सफ़दर हाशमी : जीवन और सरोकार
कुल चौतीस साल का जीवन। लेकिन इतनी कम उम्र में भी हिंदुस्तानी रंगमंच और नुक्कड़ नाटकों की दुनिया पर कैसी अमिट निशानी छोड़ गए सफ़दर हाशमी (1954–1989), इसका एक जीवंत दस्तावेज़ है सुधन्वा देशपांडे की किताब ‘हल्लाबोल : द डेथ एंड लाइफ़ ऑफ़ सफ़दर हाशमी’’। जन नाट्य मंच (जनम) के संस्थापक सफ़दर हाशमी ने भारत में नुक्कड़ नाटकों की परम्परा को सशक्त बनाने में जो भूमिका निभाई; ‘मशीन’, ‘औरत’, ‘हल्लाबोल’ जैसे मर्मस्पर्शी नाटक लिखे और देश भर में जनम के साथियों के साथ घूम-घूमकर कैसे वे उन नाटकों को हिंदुस्तान के अवाम के बीच ले गए, इसका एक लेखा-जोखा है सुधन्वा की यह किताब।
लेफ़्टवर्ड से प्रकाशित यह किताब सफ़दर हाशमी के जीवन के बिलकुल आख़िरी क्षणों से शुरू होती है। वर्ष 1989 का पहला दिन। जब झंडापुर (साहिबाबाद) में ‘हल्लाबोल’ का मंचन करते हुए सफ़दर और उनकी टीम पर कांग्रेसी नेता मुकेश शर्मा और उसके गुंडों ने जानलेवा हमला किया। निहत्थे सफ़दर ने जनम के दूसरे साथियों को बचाने के लिए ख़ुद को आगे कर दिया और रॉड व लाठियों की प्राणघातक मार खाई। सफ़दर की चोटें इतनी गम्भीर थीं कि अगले ही दिन उनका निधन हो गया। इसी हमले में राम बहादुर नाम का एक मज़दूर भी मारा गया। सफ़दर पर हुए उस हमले और उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली और देश के दूसरे इलाक़ों में कला-संस्कृति से जुड़े हज़ारों-लाखों लोगों ने ही नहीं देश के तमाम मज़दूर संगठनों ने जो त्वरित प्रतिक्रिया दी, वह भी सफ़दर के महत्त्व, व्यापक पहुँच व प्रभाव और उनकी जनप्रियता की बानगी देती है। सफ़दर के निधन के दो दिनों के भीतर ही 4 जनवरी, 1989 को जनम के उनके साथियों ने सफ़दर की याद में झंडापुर में उसी जगह पर ‘हल्ला बोल’ की प्रस्तुति की, जहाँ 1 जनवरी को सफ़दर और उनकी टीम पर जानलेवा हमला हुआ था। यही नहीं 12 अप्रैल, 1989 को सफ़दर के जन्मदिन को देश भर में ‘राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक दिवस’ के रूप में मनाया गया और उस दिन देश भर में कुल तीस हज़ार प्रस्तुतियाँ हुईं।
सुधन्वा की यह किताब कई मायनों में बिलकुल सफ़दर की तरह है — जीवंत और प्रतिबद्ध। यह आपको हँसाती है, गुदगुदाती है, कचोटती है, झकझोरती है और रुलाती भी है! कम्युनिस्ट विचारों वाले पिता हनीफ़ हाशमी और एक स्कूली शिक्षिका क़मर आज़ाद हाशमी के बेटे सफ़दर के आरम्भिक जीवन, उनके परिवार का विवरण देते हुए सुधन्वा हमें दिल्ली विश्वविद्यालय ले चलते हैं, जहाँ से सफ़दर ने पढ़ाई की। सत्तर का वह दशक व्यापक राजनीतिक उथल-पुथल का भी दौर था और देश की राजधानी में स्थित दिल्ली विश्वविद्यालय भी इसका गवाह बन रहा था। दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ और छात्र संगठनों की सक्रियता और उनकी विविध गतिविधियों से भी सुधन्वा हमें वाबस्ता कराते हैं। उसी दौरान श्यामल मुखर्जी ने इप्टा को पुनर्जीवित करने की कोशिश शुरू की, जिसमें उनके साथ सफ़दर, सुभाष त्यागी, काजल दास, काजल घोष, उदय चटर्जी, अमित सेनगुप्ता जैसे लोग भी शामिल थे। इप्टा ने ‘किमलिश’, ‘दरबार’ और ‘क़ानून के आका’ जैसे नाटक मंचित किए। इप्टा के उन्हीं दिनों में सफ़दर अपनी जीवनसाथी मोलोयश्री हाशमी (माला) से मिले।
इप्टा से अप्रत्याशित रूप से निकाले जाने के बाद उन्नीस वर्षीय सफ़दर और उनके दूसरे साथियों ने अप्रैल 1973 में ‘जन नाट्य मंच’ की स्थापना की। अपने शुरुआती दिनों में जनम की टीम ने स्थान के अभाव में कविता नागपाल और कॉमरेड मेजर जयपाल सिंह के घरों पर रिहर्सल किए। इस दौरान जनम ने इरविन शा के नाटक ‘बरी द डेड’ के साथ-साथ रमेश उपाध्याय के नाटक ‘भारत भाग्य विधाता’ और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना द्वारा लिखित नाटक ‘बकरी’ का मंचन किया। उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध अभिनेता पंकज कपूर ने, जो तब एन.एस.डी. से नाटक की पढ़ाई कर निकले ही थे, ‘बकरी’ नाटक में केंद्रीय भूमिका निभाई थी।
आपातकाल के बाद वर्ष 1978 में सफ़दर ने फिर से जनम को नया जीवन देने और नुक्कड़ नाटकों की ओर रुख़ करने का निर्णय लिया। एन.के. शर्मा, कविता नागपाल, राकेश सक्सेना, कांति मोहन उनकी इस मुहिम का हिस्सा बने। असग़र वजाहत के लिखे नाटक ‘फ़िरंगी लौट आए’ और उत्पल दत्त के नाटक ‘अब राजा की बारी है’ के मंचन के साथ जनम ने एक फिर अपनी उपस्थिति प्रभावशाली ढंग से दर्ज कराई। उल्लेखनीय है कि ‘फ़िरंगी लौट आए’ का निर्देशन कविता नागपाल ने किया था। इस दौरान सफ़दर और जनम की पूरी टीम नाटक, उनकी विषय-वस्तु और सरोकार के बारे में गम्भीरता से विचार-मंथन कर रही थी। आपातकाल के वापस लिए जाने और आम चुनावों में इंदिरा गांधी की नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी के पराजय के ठीक बाद के दिनों में दिल्ली, ग़ाज़ियाबाद स्थित अनेक फैक्टरियों में मज़दूर हड़ताल पर जाने की तैयारी कर रहे थे क्योंकि मिल मालिक उनकी माँगों को मानना तो दूर उनसे बातचीत के लिए भी तैयार नहीं थे। तभी जनता पार्टी की सरकार ट्रेड यूनियनों को नियंत्रित करने के लिए एक विधेयक लेकर आई। इसी पृष्ठभूमि में सफ़दर और जनम की टीम ने ‘मशीन’ नाटक तैयार किया, जो पहली बार अक्टूबर 1978 में सत्यवती कॉलेज में मंचित किया गया। महज़ तेरह मिनट के इस नाटक ने दर्शकों को झकझोर कर रख दिया।
‘मशीन’ नाटक ने आगे चलकर ‘औरत’, ‘हल्ला बोल’ जैसे प्रभावशाली नाटकों की राह प्रशस्त की। नुक्कड़ नाटकों के मंचन के साथ सफ़दर मज़दूर संगठनों से जुड़ने, उनके बीच जाकर काम करने के हिमायती रहे। युवाओं को नुक्कड़ नाटकों की ओर आकर्षित करने के लिए सफ़दर ने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में थिएटर वर्कशॉप आयोजित किए। इसी दौरान सफ़दर ने नुक्कड़ नाटकों के स्वरूप और उनकी ज़रूरत को रेखांकित करते हुए एक लेख लिखा, जो उन्होंने अभिनेताओं, निर्देशकों, नाटककारों, कलाकारों और संगीतकारों के साथ साझा भी किया। यही नहीं अस्सी के दशक में सफ़दर ने नुक्कड़ नाटकों की अवधारणा व परम्परा पर और भारत में नुक्कड़ नाटकों के दस वर्ष पूरे होने पर कई विचारोत्तेजक लेख लिखे। वे इन नुक्कड़ नाटकों को पूँजीवाद के विरुद्ध श्रमिकों के संघर्ष के फलन के रूप में देखते थे। नुक्कड़ नाटकों के कलात्मक पक्ष को लेकर भी सफ़दर पर्याप्त सजग थे। यही नहीं वर्ष 1980–83 के दौरान दिल्ली स्थित पश्चिम बंगाल सूचना ब्यूरो के सूचना अधिकारी के रूप में कार्य करते हुए सफ़दर ने दिल्ली में बांग्ला नाटकों के तीन समारोह भी आयोजित किए। उसी दौरान फ़रवरी 1983 में जनम के दूसरे साथियों के साथ सफ़दर हाशमी भोपाल में मध्य प्रदेश रंग मंडल और संगीत नाटक अकादमी द्वारा आयोजित नुक्कड़ नाटकों के दस दिवसीय राष्ट्रीय समारोह और कार्यशाला में भी सम्मिलित हुए थे।
यह सब कुछ करते हुए सफ़दर बच्चों के लिए भी साहित्य रच रहे थे, नुक्कड़ नाटकों की सैद्धांतिकी पर गहनता से विचार कर रहे थे और देश में सक्रिय दूसरे नाट्य समूहों से भी संवादरत थे। सफ़दर ने बच्चों के लिए ‘दुनिया सबकी’, ‘किताबें’, ‘गड़बड़ घोटाला’ जैसी कविताएँ लिखीं, जो अत्यंत लोकप्रिय हुईं। वर्ष 1988 में सफ़दर हाशमी ने हबीब तनवीर के साथ प्रेमचंद की कहानियों के नाट्य-रूपांतरण पर काम किया, जिसका नतीजा था नाटक ‘मोटेराम का सत्याग्रह’। प्रेमचंद की कहानियों पर आधारित नाटक तैयार करने की जद्दोजहद से भरी प्रक्रिया का दिलचस्प विवरण सुधन्वा ने दिया है। इस नाटक की तैयारी को लेकर हबीब तनवीर और सफ़दर के बीच संवाद और नाटक के मंचन व अभिनय के संदर्भ में हबीब तनवीर के विचारों के बारे में सुधन्वा ने जो लिखा है, वह रंगमंच में दिलचस्पी रखने वाले हरेक शख़्स को पढ़ना चाहिए। सफ़दर के पत्रों, लेखों, साक्षात्कारों और उनके द्वारा दिए गए वक्तव्यों के ज़रिए सुधन्वा सफ़दर हाशमी के रंगमंच और नुक्कड़ नाटकों से जुड़ी समझदारी को भी हमारे सामने लाते हैं। सफ़दर बार-बार अपने साथियों से अनुशासन, प्रशिक्षण और अभ्यास पर ज़ोर देने का आग्रह करते हैं। वे इतिहास, समाज, संस्कृति, रंगमंच के इतिहास और मंच कला के प्रति भी सजग होने की वकालत करते हैं। चक्का जाम/हल्ला बोल की पटकथा लिखते हुए सफ़दर जिस गहरी उधेड़बुन से गुज़र रहे थे और इसकी पटकथा में जिस तरह जनम के साथियों और दर्शकों की प्रतिक्रिया लेकर सफ़दर द्वारा संशोधन किए गए, इसके विषय में भी सुधन्वा बताते हैं। ग़ौरतलब है कि नवम्बर 1988 में दिल्ली के मज़दूरों के बीच ‘चक्का जाम’ नाटक की पहली प्रस्तुति हुई और इस प्रस्तुति के दौरान मज़दूरों की प्रतिक्रियाओं को भाँपकर सफ़दर ने नाटक में ज़रूरी बदलाव भी किए थे।
अस्सी के दशक में भारत भयावह साम्प्रदायिक दंगों के दौर से भी गुज़र रहा था। ख़ुद दिल्ली में वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भयंकर दंगे हुए, जिनमें हज़ारों सिखों की जानें गईं। इस दौरान सफ़दर हाशमी और जनम की टीम ने साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित करने के लिए बनाई गई ‘कमेटी फ़ॉर कम्यूनल हॉर्मनी’ के साथ मिलकर काम किया। जनम ने इस दौरान ‘अपहरण भाईचारे का’, ‘हत्यारे’ और ‘वीर जाग ज़रा’ जैसे नाटकों का मंचन किया। यही नहीं जब दूरदर्शन से सफ़दर हाशमी को वयस्क साक्षरता पर वृत्त चित्र और धारावाहिक बनाने का प्रस्ताव मिला, तो उन्होंने गुरबीर सिंह ग्रेवाल के साथ मिलकर ‘खिलती कलियाँ’ जैसे प्रभावशाली धारावाहिक का निर्माण किया। सुधन्वा सफ़दर हाशमी की पाकिस्तान यात्रा और पाकिस्तान के रंगकर्मियों के साथ उनके संवाद का भी विवरण देते हैं। प्रासंगिक है कि फ़रवरी 1988 में कमला भसीन के आमंत्रण पर सफ़दर ने बादल सरकार, रति बार्थोलोम्यू, अनुराधा कपूर और माया राव के साथ लाहौर में आयोजित एक नुक्कड़ नाटक वर्कशॉप में भाग लिया था।
एक बेहतरीन जीवनी वह होती है, जो उस व्यक्ति के साथ-साथ उस समय को भी जीवंत कर दे, जिस दौर में वह व्यक्ति जी रहा होता है। सुधन्वा की यह किताब इस कसौटी पर खरी उतरती है। यहाँ सफ़दर के साथ-साथ उनसे जुड़े दूसरे लोग भी जीवंत होकर सामने आते हैं। साथ ही, यह किताब सत्तर-अस्सी के दशक के भारत में रंगमंच के परिदृश्य, नुक्कड़ नाटक करने वाले दूसरे समूहों से भी हमें रूबरू कराती है। मसलन, जहाँ एक ओर सुधन्वा बादल सरकार, हेस्नम कन्हाईलाल और साबित्री हेस्नम के नाटकों की चर्चा करते हैं, वहीं वे दूसरे नाट्य समूहों जैसे ‘वर्कशॉप थिएटर’, ‘बुलंद’ की भी चर्चा करते हैं। उन्हीं दिनों ‘स्त्री संघर्ष’ जैसे महिला संगठनों के आह्वान पर अनुराधा कपूर और माया राव ने ‘थिएटर यूनियन’ नामक समूह बनाया। इस समूह ने दहेज हत्या और महिलाओं से जुड़े दूसरे ज्वलंत प्रश्नों पर अनेक नुक्कड़ नाटक तैयार किए, जिनमें ‘ओम् स्वाहा’, ‘बलात्कार क़ानून’, ‘मर्ज़ का मुनाफ़ा’, ‘इंस्पेक्टर जनरल’ सरीखे नाटक शामिल थे। अस्सी के दशक में पत्र-पत्रिकाओं में भी नुक्कड़ नाटकों पर गम्भीरता से चर्चा शुरू हुई। सव्यसाची द्वारा संपादित हिंदी पत्रिका ‘उत्तरार्ध’ ने वर्ष 1983 में नुक्कड़ नाटकों पर केंद्रित एक विशेषांक प्रकाशित किया, जिसका उल्लेख इस किताब में हुआ है। ‘उत्तरार्ध’ के उस विशेषांक में प्रकाशित नाटकों में जनम के नाटकों के साथ-साथ गुरशरण सिंह, असग़र वजाहत के नाटक भी शामिल थे।
इसके साथ ही सुधन्वा सत्तर के दशक में देश के कोने-कोने में उभरने वाली प्रभावशाली नुक्कड़ नाटक मंडलियों जैसे बेंगलुरु के ‘समुदाय’, तेलुगु भाषी क्षेत्रों में ‘प्रजा नाट्य मंडली’ के कामों और उनके प्रभाव का भी ज़िक्र करते हैं। उल्लेखनीय है कि ‘समुदाय’ ने बिहार के बेलछी में मारे गए दलित खेत मज़दूरों की त्रासदी पर ‘बेलछी’ नाम से ही नाटक का मंचन वर्ष 1978 में किया था। सी.जी. कृष्णास्वामी द्वारा लिखित इस नाटक के गीत प्रसिद्ध दलित कवि सिद्धलिंगैया ने लिखे थे। आगे चलकर इस नाटक की पच्चीस सौ से अधिक प्रस्तुतियाँ ‘समुदाय’ ने की थीं। अकारण नहीं कि सुधन्वा लिखते हैं कि ‘समुदाय इप्टा के बाद वास्तव में जनोन्मुख, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और सांस्कृतिक जनांदोलन के निर्माण का पहला बड़ा और सफल प्रयास था।’ जनम और सफ़दर हाशमी ने भी प्रतिरोध और सर्जना की इस परम्परा को आगे बढ़ाने का काम बख़ूबी किया था। सुधन्वा की यह किताब हिंदी में भी ‘हल्ला बोल’ शीर्षक से उपलब्ध है, जोकि योगेन्द्र दत्त द्वारा अनूदित है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में रंगमंच और नुक्कड़ नाटक से जुड़े विविध समूहों और उनकी गतिविधियों, श्रमिक आंदोलन और उनके संघर्षों के बारे में दिलचस्पी रखने वाले हर व्यक्ति के लिए यह किताब अवश्य पठनीय है।
सौजन्य : Medium
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