भाषा और साहित्य के विकास में पिछड़ों-दलितों का अहम योगदान
उल्लेखनीय है कि लिपियों का आविष्कार विद्वानों ने नहीं, चित्रकार और मूर्तिकारों ने किया। भारत ही नहीं, दुनिया की किसी भी सभ्यता में लिपि के निर्माण के पहले चित्र और मूर्तियों का निर्माण हुआ। ये मूर्तिकार और चित्रकार कौन थे? भारतीय संस्कृति और शास्त्रों ने इन्हें शूद्र कहा है। जितने भी कामगार अथवा शिल्पकार हैं, भारत में उन्हें शूद्र श्रेणी में रखा गया। बता रहे हैं हरिनारायण ठाकुर
जब हम हिंदी भाषा की बात करते हैं, तो इसके अंतर्गत खड़ीबोली के साथ-साथ वे तमाम बोलियां, उप-भाषाएं और लोकभाषा आ जाती हैं, जिन्हें हिंदी क्षेत्र में बोला और समझा जाता है। इस अध्ययन में संस्कृत को भी रखा जा सकता है, क्योंकि इससे लिपि के साथ-साथ शब्द और शास्त्र का भी संबंध है। भाषा और लिपि के संबंध में यह धारणा है कि यह विद्वानों की चीज है। लेकिन यह धारणा भ्रामक है। भाषा का अर्थ ही है– भाष अर्थात् बोलना। यह आमजनों के बोलचाल की भाषा से बनी है। इसके साहित्य जनता की जुबान पर सदियों से बिखरे और संचित रहे हैं। जब हम हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में दलित-पिछड़ों के योगदान की बात करते हैं, तो लोकभाषा में इन्हीं संचित और बिखरे पड़े भाषा और साहित्य की बात करते हैं, जिनसे मानक भाषा और साहित्य बने हैं। साथ ही, आदिवासियों के योगदानों को भी इससे अलग रखकर नहीं देखा जा सकता।
हिंदी की विकास यात्रा में उर्दू, संस्कृत, अरबी-फारसी, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश और हिंदी की लोकभाषाओं का योगदान है। इसकी देवनागरी लिपि के विकास में चित्रलिपि, ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का योगदान है। विषय पर विचार करने के लिए प्राचीन काल से अब तक इन सभी बातों पर विचार करना होगा।
प्राचीन भारत के राजवंश, वर्ण और धर्म
भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता हड़प्पा या सिंधुघाटी की सभ्यता है। “इसका काल लगभग ई.पू. 3000 से ई.पू. 1300 या 1500 माना जाता है। इस सभ्यता के लोग पढ़ना-लिखना जानते थे। इनकी लिपियां चित्रलिपि या कीलाक्षर हैं, जो आज तक नहीं पढ़ी जा सकी हैं। इसके बाद वैदिक या ब्राह्मण सभ्यता शुरू होती है। इसका काल लगभग 1500 ई.पू. से 500 ई.पू. तक है।”[1] असल में इन सालों या अवधियों की गणना नंद राजा घननंद (घनानंद) के समय भारत पर सिकंदर के आक्रमण 326 ई.पू. से शुरू होती है। उसी वर्ष को आधार वर्ष मानकर भारत की प्राचीन सभ्यता और राजवंशों की कालावधि का अनुमान लगाया गया। भारतीय ग्रंथों में किस राजा ने कितना वर्ष शासन किया, यह तो लिखा था, लेकिन कब से कब तक शासन किया, इसका उल्लेख नहीं है। क्योंकि ईस्वी सन या संवत का प्रचलन नहीं शुरू हुआ था। आर्य या ब्राह्मण सभ्यता आरंभ में सप्तसिंधु (पंजाब, कश्मीर, पाकिस्तान आदि), उत्तरापथ (उत्तर-पश्चिम) या आर्यावर्त (आर्यों से घिरा हुआ स्थान) में फैली। लगभग 600 ई.पू. से भारत में राजवंश और गणतंत्रों का इतिहास मिलने लगता है। इसी काल में महावीर जैन और गौतम बुद्ध का जन्म और उनके धर्मों का प्रचार होता है। कालांतर में बौद्ध धर्म विश्वव्यापी बन जाता है। मगध साम्राज्य में 544 ई.पू. से लेकर 647 ई. तक क्रमश: शिशुनाग वंश, नन्द वंश, मौर्य वंश, शुंग वंश, कण्व वंश, गुप्त वंश, शक, कुषाण और वर्द्धन राजवंशों का शासन रहता है। इसमें गुप्त राजवंश को छोड़कर लगभग सभी राजवंश के राजा जैन या बौद्ध धर्मावलंबी थे। हर्षवर्द्धन (647-590 ई.) अंतिम बौद्ध राजा थे। लगभग इसी काल से धार्मिक ग्रंथों की रचना होती है।
प्राचीन भारत में बौद्ध राजा अक्सर ब्राह्मण और क्षत्रिय नहीं होते थे। उपरोक्त सूची में एक हर्षवर्द्धन को छोडकर प्राय: सभी राजा ब्रह्मणेतर या क्षत्रियेतर वर्ण के हैं। रोमिला थापर लिखती हैं– “इसके (नंदोंके) बाद उत्तर भारत के अधिकांश प्रमुख राजवंश क्षत्रियेतर वर्णों के हुए और यह क्रम एक हज़ार वर्ष पश्चात् राजपूतों के आगमन तक चलता रहा।”[2] रोमिला थापर नंद वंश के बारे में लिखती हैं– “यह बड़ी विचित्र बात है कि क्षत्रियेतर वंशों की श्रृंखला में नन्दों का राजवंश पहला था। नंद लोग, जिन्होंने शिशुनाग वंश से सिंहासन छीना था, नीच कुल के थे। कुछ स्रोतों का कथन है कि नंदवंश का संस्थापक महापद्मनंद एक शूद्र माता का पुत्र था। कुछ दूसरे स्रोतों का कथन है कि वह एक नाई और वेश्या के संयोग से पैदा हुआ था।”[3] पुराणों में महापद्मनंद को चक्रवर्ती सम्राट, एकराट और सर्व क्षत्रांतक (सभी क्षत्रियों को नाश करनेवाला) कहा गया है, “संस्कृत व्याकरण के प्रसिद्ध आचार्य ‘पाणिनी’ महापद्मनंद के मित्र और उनके दरबारी विद्वान थे। नंद के दरबार में ही उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अष्टाध्यायी’ की रचना की। उसी प्रकार वर्ष, उपवर्ष, वररुचि कात्यायन जैसे विद्वान भी नंद दरबार में ही थे। शाकटाय और स्थूलभद्र घनानंद के जैन आमात्य और विद्वान थे। ये सभी आचार्य बौद्ध या जैन मत से प्रभावित और प्राय: नास्तिक थे।”[4] यही कारण है कि घनानंद ने तक्षशिला के वैदिक आचार्य ब्राह्मण चाणक्य को अपने दरबार में सम्मान नहीं दिया। उसे बाहर निकाल दिया।
उसी प्रकार मौर्यों का वंश भी शूद्र राजवंश था। इसका संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य था। “चंद्रगुप्त का संबंध मोरिया जन से था, लेकिन वह निम्न वर्ग का था।”[5] पं. रेवती प्रसाद शर्मा ने विशाखदत्त के संस्कृत नाटक ‘मुद्राराक्षस’ आदि ग्रंथों का हवाला देते हुए बताया है कि “मौर्यवंश के प्रथम राजा चंद्रगुप्त की माता ‘मुरा’ नाम की एक नाईन (दासी) थी, उसी के नाम पर इस वंश का नाम मौर्यवंश पड़ा।… दासी पुत्र होने के कारण मगध नरेश महानंद (घननंद) अपने ज्येष्ठ पुत्र चंद्रगुप्त को राजा नहीं बनाकर अपने छोटे पुत्र को राजा बनाना चाहते थे। इसीलिए वे रुष्ट होकर राजदरबार से बाहर चले गये और चाणक्य की मदद से मगध की गद्दी पर विराजमान हुए। एक दूसरी कथा के अनुसार रानी ने एक नाई से आसक्त होकर चंद्रगुप्त को जन्म दिया। फिर वृद्ध राजा को मारकर उसके पुत्र घननंद से राज्य छीना और चंद्रगुप्त को राजा बनाया।”[6] अन्य प्रमाण चंद्रगुप्त को कुर्मी या कुशवाहा सिद्ध करते हैं। सच्चाई चाहे जो भी हो, इतना तो तय है कि मौर्यवंश शूद्रों का राजवंश था और अशोक सहित इसके सभी राजे बौद्ध या जैन मतावलंबी थे।
प्राचीन भारत में भाषा और लिपि के विकास में दलित–पिछड़ों का योगदान
यह शास्त्र और परंपरा दोनों से प्रचलित है कि संस्कृत भाषा भारत की सबसे पुरानी भाषा है। कोई-कोई पंडित तो इसे दुनिया की सबसे पुरानी भाषा बता देते हैं। यह भी कहा जाता है कि भारत की सभी भाषाएं इसी संस्कृत से निकली है। संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है। ये भाषाविज्ञान के सबसे बड़े दो झूठ हैं, जिन्हें भाषाविज्ञान ने कब का ख़ारिज कर दिया, लेकिन इन्हें आज तक ढोया जा रहा है। संस्कृत जब सबसे पुरानी भाषा है, तो इसकी लिपि भी सबसे पुरानी होनी चाहिए। मगर ऐसा नहीं है। इसकी लिपि नागरी या देवनागरी है, जो हिंदी, मराठी, गुजराती, नेपाली सहित हिंदी प्रदेश की तमाम लोकभाषाओं की है। यह अपेक्षाकृत नई लिपि है। तो भारत की सबसे पुरानी लिपि क्या है?
अब तक के ऐतिहासिक पुरातात्त्विक प्रमाणों से सिद्ध है कि भारत की सबसे प्राचीन लिपि ब्राह्मी और खरोष्ठी है। ये लिपियां अशोक (ई.पू. 269-232) के शिलालेखों की लिपि हैं। और नगरी या देवनागरी लिपि इसी ब्राह्मी लिपि से निकली है। इसीलिए सबसे पुरानी नहीं है। इन लिपियों में लिखी गयी भाषाएं पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, तमिल आदि हैं। शिलालेखों के अतिरिक्त अन्य अभिलेख और जैन-बौद्ध साहित्य भी इसके प्रमाण हैं। इन लिपियों में संस्कृत का एक भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, क्योंकि उस ज़माने में संस्कृत भाषा थी ही नहीं। इसीलिए संस्कृत सबसे पुरानी भाषा नहीं है। जब हम लिपि पर विचार करते हैं, तो अब तक उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार लिपि की जानकारी देनेवाला सबसे प्राचीन ग्रंथ ‘ललित विस्तर’ है, जिसकी रचना तीसरी शताब्दी में बतायी जाती है। यह बुद्ध के जीवन चरित को विस्तार से चित्रित करनेवाला संस्कृत का पहला ग्रंथ भी है। इसमें भारत और एशिया में प्रचलित 64 लिपियों का वर्णन है, जिनमें पहले और दूसरे स्थान पर क्रमश: ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि है। इस लिपि को ब्रह्मा ने बनाया, ऐसा मानकर केवल संस्कृत ग्रंथों में ही इसे ब्राह्मी कहा गया है, अन्यथा जैन-बौद्धों के पालि-अपभ्रंश ग्रंथों में इसे ‘बम्भी’ और अशोक के शिलालेखों में इसे ‘धम्म लिपि’ कहा गया है। इस प्रकार इसका प्राचीन नाम ‘बम्भी’ या ‘धम्म लिपि’ है। ‘ललित विस्तर’ में चीनी लिपि का भी वर्णन है। किन्तु देवनागरी या नागरी का नाम कहीं नहीं है। छब्बीसवें क्रम पर देव लिपि का नाम है। लेकिन इसके आगे-पीछे हूण लिपि, नाग लिपि, यक्ष लिपि, गंधर्व लिपि, किन्नर लिपि, असुर लिपि आदि लिपियों के नाम भी हैं। इसीलिए यह लिपि देवनागरी या नागरी नहीं है। इसका मतलब है बुद्ध के समय तक न लोग इस लिपि का नाम जानते थे, न इसका प्रयोग ही होता था। इसीलिए देवनागरी लिपि उसके बाद ही निकली होगी अथवा उसका नाम कुछ और रहा होगा। ब्राह्मणों ने ब्राह्मी की तरह देवनागरी लिपि को भी देवताओं की लिपि बना दिया है। क्योंकि उनके सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद इसी लिपि में है और वेद को वे अपौरुषेय (देवताकृत) मानते हैं। वेदों का रचनाकाल ई.पू. 5200-5500 माना जाता है। माना वेद स्मृति ग्रंथ हैं, इन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद करके सुरक्षित रखा गया होगा और लिपि का आविष्कार होने पर लिखा गया होगा। पुराण स्पष्ट तौर पर बाद की रचना है। लेकिन दर्जनों वेदांग, उपनिषद् और अरण्यक? इन्हें बुद्ध के समकालीन ईसा पूर्व की रचना बताया जाता है। परंतु लिपि इनके पुराना होने से इनकार करती है। इसिलिए निश्चय ही इनका रचनाकाल तीसरी सदी के बाद का ठहरता है।
दूसरा बड़ा झूठ है कि हिंदी और बांग्ला सहित भारत की सभी भाषाएं संस्कृत से निकली है। इसकी भी पड़ताल करते हैं।
किसी भी भाषा की पहचान उसके वाक्य और पदविन्यास से होती है। संस्कृत के वाक्य में पदक्रम का कोई महत्त्व नहीं है। कोई भी शब्द कहीं भी रखा जा सकता है। जैसे – अस्ति गोदावरी तीरे एको तरु:। एको तरु गोदावरी तीरे अस्ति। तरु अस्ति एको तीरे गोदावरी। लेकिन दूसरी भाषाओं में पदक्रम का कड़ा नियम है। कर्त्ता, कर्म, क्रिया या कर्त्ता, क्रिया, कर्म। उर्दू, फारसी में तो नुक्ता के फेर से खुदा जुदा हो जाते हैं। फिर व्याकरण से देखें। अन्य भाषाओं में दो वचन हैं– एकवचन और बहुवचन, संस्कृत में तीन वचन हैं– एकवचन, द्विवचन और बहुवचन। अन्य भाषाओं में दो या तीन लिंग हैं– स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, उभयलिंग, पर संस्कृत में चार लिंग हैं। अन्य भाषाओं में तीन काल हैं– भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्यत काल, पर संस्कृत में पांच से दस काल हैं– लट लकार, लंग लकार, …। केवल शब्दों की बहुलता से कोई भाषा किसी की जननी नहीं हो सकती। संधि के नियम भी केवल संस्कृत शब्दों पर ही लागू होते हैं। इस प्रकार संस्कृत सभी भाषाओं की जननी नहीं है। इसलिए बच्चन सिंह लिखते हैं कि “संस्कृत से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश और अपभ्रंश से उत्तर भारत की आधुनिक आर्यभाषाओं का विकास हुआ। ऐसा विश्वास किया जाता रहा है और इसके लिए सिद्धांत भी गढ़े गये थे। लेकिन अब यह धारणा कि हिंदी या बंगला आदि अपभ्रंश से निकली, खंडित हो चुकी है।”[7]
नंद और मौर्य काल से पहले भी लिच्छवी गणतंत्र काल में 16 महाजनपद हैं और अधिकांश जनपदों के राजा या मुख्य सभासद शूद्र हैं। अब प्रश्न उठता है कि जब प्राचीन भारत मुख्यत: बौद्धों और शूद्रों का भारत है, तो उनकी कोई भाषा, कोई लिपि और साहित्य भी रहे होंगे। निश्चित रूप से उनकी भाषा प्राकृत, पालि और अपभ्रंश हैं और लिपि ब्राह्मी और खरोष्ठी। यह भी उल्लेखनीय है कि लिपियों का आविष्कार विद्वानों ने नहीं, चित्रकार और मूर्तिकारों ने किया। भारत ही नहीं, दुनिया की किसी भी सभ्यता में लिपि के निर्माण के पहले चित्र और मूर्तियों का निर्माण हुआ। ये मूर्तिकार और चित्रकार कौन थे? भारतीय संस्कृति और शास्त्रों ने इन्हें शूद्र कहा है। जितने भी कामगार अथवा शिल्पकार हैं, भारत में उन्हें शूद्र श्रेणी में रखा गया। लोक प्रचलित नृत्य, गीत, भाव और भंगिमाओं के आधार पर उन्होंने चित्र और मूर्तियों को उकेरा। सभी जानते हैं कि लोकभाषा और लोकगीत इन्हीं कामगार/शिल्पकार वर्गों के घर-परिवार और समाज से निकले हैं। लिपि से पहले भाषा बनी और भाषा का निर्माण किसी एक व्यक्ति अथवा समूह ने नहीं किया। यह मनुष्य के स्वत:स्फूर्त ध्वनि प्रवाह से विचार-विनिमय का माध्यम बनी। जिस तरह कथा-कहानी, संगीत-नृत्य का उन्होंने भाव मूर्तन किया, उसी तरह भाव और ध्वनियों को उन्होंने पहले चित्र लिपि में, फिर ध्वनि लिपि में मूर्तिमान किया। एक-एक ध्वनि के लिए अलग-अलग संकेत या चिन्ह बनाये गये, जिसे वर्णमाला कहा गया। विद्वानों ने बाद में लिपियां सीखीं। पहले विद्वान बोलते थे और ये चित्रकार लिखते थे। और मूर्तिकार, चित्रकार सहित सभी कामगार, कलाकार शास्त्र से शूद्र हैं।
अशक्नुवंस्तु शुश्रूषां शूद्रः कर्तुं द्विजन्मनाम्।
पुत्रदारात्ययं प्राप्तो जीवेत्कारुककर्मभिः॥10.99॥ – मनुस्मृति
यदि द्विजातियों की सेवा करने में शूद्र असमर्थ हो और उसके बीबी-बच्चे अन्नादि का कष्ट पा रहे हों तो वह कारीगरी का काम करके जीविका चला कर सबका भरण-पोषण करे।
यैः कर्मभिः प्रचरितैः शुश्रूष्यन्ते द्विजातयः।
तानि कारुककर्माणि शिल्पानि विविधानि च॥10.100॥ – मनुस्मृति
अर्थात, जिन प्रचलित कार्यों द्वारा द्विजातियों की सेवा की जा सकती है, वे अनेक प्रकार के शिल्प और कारीगरी के काम हैं।
शास्त्रीय प्रमाण भी सिद्ध करते हैं कि अभिजन विद्वान पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे। उनके पास ज्ञान था, भाषा थी, पर उसे लिपिबद्ध करने का तरीका उन्हें मालूम नहीं था। विद्वान बोलते थे और दूसरा कोई लिखता था। कहा जाता है कि व्यास के ग्रंथों को लिपिबद्ध करनेवाले गणेश हैं और गणेश कौन थे? शास्त्रों से ही सिद्ध है कि पूरा का पूरा शिव परिवार शूद्र परिवार है। इतिहास इन्हें अनार्य बताते हैं। इसीलिए लिपियों का आविष्कार शूद्रों ने किया। “मनुस्मृति में गणपति को स्पष्ट रूप में शूद्रों का देवता कहा गया है और गणयोग को निषिद्ध माना गया है।”[8] उन्हें देवता के रूप में आर्यों ने बाद में स्वीकार किया। इसीलिए उनकी पूजा से पहले उन्हें जल और बेलपत्र से शुद्ध किया जाता है। शिव के सिवा बाकी किसी देवता पर जल और बेलपत्र नहीं चढ़ते। आज भी लिखने-पढ़ने में सबसे तेज कायस्थ समाज है और कायस्थ शास्त्र से शूद्र हैं। इसके अनेक प्रमाण दिये जा सकते हैं। आज भी कायस्थों की शादी शूद्रों की तरह समगोत्रीय होती है, अन्य सवर्णों की तरह विगोत्रीय नहीं। इसीलिए शूद्रों की तरह कायस्थों का भी नस्ल सुधार नहीं हुआ।
भाषाविज्ञान में भाषा उत्पत्ति के अनेक सिद्धांतों में प्रमुख सिद्धांत हैं– ‘अनुकरण’, ‘श्रम-परिहार’ और ‘या-हो-हे’ सिद्धांत। भाषा हवा, पानी की हलचल और पशुओं की बोली के अतिरिक्त श्रमिकों द्वारा थकावट दूर करने के लिए हियो-हियो, हैचो, मछुआरों के हैया-हो, आंटा-चावल पिसती-कूटती ग्रामीण स्त्रियों के गीत, ठठेरों के ठकठक, आदिवासियों के स्वर-व्यंजनमय गीत, वर्षा और झरनों के रिमझिम, ग्रामीण ललनाओं के ठुमक और गीत और स्वरों के अनुकरण पर भाषा और शब्दों का निर्माण हुआ। ये कामगार वर्ग शूद्र-अतिशूद्र वर्ग ही थे। इसीलिए भाषा, ध्वनि, शब्द और अक्षरों के निर्माण में दलित-पिछड़ों का सीधा योगदान है। इन्हीं शब्द और भाषाओं से परिनिष्ठित शब्द और भाषा बने। विकास-क्रम का नियम भी बताते हैं कि चीजें कम विकसित से अधिक विकसित और अशिष्ट से शिष्ट की ओर जाती हैं। इसीलिए संस्कृत जैसी शिष्ट और समृद्ध भाषा से अपेक्षाकृत कम विकसित प्राकृत, अपभ्रंश और लोकभाषाओं का निर्माण होना अवैज्ञानिक और नियम विरुद्ध है। बल्कि तथ्य इसके उलट हैं। विकास-क्रम में लोकभाषा, अपभ्रंश, प्राकृत और संस्कृत बनी होगीं। अयोध्या प्रसाद खत्री ने खड़ीबोली हिंदी की कोटियों में ‘मौलवी स्टाइल’ की बोली को सर्वाधिक सशक्त और सुंदर माना है। उन्होंने खड़ीबोली को पांच भागों में विभक्त किया था– “ठेठ हिंदी, पंडितजी की हिंदी, मुंशीजी की हिंदी, मौलवी साहिब की हिंदी और यूरेशियन हिंदी।”[9] यह ठेठ हिंदी क्या है? यही हिंदी सर्वसाधारण और शूद्रों की बोलचाल की भाषा है।
प्राचीन भारत साहित्य के विकास में दलित–पिछड़ों का योगदान
“प्राकृत, पालि और अपभ्रंश भाषा और साहित्य लोकसाहित्य का विषद और विपुल भंडार हैं, जो जैन और बौद्ध धर्मों से प्रेरित और प्रभावित हैं। लोककथाओं का प्राचीनतम और विशालतम संग्रह गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ (बड्डकहा) है, जो पैशाची प्राकृत में लिखी गयी थी। इसका रचना काल पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार प्रथम या द्वितीय शताब्दी ई. है। इस कथा की लोकप्रियता को देखकर बाद में इसके अंशो के कई संस्कृत अनुवाद हुए, जिसमें ‘कथा सरित्सागर’, ‘बृहत्कथामंजरी’, ‘वेतालपंचविंशति’, ‘सिंहासनद्वात्रिंशिका’, ‘शुकसप्तति’ आदि प्रसिद्ध हैं। इसी परंपरा और प्रभाव में ‘पंचतंत्र’, ‘हितोपदेश’, ‘जातकमाला’ आदि नीतिकथाओं का अनुवाद और प्रणयन भी हुआ। प्राकृत, अपभ्रंश और तद्जनित लोकभाषाएं और लोकसाहित्य शूद्रों की देन और धरोहर हैं।”[10]
विश्वप्रसिद्ध बौद्ध विश्वविद्यालय नालंदा, विक्रमशिला और ओदंतपुरी बिहार में ही थे, जिन्हें ब्राह्मण-श्रमण विवाद में जलाकर नष्ट कर दिया गया। इन विश्वविद्यालयों का विस्तृत विवरण चीनी बौद्ध यात्री और नालंदा विश्विद्यालय के छात्र और शिक्षक ह्वेनसांग और इत्सिंग के यात्रा-वृतांतों में मिलता है। राजा जैन-बौद्ध धर्म के माननेवाले हों या ब्राह्मण धर्म के, शुरू के शुंग आदि राजवंशों को छोड़कर किसी भी राजवंश में जैन-बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के विवाद को बढ़ावा नहीं दिया गया था। यहां तक कि गुप्त राजाओं ने भी बौद्धों के लिए बिहार और शिक्षा केंद्र बनवाये। केवल ब्राह्मण गुरु, पुरोहित और पंडितों को ही जैन-बौद्ध श्रमणों से चिढ़ थी, क्योंकि वे ईश्वर, वेद, जन्मना जाति-वर्ण और यज्ञादि कर्मकांडों को नहीं मानते थे और सबको समानता की शिक्षा देते थे, जिससे पुरोहितों के यज्ञादि कर्म प्रभावित होते थे। इसीलिए ब्राह्मण-पुरोहित हमेशा से बौद्ध केंद्रों को नष्ट करना चाहते थे, लेकिन राजाओं के संरक्षण के कारण वे ऐसा नहीं कर पाते थे। इन स्थापित और समृद्ध विश्वविद्यालयों को ब्राह्मण धर्म माननेवाले राजाओं ने भी समृद्ध और संरक्षित किया। हां, उन्होंने इतना जरूर किया कि इनमें जहां केवल बौद्ध-जैन धर्म और ग्रंथों की शिक्षा दी जाती थी, वहां उन्होंने वेदों की शिक्षा की भी व्यवस्था कर दी। पालि, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के अलावा वहां संस्कृत में भी पढ़ाई होने लगी। गुप्त राजाओं ने ऐसा ही किया। फिर भी प्रधानता बौद्ध शिक्षा की ही थी। इसीलिए भारतीय राजवंशों के शासनकाल में तो ये बौद्ध विश्वविद्यालय सुरक्षित और संरक्षित रहे। लेकिन ज्योंहि तुर्क-अफगान शासन आया और गुलाम वंश के सेनापति और सूबेदार बख्तियार खिलजी का बिहार पर शासन शुरू हुआ, ब्राह्मणों ने उनसे मिलकर इन विश्वविद्यालयों को नष्ट करवा दिया। स्मरण रहे बख्तियार खिलजी ने मंदिरों को नष्ट नहीं किया, केवल बौद्ध विश्वविद्यालयों को ही नष्ट किया। उसने ऐसा क्यों किया? इस संबंध में कहा जाता है कि “तराईन के युद्ध के बाद थके बख्तियार बीमार पड़ गये। उसकी बीमारी वैद्यराज ब्राह्मण राहुल श्रीभद्र ने ठीक की। राजा को कुरान पढ़ने के लिए दिया गया। वैद्यराज ने कुरान के कुछ पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप लगा दिया था। वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट गया और ठीक हो गया। उसने इस एहसान का बदला नालंदा को जलाकर दिया।”[11]
कुछ लोग इस वैद्य को नालंदा का आचार्य बताते हैं, तो कुछ लोग पूर्ववर्ती हिंदू राजा का राजवैद्य। लेकिन राजा का राजवैद्य होना ही अधिक अनुमान्य है। चूंकि वैद्य ब्राह्मण थे, इसीलिए ईनाम में नालंदा, विक्रमशिला जैसे बौद्ध विश्वविद्यालयों को जलाना मांगा होगा। भारतेंदु ने भी अपने ‘भारत दुर्दशा’ नाटक में लिखा है– “लरि वैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी / करि कलह बुलाई जवन सैन पुनि भारी/ तिन नासी बुधि, बल, विद्या बहु वारी।” ज्ञातव्य हो कि बख्तियार खिलजी के समय मौलवियों के साथ-साथ दरबार में संस्कृत पंडितों को भी संरक्षण मिलता रहा। यह परंपरा पूरे मुगलकाल तक जारी रही। “यहां तक कि औरंगजेब जैसे इस्लाम के कट्टर शासक के शासनकाल में भी मुगल दरबार में संस्कृत पंडितों को संरक्षण मिलता रहा। ‘रस सिद्धांत’ के प्रतिपादक पंडित राज जगन्नाथ शाहजहां के दरबारी कवि और विद्वान थे। बाबर, हुमायूं, अकबर और जहांगीर सबके दरबार में संस्कृत कवि और विद्वानों की भरमार थी। संस्कृत साहित्य के अधिकांश ‘काव्यशास्त्र’ और ‘काव्य सिद्धांत’ मुगल दरबार में ही लिखे गये।”[12] मुगलकाल में प्राकृत, पालि, अपभ्रंश आदि भाषाओं के कवि और विद्वानों को राजकीय संरक्षण नहीं मिला, इसीलिए ये भाषा और साहित्य उपेक्षित रहे। यही कारण है कि जब अंग्रेजों ने 1800 ई. में कलकत्ते के फोर्ट विलियम कॉलेज में प्राचीन भारतीय भाषाओं और साहित्य की खोज, अनुवाद और छपाई के लिए भाषा मुंशियों को रखकर काम शुरू किया, तो इन भाषाओं के जाननेवाले मिले ही नहीं। इसीलिए संस्कृत ग्रंथों पर ही काम हुआ।
ऐसे में नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों में सुरक्षित और संरक्षित प्राकृत और अपभ्रंश की लाखों पुस्तकों पर विचार करने की जरूरत है, जो जैन-बौद्ध की ही नहीं, शूद्रों की भी संपदा थी। इन्हें बेरहमी से जला दिया गया। अपभ्रंश भाषा में लिखे सिद्ध और नाथ साहित्य भी नालंदा विश्वविद्यालय की धरोहर थे। “चौरासी सिद्धों में अधिकांश इसी विश्विद्यालय के छात्र और शिक्षक थे, जिनमें अधिकांश शूद्र थे। डोम्भीप्पा तो जाति के डोम ही थे। प्रमुख सिद्ध-संतो में सरहप्पा, लुइप्पा, शबरप्पा, कण्हप्पा, भुसुकप्पा, कंवणप्पा, कम्बलप्पा, गुंडरिप्पा, जालन्धरिप्पा, दारीकप्पा, धामप्पा थे, जिनके लिखे मोटे-मोटे ग्रंथ थे, उनके अंश आज भी उपलब्ध हैं।”[13]
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन भारत में भाषा, लिपि के अतिरिक्त साहित्य के विकास में भी शूद्रों (दलित-पिछड़ों) का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
संस्कृत साहित्य के विकास में दलित–पिछड़ों का योगदान
चूंकि शब्द और रचना को लेकर हिंदी का संस्कृत से गहरा संबंध है, इसलिए संस्कृत साहित्य पर भी विचार करना आवश्यक है। संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि हैं और महाभारत और वेद-वेदांगों की रचना करनेवाले ‘वेदव्यास’। और दोनों को शूद्र माना गया है, एक दलित और दूसरा पिछड़ा। इसीलिए इनके ऊपर विचार करना आवश्यक है।
वाल्मीकि और व्यास
शास्त्र-पुराण और परंपरा से प्रचलित है कि ‘रामायण’ के रचयिता वाल्मीकि दलित (भंगी या चांडाल) और ‘महाभारत’ के रचयिता व्यास पिछड़े (निषाद) थे। वाल्मीकि ने ‘रामायण’ और ‘योग बशिष्ठ’ सहित कई ग्रंथ लिखे और व्यास ने ‘महाभारत’ सहित गीता, वेद, तमाम वेदांग (ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद), शास्त्र और पुराण लिखे। फिर वैदिक साहित्य में बच क्या जाता है? जब तमाम वैदिक ग्रंथों के रचयिता ये ही दोनों दलित-पिछड़े कवि हैं, जो वैदिक, ब्राह्मण या सनातन धर्म के आधार हैं। फिर झगड़ा किस बात का? हम क्यों बेचारे ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद को दोष देते हैं, उन्हें बदनाम करते हैं? हम मान क्यों नहीं लेते कि वैदिक, ब्राह्मण या सनातन धर्म और दर्शन के प्रवर्त्तक हमारे ही पूर्वज थे, इसीलिए यह धर्म, दर्शन और विचारधारा हमारी है।
चलिए हम मान लेते हैं, तो फिर बुद्ध, कबीर से लेकर फुले, आंबेडकर, पेरियार और आज तक जो आंदोलन चले और चल रहे हैं, उनका क्या होगा? क्या सभी बेकार थे और हैं? ऐसा कतई नहीं है। यह दर्शन और समाजशास्त्र का बहुत बड़ा प्रश्न है। इस पर विचार होना चाहिए। डाकू रत्नाकर वाली कथा खुद वाल्मीकि ही ‘अध्यात्म रामायण’, ‘आनंद रामायण’ और ‘कीर्तिवास रामायण’ में कहते हैं। ऐसी ही कथा ‘स्कंद पुराण’ में भी है। ‘रामचरितमानस’ में भी तुलसी कहते हैं– “उल्टा नाम जपत हरि नामा। वाल्मीकि भये ब्रह्म सामना।।” वाल्मीकि की माता चार्षिणी और पिता प्रचेता दोनों ब्राह्मण थे। वाल्मीकि को बचपन में भीलनी उठाकर ले गई थी और उनका पालन-पोषण उसी ने किया। फिर वे लुटेरे भीलों की तरह डाकू बन गये। इसीलिए वे इस नई माता की ओर से और कर्म से अतिशूद्र (भंगी, चांडाल) ठहरते हैं। लेकिन ‘वाल्मीकि रामायण’ में वाल्मीकि आश्रम में वनवास के बाद राम दरबार में जब सीता की दोबारा अग्नि-परीक्षा होती है, तो वाल्मिक कहते हैं कि मैं प्रचेता (ब्राह्मण) पुत्र सत्यवादी वाल्मीकि शपथ लेकर कहता हूं कि “सीता अग्नि की तरह पवित्र है।”
उसी प्रकार व्यास ब्राह्मण ऋषि पराशर के पुत्र हैं। उनकी माता निषाद कन्या सत्यवती है। व्यास भी केवल माता की ओर से शूद्र (पिछड़ा) है। उस समय अनुलोम-विलोम विवाह प्रचलित था और अनुलोम-विलोम विवाह के संबंध में शास्त्र कहता है कि उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता से उत्पन्न संतान पिता के वर्ण की होगी। इसके विपरीत उच्च वर्ण की माता और निम्न वर्ण के पिता से उत्पन्न संतान शूद्र होगी। उपर्युक्त कथा को मान भी लें, तो वाल्मीकि और व्यास दोनों ब्राह्मण वर्ग के ठहरते हैं। उनकी विचारधारा भी वही ब्राह्मणवादी है। इसीलिए उनका दलित और पिछड़ा होना संदिग्ध है। उनके ग्रंथ और मान्यताओं पर अनेक सवाल उठाये जा सकते हैं। वाल्मीकि को आदिकवि माना गया गया है और व्यास को वेद के रचयिता। तो कायदे से वेद रामायण से बाद की रचना होनी चाहिए, लेकिन वेद पहले की रचना है। इसीलिए दोनों की स्थिति विवादास्पद है। इसीलिए हम वाल्मीकि और व्यास को दलित-पिछड़ा नहीं मान सकते।
फिर भी ‘मनुस्मृति’ सहित अनेक स्मृति और पुराणों में कहीं-कहीं ब्राह्मण पिता और शूद्र माता से उत्पन्न संतान को शूद्र ही माना गया है। इस दृष्टि से व्यास शूद्र ठहरते हैं। कुछ विद्वानों ने वाल्मीकि के पिता प्रचेता का संबंध वरुण से जोड़ने की कोशिश की है, तो कुछ ने ऋषि च्यवन से। और वैदिक परंपरा से हम जानते हैं कि भृगुओं का संबंध रथ या गाड़ी बनानेवाले वर्ण से था, अतः वे शूद्र थे। फिर उनकी दोनों ही पत्नियां क्रमशः हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या और पुलोमा की पुत्री पौलोमी राक्षस वंश की थीं, इसलिए भी वे अनार्य (राक्षस) श्रेणी के हुए। दिव्या से च्यवन ऋषि और पौलोमी से शुक्राचार्य की उत्पत्ति हुई। च्यवन जन्मकाल से ही प्रकृष्ट चेतनायुक्त थे, इसलिए उनका दूसरा नाम प्रचेता हुआ। इस बात की पुष्टि अश्वघोष का ‘बुद्ध चरितं’ ग्रंथ से भी होती है।”[14] इस प्रकार जन्म और वंश परंपरा से भी वाल्मीकि दलित या शूद्र ही ठहरते हैं। दलित लेखक और विचारक कंवल भारती का कहना है– “जहां तक वाल्मीकि की पौराणिक रामकथा ‘रामायण’ का प्रश्न है, उसे पूरी तरह सामंती मूल्यों का साहित्य नहीं कहा जा सकता। क्रौंच के जोड़े में एक पक्षी को मारे जाने में बहेलिया को शाप दिया गया है, तो यह समझा जा सकता है कि उसमें सामंती व्यवस्था पर आक्रोश किस कदर व्यक्त हुआ है। राम के द्वारा शंबूक के वध की घटना भी दलित अस्मिता की दृष्टि से काफ़ी महत्त्व रखती है। वाल्मीकि सामंती युग के कवि थे। वे राज्याश्रित रहे होंगे। ऐसे में व्यवस्था का पूर्ण विरोध वाल्मीकि के लिए राजद्रोह हो सकता था, जिसका दंड निश्चित रूप से मृत्यु था। इसलिए वाल्मीकि ने सामंतों की भाषा में ही सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता का बोध कराया है। हम रामायण को दलित साहित्य नहीं कह सकते, लेकिन हम वाल्मीकि को सर्वथा सामंती मूल्यों का पक्षधर भी नहीं कह सकते।”[15]
इसी प्रकार यदि व्यास को शूद्र कन्या की शूद्र (पिछड़ा वर्ग) संतान मान लेते हैं, तो उनकी महाभारत कथा तो पूरी तरह वर्ण-संकरों की कथा है। महाभारत के प्राय: सभी पुरुष पात्रों का जन्म या तो नियोग से होता है या कुंवारी अवस्था में अवैध संबंध (देव आह्वान) से। महाभारत में जाति और वर्ण-व्यवस्था अत्यंत ही उदार है। इसमें ऐसे स्थलों के वर्णन में अन्य ब्राह्मणवादी ग्रंथाें की अपेक्षा अधिक उदारता बरती गयी है। व्यास ने कई बार युधिष्ठिर के मुख से जाति और वर्ण-व्यवस्था के जन्मना-सिद्धांत का खंडन करवाया है। वाल्मीकि और व्यास के उद्भव और विकास की चाहे जो भी कथा हों, लेकिन इतना तो तय ही है कि रामायण और महाभारत की मूल कथा में जाति-भेद और वर्ण-व्यवस्था वैसी दृढ़ और संकीर्ण नहीं दिखाई पड़ती, जैसी कालांतर में देखने को मिली। वाल्मीकि और व्यास की परंपरा भले ही दलित या बहुजन परंपरा न हो, लेकिन बहुत हद तक उन्होंने जाति और वर्ण-व्यवस्था को उदार बनाने की कोशिश की है। इस दृष्टि से संस्कृत साहित्य के विकास में भी दलित-पिछड़ों के योगदान को रेखांकित किया जा सकता है।
संस्कृत के प्रसिद्ध नाटक ‘मृच्छकटिकम्’ के लेखक शूद्रक को भी शूद्र कहा जाता है। ‘मृच्छकटिकम्’ की गैर-सामंती लोकतांत्रिक कथा भी उन्हें शूद्र सिद्ध करती है। कहा जाता है कि कालिदास भी गड़ेरिया जाति के थे। लेकिन उनकी रचनाओं में सामंतवादी प्रवृतियां भरी पड़ी हैं। वेदों के अनेक मंत्र और ऋचाएं शूद्र ऋषियों के नाम पर हैं। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों के रचयिता कवष ऐलुष को शूद्र कहा गया है। अश्विनी कुमारों को सोमपान का अधिकार नहीं था, क्योंकि वे शूद्र थे। वेदों में शूद्र ऋषि रैक्व और महिदास चर्चित नाम हैं। महिदास राजा भी थे। एक और शूद्र राजा जनश्रुति का नाम आता है, जिसे ऋषि रैक्व ने वेद पढ़ाया था। महिदास ‘एतेरेय ब्राह्मण’ और उपनिषदों के रचयिता भी बताये जाते हैं। ऐसे अनेक छोटे-छोटे राजा और ऋषि हैं। लेकिन उनकी परंपरा दलित या बहुजन परंपरा नहीं है।
मध्यकालीन साहित्य के विकास में दलित–पिछड़ों का योगदान
मध्यकाल का साहित्य दो भागों में विभाजित है– भक्तिकाल और रीतिकाल। रीतिकाल तो सामंतो का काल है और उसका साहित्य भी सामंती साहित्य है। वहीं भक्तिकाल शुद्ध रूप से शूद्रों का काल है। भक्तिकाल का आरंभ कबीर आदि निर्गुण संतों की वाणी से होता है। उसके बाद दक्षिण भारत से आ रही पूजा-कीर्तन की सगुण भक्तिधारा की परंपरा में तुलसी, सूर आदि कवियों का जन्म होता है। निर्गुण साहित्य दो वर्गों में विभाजित है– ज्ञानाश्रयी शाखा और प्रेमाश्रयी शाखा। ज्ञानाश्रयी में कबीर, नानक, रैदास, पीपा, दादूदयाल, सुंदरदास, मलूकदास, अमीर खुसरो आदि आते हैं। प्रेमाश्रयी शाखा के कवि थे– जायसी, कुतुबन, मंझन, मुल्ला दाऊद, उस्मान, शेख नबी, कासिमशाह, नूर मुहम्मद आदि। सगुण भक्तिधारा की रामभक्ति शाखा में तुलसी के अलावा अग्रदास, नाभादास, प्राणचंद, हृदयराम, केशवदास आदि है और कृष्ण भक्तिधारा के कवियों में सूरदास के अलावा कुंभनदास, परमानंद दास, कृष्णदास, नंददास, छीतस्वामी, गोविंद दास, रसखान, मीराबाई आदि। निर्गुण भक्तिधारा की दोनों शाखाओं के कवि या तो शूद्र हैं या मुसलमान। सगुण भक्तिधारा में भी नाभादास, कुंभनदास दास आदि शूद्र बताये जाते हैं। हम जानते है कि निर्गुण की चेतना गैर-वैदिक परंपरा सिद्ध-नाथ और सूफियों से प्रभावित है, जबकि सगुण भक्तिधारा वैदिक-पौराणिक परंपरा से प्रभावित है। कबीर, रैदास, नानक आदि की रचनाओं में सामाजिक सरोकार से सीधा संवाद है। वे ऊंच-नीच, भेदभाव, धार्मिक आडंबर नहीं मानते और समानता की बात करते हैं, जबकि सगुण भक्तिधारा के कवि ईश्वर के अवतार, वर्ण-व्यवस्था और ऊंच-नीच की बातें करते हैं। जाहिर है निर्गुण भक्तिधारा में दलित-पिछड़ी चेतना को महत्त्व दिया गया है, जबकि सगुण भक्तिधारा में ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद की। यह भी स्मरणीय है कि निर्गुण भक्तिधारा में कवियों की संख्या सगुण से अधिक है। एक बात और स्मरणीय है कि भक्तिकाल के इन कवियों की सारी रचनाएं लोकभाषा में रची गयी हैं। निर्गुण साहित्य अवधि, भोजपुरी, उर्दू अथवा मिश्रित लोकभाषा में, तो सगुण अवधि या ब्रजभाषा में। इसका कारण यह है कि ये भक्त और कवि अपनी बातों को जनता के बीच दूर-दूर तक पहुंचाना चाहते हैं।
इस प्रकार भाषा और साहित्य दोनों ही दृष्टियों से भक्ति साहित्य दलित-पिछड़ों के करीब है और उनके रचनाकार अधिकतर दलित-पिछड़े ही हैं। मुसलमान कवि भी पसमांदा हैं, जो आजकल पिछड़े वर्ग की श्रेणी में आते हैं। इसीलिए मध्यकाल के साहित्य के विकास में दलित-पिछड़ों का सीधा योगदान है।
आधुनिक साहित्य के विकास में दलित–पिछड़ों का योगदान
मध्यकाल जहां भारतीय इतिहास में तुर्क-अफगान और मुगलों का काल है, वहीं आधुनिक काल अंग्रेजों का। अंग्रेजी भाषा के अध्ययन से भारत में नवजागरण काल आता है और अनेक समाज सुधारक और चिंतक पैदा होते हैं। ब्रह्मसमाज, प्रार्थना समाज, सत्यशोधक समाज, आर्यसमाज आदि के बैनर तले राजाराम मोहनराय, केशवचंद, ईश्वरचंद विद्यासागर, जोतीराव फुले, क्षत्रपति शाहूजी महाराज, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद आदि के शिक्षा और सुधार आंदोलन शुरू होते हैं। आगे चलकर बाल गंगाधर तिलक, आगरकर, रानाडे, गांधी, पेरियार और आंबेडकर आदि आते हैं। अब तक जो शिक्षा गुरुकुल और मदरसों में थी, अब स्कूल-कॉलेजों में आ जाती है। विधिवत शिक्षा देने का काम शुरू होता है। शिक्षा के सार्वजनिक हो जाने पर भी आरंभ में आम दलित-पिछड़े और स्त्रियां शिक्षा से वंचित ही रहती हैं। विभिन्न आंदोलन और प्रयासों से सबको शिक्षा का अधिकार मिलता है। इस बीच शिक्षा में वही ब्राह्मणवादी विचार और सोच भर दिये जाते हैं। धीरे-धीरे दलित-पिछड़े और स्त्रियों के शिक्षित होने और फुले-आंबेडकर आदि के आंदोलन के कारण कालांतर में शिक्षा और साहित्य में परिवर्तन होता है। प्रगतिवादी-जनवादी साहित्य का सृजन होता है। स्त्री, दलित और पिछड़े भी सम्मान के साथ साहित्य और इतिहास में शामिल होते हैं। आज का दलित-बहुजन साहित्य शिक्षा और साहित्य की विचारधारा के केंद्र में स्थापित है।
इस बीच कड़ीबोली की कविता और आरम्भ की कथा-कहानी जैसे लोकप्रिय साहित्य को साहित्य में जगह नहीं दी गयी। इसके लिए अयोध्या प्रसाद खत्री जैसे हिंदी के विद्वानों को आंदोलन करने पड़े। देवकीनंदन खत्री, गोपाल राम गहमरी (साहू), इब्ने सफी, कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा आदि के लोकप्रिय साहित्य को साहित्य का दर्जा नहीं दिया गया। अब उन्हें भी साहित्य माना जाने लगा है। आधुनिक काल के आरंभिक साहित्य के पिछड़ने का एक कारण यह भी रहा कि प्राचीन काल के गुरुकुलों की तरह शिक्षालयों में प्रवेश या तो विप्र कुमार या राजकुमारों (सामंतवर्ग) को ही मिलता रहा। कायस्थ और खत्री समाज यद्यपि हर तरह से शिक्षित और कुलीन हैं। उनके राजवंश भी रहे हैं। लेखन उनकी परंपरा और विरासत है। फिर भी अकादमिक जगत में उन्हें महत्त्व तभी मिला, जब प्रेमचंद जैसे दिग्गज साहित्यकार उर्दू से हिंदी में आये। अन्यथा शूद्रों की तरह उन्हें अश्रेष्ठ माना जाता रहा। खत्रीजी के ‘चंद्रकांता’ संतति पर कई टीवी सीरियल और फ़िल्में बनीं, कुशवाहा कान्त और गुलशन नंदा के उपन्यासों पर ‘काजल’, ‘कटी-पतंग’, ‘नीलकमल’, ‘खिलौना’, ‘परदेशी’, ‘नागिन’ जैसी दर्जनों हिट फ़िल्में बनीं। पर उन्हें अकादमिक जगत में स्वीकृति नहीं मिली। दूसरी ओर भारतेंदु हरिश्चंद, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, गिरिराज किशोर, चन्द्रकिशोर जायसवाल आदि के अलावा चौथीराम यादव, रामधारी सिंह दिवाकर, राजेंद्र प्रसाद सिंह, प्रेमकुमार मणि आदि ऐसे अनेक उल्लेखनीय नाम हैं, जो हिंदी साहित्य में मानक बन चुके हैं। वहीं दलित साहित्य के चर्चित रचनाकारों में हीरा डोम, अछूतानंद, ओमप्रकाश वाल्मीकि, कंवल भारती, मोहनदास नैमिशराय, श्यौराज सिंह बेचैन, मलखान सिंह, बुद्ध शरण हंस, जयप्रकाश कर्दम, तुलसीराम, आदि अनेक कवि-कथाकार हैं। साथ ही आदिवासी साहित्यकारों की बात करें तो रामदयाल मुंडा, वंदना टेटे, महादेव टोप्पो और अनुज लुगून सरीखे साहित्यकारों ने उल्लेखनीय योगदानों से भाषा और साहित्य को समृद्ध किया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में दलित-पिछड़ों की महत्त्वपूर्ण भूमिका हैं। साथ ही आवश्यकता है कि इस भूमिका के विस्तार के लिए आपसी समन्वय हेतु प्रयास हों तथा सामूहिकता का विकास प्रसार हो।
संदर्भ
[1] रोमिला थापर, भारत का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली और विकिपीडिया के आधार पर
[2] रोमिला थापर, भारत का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ- 50
[3] वही
[4] विकीपीडिया और गुणाकर मुले की पुस्तक ‘इतिहास, संस्कृति और साम्प्रदायिकता, यात्री प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-133 के आधार पर
[5] रोमिला थापर, भारत का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ- 61
[6] नाई वर्ण-निर्णय, लेखक- पं. रेवती प्रसाद शर्मा, उपेक्षित समुदायों का आत्म इतिहास, सं- बद्री नारायण, विष्णु महापात्र, अनंत राम मिश्रा, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ-80-81 के आधार पर
[7] हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास: डॉः बच्चन सिंह- राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ-15
[8] इतिहास, संस्कृति और सांप्रदायिकता, गुणाकर मुले, यात्री प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-95
[9] अयोध्या प्रसाद खत्री: ‘अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक ग्रंथ’, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना, पृष्ठ-203
[10] संस्कृत साहित्य का इतिहास: डॉ राजकिशोर सिंह एवं देवीशंकर मिश्र, प्रकाशन केन्द्र लखनऊ के आधार पर
[11] विकिपीडिया व अन्य ब्लॉग
[12] संस्कृत साहित्य का इतिहास: डॉ राजकिशोर सिंह एवं देवीशंकर मिश्र एवं विकिपीडिया व कुछ ब्लॉगों पर आधारित
[13] चर्या पद एवं विकिपीडिया
[14] दलित देवो भव: भाग-1, किशोर कुणाल, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नयी दिल्ली के आधार पर
[15] दलित साहित्य कुछ आलोचनाएँ: कंवल भारती, संकल्पिका, पटना, सित- 1997, पृष्ठ-29
सौजन्य : Forward press
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