी मेरे साथ 15 लोगों की टीम काम कर रही है। कभी मैं किसी संस्था में 300 रुपए महीने पर काम करती थी। आज फिर आदिवासी इलाकों में जाकर पोषण को लेकर सर्वे करना है। एक बड़ी NGO के साथ हम इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं।’
सिया अपने शुरुआती दिनों के बारे में बताती हैं, ‘मुझे याद है जब मैं स्कूल जाती थी, तो गांव के सवर्ण बच्चे आगे-आगे चलते थे। मैं पीछे चलती थी, ताकि ये लोग मुझसे छुआ न जाएं। कभी गलती से भी इन लोगों से आगे निकल जाती, तो साथ में चल रहे टीचर थप्पड़ जड़ते हुए कहते- तुम्हें बहुत आगे निकलने की पड़ी है।
दूसरी क्लास तक घर से 3 किलोमीटर दूर दूसरे गांव में पढ़ने जाती थी। यह सवर्ण जाति का गांव था। ये लोग हम दलित आदिवासी लड़कियों को छेड़ते थे। गंदी नजरों से देखते थे। इसलिए भी पापा पढ़ने के लिए मना करते थे। इसी वजह से बड़ी बहनें नहीं पढ़ पाईं। वो जमीनदारों के यहां मिट्टी काटने जाती थीं, लेकिन मुझे पढ़ना था।
जब मैं पढ़ने के लिए जाती, तो सवर्ण जाति के लोग पापा को ताना मारकर कहते- क्यों भाई, बेटी को मस्टराइन बनाओगे। पापा जवाब में सिर्फ इतना बोल पाते- नहीं साहेब, मस्टराइन न बनिहे, त अपन नाव-गांव त लिखे के जनिहे (नहीं साहब, ये टीचर भले ही न बने, लेकिन अपना नाम और गांव तो लिखना सीख जाएगी)।
एक साल बाद मेरे गांव में भी स्कूल खुल गया, लेकिन यहां कोई बिल्डिंग नहीं थी। नीम के पेड़ के नीचे पढ़ाई होती थी। यहीं से मैंने 8वीं तक पढ़ाई की। गांव में छुआछूत का ये आलम था कि जिस अनाज को मेरे घरवाले खेत से तैयार कर जमींदारों के यहां पहुंचाते थे। घर के अंदर जाने के बाद हम उसी अनाज को नहीं छू सकते थे।’
कहते-कहते सिया की आंखें भरने लगती हैं। उन्हें मम्मी-पापा की याद आ रही है, लेकिन उनके पास कोई तस्वीर नहीं है। सिया कहती हैं, ‘बचपन से ही मां से कहती थी कि मुझे टीचर बनना है। आदिवासी बच्चों को पढ़ाना है, लेकिन 14 साल की उम्र में ये सपना भी टूट गया।
90 के दशक की बात है। गांव में हैजा फैला था। आदिवासी लोग सबसे ज्यादा इसकी गिरफ्त में थे। एक दिन मां जमींदारों के यहां धान पीटने गई थी। वहां से लौटी, तो उन्हें भी हैजा ने जकड़ लिया। उल्टी और दस्त होने लगा। एक हफ्ते के भीतर मां की मौत हो गई। पापा ने मेरी और छोटी बहन की शादी एक ही दिन, एक ही मंडप पर कर दी। दो गांव से बारात आई थी। बहन महज 12 साल की थी।’
आपके पास पति की कोई तस्वीर है?
सिया कुछ सेकेंड तक मेरी तरफ देखती रहती हैं। कहती हैं, ‘देखना पड़ेगा…।’
काफी देर तक ढूंढने के बाद सिया एक ब्लैक एंड वाइट पासपोर्ट साइज की तस्वीर दिखाती हैं। वो कहती हैं, ‘जब मैं ससुराल आई, तो पति चाहता था कि मैं घर के भीतर ही रहूं। घूंघट करूं। किसी से बात न करूं। कई-कई किलोमीटर मटके में पानी भरकर माथे पर रखकर लाती थी।
मेरी उम्र थी। सिर पर और कमर के सहारे मटका नहीं उठा पाती थी। वो गिरकर टूट जाते थे। इस वजह से भी पति मेरी पिटाई करता था।
2000 की बात है। बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था CRY (चाइल्ड राइट्स एंड यू) के कुछ मेंबर गांव आए थे। मैं घर की चौखट से कान लगाए इन लोगों की बात सुन रही थी। ये लोग आदिवासी समुदाय की महिलाओं, बच्चों को लेकर बातचीत कर रहे थे।
मुझे लगा कि इनके साथ काम करना चाहिए। एक दिन पति को बिना बताए मैं इन लोगों से जाकर मिली। फिर इस टीम के साथ गांव-गांव जाकर काम करने लगी। मेरा काम कुपोषित बच्चों का सर्वे करना था। पति को जब पता लगा तो वे लड़ाई करने लगे।’
सिया कहती हैं, ‘दो-तीन साल काम करने के बाद एक एनजीओ ने 300 रुपए महीने की सैलरी पर मुझे रख लिया। मैं कई-कई दिनों तक ट्रेनिंग के लिए बाहर रहती थी। इस वजह से पति को शक होने लगा कि मेरा किसी और के साथ अफेयर है।
8वीं पास लड़की क्या ही समझ पाती। मैंने आगे की पढ़ाई के लिए एडमिशन लेने की बात पति को बताई। वो सुनते ही आग-बबूला हो गए। बोले- तीन बच्चों की मां होकर पढ़ोगी। घर से बाहर जाओगी। उसने मार-मारकर मुझे लहूलुहान कर दिया।
मैंने ठान लिया था कि मुझे पढ़ना है। मैंने एडमिशन ले लिया। काम के साथ-साथ 10वीं, 12वीं और फिर ग्रेजुएशन किया। इसके बाद मैंने पति को छोड़ने का फैसला किया। उस वक्त मेरे 3 बच्चे थे।’
फिर खुद का एक NGO शुरू किया। सिया कहती हैं, ‘आदिवासी महिलाओं में शोषण के मामले भी सबसे ज्यादा आते हैं। अब थोड़ी-बहुत स्थिति बदली है। क्योंकि, ये लोग बिल्कुल भी पढ़ना-लिखना नहीं जानते हैं, अनपढ़ होते हैं।
जब मैंने आदिवासी महिलाओं के लिए काम करना शुरू किया, तो शुरुआत में लोगों ने विरोध भी किया। उनका कहना था- अपना घर तो बसा नहीं पाई। अब हम लोगों का घर बसाने चली है। धीरे-धीरे जब प्रशासन, ब्लॉक ऑफिसर्स, बड़ी-बड़ी NGO के साथ मिलकर मैंने काम करना शुरू किया, लोगों को इससे बदलाव दिखने लगा, तब सभी सपोर्ट करने लगे।’
सिया बताती हैं कि आदिवासी परिवार के लोग घरों से बाहर कमाने के लिए जाते हैं। प्रेग्नेंट महिलाओं को पता ही नहीं होता है कि उन्हें अपना और अपने बच्चे का कैसे ध्यान रखना है। कितने बच्चे पैदा करना चाहिए।
करीब 15 गांव से ऐसे मामले आए थे, जिसमें महिलाएं प्रेग्नेंसी के दौरान ही दम तोड़ देती थीं। कई महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती थी। इसकी बड़ी वजह खून की कमी, घर पर प्रसव का होना और प्रेग्नेंसी के दौरान समय-समय पर टीका न लेना था।
ये लोग अंधविश्वास की वजह से टीका नहीं लेते थे। हमने इन्हें इसके फायदे बताना शुरू किया, तब जाकर धीरे-धीरे मामलों में कमी आई।
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सौजन : Dainik bhaskar
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