रोज़गार के क्षेत्र में आज भी ट्रांस समुदाय का प्रतिनिधित्व नदारद क्यों?
ट्रांस समुदाय को हर दिन हिंसा, उत्पीड़न और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। वे शिक्षा, आर्थिक अवसर और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल में अब भी हाशिये पर हैं।
साल 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय की कुल जनसंख्या लगभग 4.88 लाख है। यह समुदाय एक लंबे अरसे से समाज में हाशिये पर रखा गया है। इस समुदाय के लोगों को अपने ही घरों से लेकर स्कूलों में, रोजगार में सभी जगह उन्हें भेदभाव झेलना पड़ता है। यह कहना उचित होगा कि इन्हें जीवन जीने के सामान्य अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है। लेकिन जैसे-जैसे मानवाधिकारों के क्षेत्र में प्रगति हुई है इनके अधिकारों के क्षेत्र में भी प्रगति हुई है।
भारत में पिछले कुछ सालों में, LGBTQIA+ समुदाय के संबंध में कई ज़रूरी फै़सले लिए गए हैं। 15 अप्रैल 2014 को, सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ के अपने महत्वपूर्ण निर्णय में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को बाइनरी जेंडर (यानी पुरुष/महिला) से अलग और तीसरे लिंग के रूप में घोषित किया। नालसा निर्णय में अदालत ने कुछ दिशानिर्देश दिए थे। इसमें अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के नागरिक और सामाजिक-आर्थिक अधिकारों की प्रगतिशील प्राप्ति सुनिश्चित करने का आदेश दिया।
6 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को रद्द कर दिया, जिसने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। साथ ही, ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 को संसद द्वारा पारित किया गया। हालांकि, ट्रांस समुदाय और उनके सहयोगियों ने इसके बहुत से हिस्सों की आलोचना भी की। यह अधिनियम ट्रांसजेंडर व्यक्ति के खिलाफ भेदभाव को प्रतिबंधित करता है, जिसमें रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, सार्वजनिक वस्तुओं और सुविधाओं तक पहुंच आदि के संबंध में अनुचित व्यवहार या सेवा से इनकार करना शामिल है। फिर भी, इस समुदाय को हर दिन हिंसा, उत्पीड़न और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। वे शिक्षा, आर्थिक अवसर और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल में अब भी हाशिये पर हैं।
ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के लागू होने के तीन साल बाद भी ज़मीनी हकीकत में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। आज भी हमारे समाज में ट्रांस समुदाय बहिष्कृत रहते हैं और अक्सर उन्हें सार्वजनिक रूप से अपनी लैंगिक पहचान छिपाने के लिए मजबूर किया जाता है। उन्हें आज भी रोज़गार के लिए भटकना पड़ रहा है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा साल 2018 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 96 प्रतिशत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को नौकरी से वंचित कर दिया गया है और आजीविका के लिए कम वेतन दिया जाता है। अधिकतर ट्रांस समुदाय के लोगों को सेक्स वर्क और भीख मांगने जैसे काम के लिए मजबूर किया जाता है। यह अध्ययन ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों ख़ासकर रोज़गार से जुड़ा पहला अध्ययन है। इस अध्ययन से यह भी खु़लासा होता है कि लगभग 92 प्रतिशत ट्रांसजेंडर देश में किसी भी तरह की आर्थिक गतिविधि में भाग लेने के अधिकार से वंचित हैं। यहां तक कि नौकरी योग्य लोगों को भी नौकरी देने से इनकार कर दिया जाता है।
अध्ययन के अनुसार, लगभग 89 प्रतिशत ट्रांसजेंडर ने कहा कि उनके समुदाय से आनेवाले योग्य लोगों के लिए भी कोई नौकरी नहीं है। 50-60 फीसदी कभी स्कूल नहीं गए और इन्हें गंभीर भेदभाव का सामना करना पड़ा। 52 प्रतिशत ट्रांसजेंडरों को उनके सहपाठियों द्वारा और 15 प्रतिशत को शिक्षकों द्वारा परेशान किया गया, जिससे उन्हें अपनी पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। केवल 6 प्रतिशत ट्रांस समुदाय से आनेवाले लोगों को निजी क्षेत्रों या गैर सरकारी संगठनों में काम मिला था, जबकि केवल 1 प्रतिशत ट्रांस लोगों की मासिक आय 25,000 रुपये से अधिक थी; अधिकतर (26.35 प्रतिशत) 10,000-15,000 रुपये के बीच कमाते हैं। रिपोर्ट में आगे खुलासा हुआ कि लगभग 23 प्रतिशत सेक्स वर्क में शामिल होने के लिए मजबूर हैं, जिसमें स्वास्थ्य संबंधी कई जोखिम होते हैं। नतीजतन परिणामस्वरूप ट्रांस लोगों में सामान्य आबादी की तुलना में एचआईवी से पीड़ित होने का जोखिम 49 गुना अधिक है।
अगर सरकार या कोई निजी कंपनी ट्रांसजेंडरों को लाभकारी रोजगार सुनिश्चित करने के लिए प्रयास करती है तो आसपास के लोग रूढ़िवादी रवैया दिखाकर उन्हें नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर देते हैं। साल 2017 में केरल के कोच्चि मेट्रो रेल लिमिटेड ने 23 ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को रोजगार दिया, जबकि उनमें से आठ ने कई मकान मालिकों द्वारा उन्हें आवास देने से मना करने के कारण एक महीने के भीतर अपनी नौकरी छोड़ दी।
ज़मीनी हकीकत का एक उदाहरण दिल्ली उच्च न्यायालय में एक ट्रांस व्यक्ति द्वारा दायर याचिका है। रोज़गार के लिए भटकने की परेशानी दिल्ली की जेन कौशिक झेल रही हैं। जेन कौशिक एक ट्रांसजेंडर हैं। उनके पास बी.ए. (सामान्य) की डिग्री है, मास्टर्स इन आर्ट्स (एम.ए.) (राजनीति विज्ञान), बैचलर ऑफ एजुकेशन (बी.एड.), साथ ही नर्सरी टीचर ट्रेनिंग (‘एनटीटी’) में दो साल का डिप्लोमा भी है। जेन कौशिक ने दिल्ली उच्च न्यायलय में याचिका दायर की कि वह 2019 से दिल्ली के सरकारी स्कूलों में नौकरी की तलाश कर रही है। मगर भरसक प्रयत्नों के बावजूद उन्हें कहीं भी नौकरी नहीं मिल पा रही हैं। जबकि वे अध्यापक के पद के लिए योग्य हैं।
जैन कौशिक ने अदालत में याचिका के माध्यम से GNCTD के तहत राज्य के विभागों, स्कूलों आदि में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की मान्यता और उनके रोजगार और भर्ती के अधिकारों के संबंध में एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है। 20 जनवरी, 2023 को दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति प्रतिभा एम. सिंह ने जेन कौशिक बनाम लेफ्टिनेंट गवर्नर, एनसीटी दिल्ली व अन्य के मामले में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीटी) दिल्ली में स्कूलों में शिक्षण पदों पर भर्ती के लिए ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए अलग-अलग रिक्तियों के विज्ञापन की मांग करने वाली एक याचिका में केंद्र सरकार को पक्षकार बनाने के लिए एक नोटिस जारी किया।
जैन कौशिक का मामला अकेला मामला नहीं है। ऐसे न जाने कितने ट्रांस व्यक्ति हैं जिन्हें पूर्ण योग्यता के बावजूद भी रोज़गार के लिए भटकना पड़ता है। हालांकि, कई निजी फर्म कार्यस्थलों पर समावेशी नीतियों के साथ सामने आए हैं। लेकिन ट्रांस समुदाय की रोज़गार तक पहुंच को आसान बनाने के लिए नेताओं की ओर से कम ही शब्द आए हैं। केवल सरकार ही नहीं बल्कि लोगों का रवैया भी ट्रांस समुदाय के प्रति बदलने को तैयार नहीं है। अगर सरकार या कोई निजी कंपनी ट्रांसजेंडरों को लाभकारी रोजगार सुनिश्चित करने के लिए प्रयास करती है तो आसपास के लोग रूढ़िवादी रवैया दिखाकर उन्हें नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर देते हैं। साल 2017 में केरल के कोच्चि मेट्रो रेल लिमिटेड ने 23 ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को रोजगार दिया, जबकि उनमें से आठ ने कई मकान मालिकों द्वारा उन्हें आवास देने से मना करने के कारण एक महीने के भीतर अपनी नौकरी छोड़ दी।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा साल 2018 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 96 प्रतिशत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को नौकरी से वंचित कर दिया गया है और आजीविका के लिए कम वेतन दिया जाता है। अधिकतर ट्रांस समुदाय के लोगों को सेक्स वर्क और भीख मांगने जैसे काम के लिए मजबूर किया जाता है।
हालांकि बीते कुछ सालों में सरकारी और निजी कंपनियों द्वारा कुछ अच्छी पहल की गई है। साल 2017 में, केरल के कोच्चि मेट्रो रेल लिमिटेड ने 23 ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को रोज़गार दिया। साल 2020 में, नोएडा मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन (NMRC) ने अपने एक स्टेशन को ट्रांस कम्युनिटी को समर्पित किया और इसका नाम बदलकर प्राइड स्टेशन कर दिया। सेवाओं के लिए ठेकेदारों के माध्यम से NMRC द्वारा ट्रांसजेंडर समुदाय के छह सदस्यों की भर्ती की गई थी।
2021 में, कर्नाटक सरकार द्वारा लिया गया क़दम भी सराहनीय है। ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के पक्ष में सार्वजनिक रोजगार में नौकरियों के लिए कर्नाटक 1 प्रतिशत आरक्षण आवंटित करने वाला पहला भारतीय राज्य बन गया। पेरीफेरी, चेन्नई स्थित एक स्टार्ट-अप है जोकि ट्रांसजेंडर समुदाय के सामाजिक समावेश की दिशा में काम कर रहा है, लेकिन यह अपने 14 महीने के अस्तित्व में केवल 42 ट्रांस लोगों को रखने में सक्षम रहा है।
सौजन्य :hindi.feminisminindia.
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