हम अपना भविष्य सुरक्षित कर सकते हैं, नैतिक साहस जुटाने की ज़रूरत: चिमामंदा नगोज़ी एडिची
अभिव्यक्ति की आज़ादी क्या है? ये सवाल मन में आते ही, इसका जवाब ध्यान में नहीं आता लेकिन ये ज़रूर ख़्याल आता है कि ये कितना विवादित विषय हो सकता है|
बहुत से पश्चिमी देशों में ‘कैंसल कल्चर’ या ‘ख़ारिज किए जाने की संस्कृति’ को लेकर विवाद चल रहा है. वहीं, दुनिया के कई देशों में तो हालात और भी बुरे हैं. लोगों को तो अपने दिल की बात कहने तक के लिए क़ैद कर लिया जाता है, या उन्हें इससे भी बुरे तजुर्बे से गुज़रना पड़ता है.ऐसे में बीबीसी ने सौ साल पूरे होने पर सालाना ‘रीथ लेक्चर समारोह’ में अभिव्यक्ति की आज़ादी के मुद्दे पर बोलने के लिए पूरी दुनिया में मशहूर लेखिका चिमामंदा नगोज़ी एडिची को आमंत्रित किया.
नाइजीरिया में जन्मीं और अमेरिका की जॉन हॉपकिंस और येल यूनिवर्सिटी में पढ़ी लिखीं 45 साल की एडिची ने अपनी फिक्शन और नॉन-फिक्शन रचनाओं के लिए कई पुरस्कार जीते हैं. उन्हें दुनिया के सबसे प्रभावशावी विचारकों में गिना जाता है|
उनकी पुस्तक ‘वी शुड ऑल बी फेमिनिस्ट’ बेहद चर्चित रही है जबकि ‘द डैंजर ऑफ़ ए सिंगल स्टोरी’ नाम से दी गई उनकी तक़रीर अब तक की सबसे लोकप्रिय ‘टेड टाक्स’ में से एक है|
मेरे लिए यहां आना और बीबीसी ‘रीथ लेक्चर’ की विशिष्ट परंपरा का हिस्सा बनना बेहद सम्मान की बात है. मैं एक लेखिका हूं और मैं ये मानती हूं कि अगर हमें साहित्य की तलब है, हम इसके शैदाई हैं, तो फिर हमें बोलने की आज़ादी चाहिए ही|
मुझे लगता है कि इस वक़्त बोलने की आज़ादी के साथ जो दिक़्क़तें हैं- वो साहित्य और दूसरी सांस्कृतिक रचनाओं के लिए तो एक तरह से मौत की घंटी बजने जैसा है
इसके बावजूद मैं ख़ुद को शारीरिक रूप से नुक़सान पहुंचाए जाने को लेकर शायद उतनी फ़िक्रमंद नहीं हूं, लेकिन मुझे ये ज़रूर लगता है कि जज़्बाती, दिमाग़ी और अपने लिए कुछ और बातों को लेकर मैं ज़रूर चिंतित रहती हूं.
जब 1980 के दशक में हम बड़े हो रहे थे, तो एनसुक्का में यूनिवर्सिटी ऑफ़ नाइजीरिया के कैंपस में मैं बड़ी जिज्ञासु लड़की हुआ करती थी. मैं हर कहानी सुनना चाहती थी. ख़ास तौर से उन कहानियों में तो मेरी और भी दिलचस्पी हुआ करती थी, जिनका मुझसे कोई ताल्लुक़ नहीं होता था और इसका नतीजा ये हुआ कि ज़िंदगी के शुरुआती दिनों में ही चुपके चुपके दूसरों की बातें सुनने में उस्तादी हासिल कर ली थी. उस वक़्त मैंने देखा था कि जब भी मेरे दोस्तों के मां-बाप आते थे, तो वो लिविंग रूम में बैठकर ज़ोर-ज़ोर से बातें किया करते थे, लेकिन, जब वो फ़ौजी हुकूमत की आलोचना करते थे, तो उनकी आवाज़ सरगोशियों में तब्दील हो जाती थी वो बातें मुझे हैरान करती थीं. मेरे मन में सवाल उठते थे कि वो सब ब्रांडी पीते हुए इतने चुपके चुपके क्यों बातें करते थे? वो लोग ऐसा इसलिए करते थे क्योंकि उनके ऊपर दमनकारी तानाशाही हुकूमत का ख़ौफ़ तारी होता था|
खुले समाज की बुनियाद
बोलने की आज़ादी तो खुले समाजों की बुनियाद है. लेकिन, पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में ऐसे बहुत से लोग हैं, जो उन मुद्दों पर खुलकर अपनी बात नहीं रखते, जिनकी वो परवाह करते हैं. क्योंकि, उन्हें डर होता है कि कहीं उन्हें ‘सामाजिक रूप से झिड़की’ न मिले और उन्हें ये डर सरकार से नहीं, अपने ही साथी नागरिकों से होता है.
एक बार किताब पढ़ने के एक कार्यक्रम के दौरान एक अमेरिकी छात्रा ने मुझे घेर लिया. उसने ग़ुस्से में मुझसे पूछा, ‘आख़िर क्यों?’ ‘क्या मैंने इंटरव्यू में कुछ कहा था?’ मैंने उसे बताया कि मैंने जो कुछ कहा था वो सच है और उसने भी ये बात मानी और फिर पूछा, ‘अगर ये सच है भी तो हमें इसे क्यों जानना चाहिए?’
पहले तो मैं उसके बेहूदा सवाल पर हैरान रह गई. मुझे बाद में उसकी बात का मतलब समझ में आया. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि मेरा यक़ीन किस बात पर है.
उस नौजवान लड़की का ये सवाल पूछना कि, ‘ये सच हो भी तो मुझे ऐसा क्यों बोलना चाहिए?’ असल में इस नए दौर की मिसाल है. इसे लेखक अयाद अख़्तर ने ‘नैतिक जड़ता’ का नाम दिया है. जिसमें भीड़ के सामूहिक नज़रिए और बर्ताव का पालन करना मजबूरी है. भले ही उससे आपको कितनी ही तकलीफ़ क्यों न हो. ऐतराज़ क्यों न हो.
मैं इसमें एक बात और जोड़ना चाहूं कि ये नैतिक जड़ता हमेशा सज़ा जैसी लगती है. हम इस वक़्त व्यापक रूप से तय, बड़े वैचारिक क़बीलों की तरह रहते हैं|
अब हमें किसी मुद्दे पर खुलकर बहस-मुबाहिसे की ज़रूरत ही नहीं लगती, क्योंकि हमारा रुख़ तो हमारी क़बीलाई पहचान के मुताबिक़, पहले से तय कर दिया गया है.
हमारे क़बीले हमसे ये अपेक्षा रखते हैं कि हम आंख मूंदकर लक़ीर के फ़क़ीर बनकर उसी राह पर चलते रहें, जिस राह पर हमारा क़बीला चल रहा है और वहां तर्क वितर्क की कोई गुंजाइश नहीं, बस अंधी आस्था है.
नई पीढ़ी के बहुत से लोग आज के दौर के इसी वैचारिक माहौल में बड़े हो रहे हैं. वो बस इसी डर से सवाल नहीं करते कि कहीं ग़लत सवाल न पूछ लें. और, इस तरह से उन्होंने ख़ुद पर एक ख़ास तरह का सेंसर लगा रखा है.
अगर वो किसी बात को अहम या सच मानते भी हैं, तो भी नहीं बोलते क्योंकि उन्हें यही लगता है कि ऐसा नहीं कहना चाहिए.
इस तरह की सेंसरशिप को देखकर हम सोच में पड़ जाते हैं कि इस तरह से हम क्या गंवा रहे हैं और हमने अब तक कितना नुक़सान कर लिया है? हम सबको वो क़िस्से पता हैं, जब लोगों ने कुछ कहा है या उन पर कुछ लिखा है और फिर उन्हें भयंकर विरोध का सामना करना पड़ा है. एक वाजिब आलोचना और इस तरह के पलटवार में भारी अंतर होता है|
सामाजिक निंदा का नया दौर
वाजिब आलोचना तो अभिव्यक्ति की आज़ादी का हिस्सा होनी ही चाहिए. लेकिन, किसी के बयान पर बेहूदा निजी टिप्पणियां, लोगों के घरों के पते और उनके स्कूल के नाम ऑनलाइन सार्वजनिक करना, और लोगों की नौकरियों पर बन आने या उसे छीनने की कोशिशें करना तो आलोचना का कोई तरीक़ा नहीं है.
जो लोग ये कहते हैं कि, ‘अब उसने इतनी बुरी बात कही, तो उसके साथ यही होना चाहिए.’ उनको मैं कहना चाहूंगी कि बिल्कुल नहीं. किसी के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए.
ये तो बदले की भावना से किया जाने वाला काम है, जिसका मक़सद सिर्फ़ अपनी बात कहने वाले को ख़ामोश कराना नहीं, बल्कि उससे एक तरह का बदला लेना है और ऐसा माहौल बनाना है, जिसमें दूसरों को बोलने से रोका जाए.
किसी भी तानाशाही व्यवस्था की ये ईमानदारी होती है कि वो जैसा है वैसा ख़ुद को क़ुबूल करता है. ऐसी व्यवस्था को चुनौती देना आसान होता है, क्योंकि जंग के मोर्चे स्पष्ट होते हैं.
लेकिन, सामाजिक रूप से झिड़कने, निंदा करने का ये नया दौर है, जिसमें सबसे भीड़ के रूप में एक साथ सिर हिलाने की उम्मीद तो की जाती है. मगर अपने इस ज़ुल्म के प्रति वो ख़ुद ही अनजान बने रहते हैं|
मुझे लगता है कि ये जिज्ञासा के भाव के लिए मौत की घंटी बजने जैसा है. ये सीखने और रचनाशीलता की मौत का संकेत है. इंसान की किसी भी कोशिश में से रचनाशीलता को सबसे ज़्यादा आज़ादी दरकार होती है. रचना करने के लिए इंसान के ज़हन को खुलकर घूमने की स्वतंत्रता चाहिए.
वो कहीं भी जाए या न जाए और जहां दिल करे वहां जाए. उस तजुर्बे, उस एहसास से ही कला का जन्म होता है.
जर्मन लेखक गुंटर ग्रास ने एक बार अपनी लिखने की प्रक्रिया को इन शब्दों में बयां किया था: ‘हदों के ताले टूट गए. भाषा तरन्नुम में आगे बढ़ी. याददाश्त, कल्पना और आविष्कार. अहा! आविष्कार का आनंद.’
एक लेखिका के तौर पर मैं ख़ुद को इन जज़्बातों से क़रीब से जुड़ा हुआ महसूस करती हूं. एक पाठक के तौर पर मैंने अक्सर साहित्य के जादू को महसूस किया है.
साहित्य ये दिखाता है कि हम कौन हैं. वो हमें इतिहास की ओर ले जाता है. साहित्य हमें बस ये नहीं बताता कि क्या हुआ था, बल्कि उससे ये भी मालूम होता है कि कैसे हुआ था और कैसा महसूस होता है|
इतिहास हमें सबक़ देता है
इतिहास हमें सबक़ भी देता है और जैसा कि एक अमेरिकी प्रोफ़ेसर ने इतिहास के बारे में कहा था, ‘उससे ऐसी बातें भी पता चलती हैं, जो गूगल नहीं बताता’ किताबें, दुनिया के बारे में हमारी समझ को आकार देती हैं.
साहित्य के मायने हमारे लिए बड़ी गहराई वाले हैं और मुझे लगता है कि इस सामाजिक आलोचना के चलते आज साहित्य ख़तरे में है. अगर कुछ नहीं बदलता, तो अगली पीढ़ी हमें पढ़कर हैरान होगी. उसके मन में सवाल उठेगा कि ये लोग आख़िर किस तरह ख़ुद को इंसान बनने से रोकने में कामयाब रहे?
विडंबना देखिए कि अगस्त, 2022 में न्यूयॉर्क में एक शांत सुबह को सलमान रुश्दी पर उस वक़्त हमला हुआ, जब वो अभिव्यक्ति की आज़ादी के बारे में बोलने जा रहे थे.
कल्पना कीजिए कि एक अजनबी आपसे बस कुछ इंच की दूरी पर खड़ा है और अचानक वो पूरी क्रूरता और दिल में भरी बर्बरता से ज़बरदस्ती आपके चेहरे और गर्दन पर वार पर वार करने लगता है, क्योंकि आपने एक किताब लिखी है.
इस हमले के बाद मैंने सलमान रुश्दी की किताबें दोबारा पढ़ने का फ़ैसला किया. सिर्फ़ उनकी बाग़ी समर्थक के तौर पर नहीं, बल्कि उस रिवाज़ की याद में भी कि साहित्य के जवाब में किसी भी शारीरिक हिंसा को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है|
सलमान रुश्दी पर हमला इसलिए हुआ क्योंकि 1989 में जब उन्होंने ‘द सैटेनिक वर्सेज़’ लिखा और वो छपा तो ईरान की हुकूमत ने इसे अपमानजनक घोषित कर दिया और न सिर्फ़ रुश्दी को दोषी ठहराया, बल्कि उनके प्रकाशकों को भी मौत की सज़ा सुना दी गई.
ज़ाहिर है उसके बाद भयावाह घटनाएं हुईं. उनके इतालवी अनुवादक को छुरा घोंपा गया. उनके नॉर्वे के प्रकाशक को गोली मारी गई और उनके जापानी अनुवादक हितोशी इगाराशी की टोक्यो में हत्या कर दी गई.
मैं लंबे समय से एक सवाल के बारे में सोच रही हूं. क्या सलमान रुश्दी का उपन्यास आज छाप पाता? शायद नहीं. क्या ये लिखा भी गया होता? संभवत: नहीं.
सलमान रुश्दी जैसे बहुत से लेखक हैं, जो संवेदनशील मसलों पर उपन्यास लिखना चाहते हैं. लेकिन, सामाजिक आलोचना के भय से वो ख़ुद को रोक लेते हैं. प्रकाशक ऐसी पंथनिरपेक्ष ईशनिंदा से डरे हुए हैं.
आज साहित्य को कला के बजाय वैचारिक नज़रिए से देखने का चलन बढ़ता जा रहा है. प्रकाशन की दुनिया में इसकी बेहतरीन मिसाल ‘पढ़ने वालों की संवेदनशील जमात’ के तौर पर देखने को मिलती है.
ये वो लोग हैं जिनका काम ही ये है कि वो बिना छपी पांडुलिपियों में से उन शब्दों को काट-छांट दें, जिनसे लोगों के अपमानित महसूस करने का डर हो सकता है|
मेरे हिसाब से तो ये साहित्य के विचार ही ख़ारिज कर देने वाली बात है. मैं शब्दों को ज़ख़्मी करने की ताक़त से इनकार नहीं करती. शब्द इंसान की अंतरात्मा तक को तोड़ने की क्षमता रखते हैं.
मैंने अपनी ज़िंदगी में जो सबसे ज़्यादा तकलीफ़ें झेलीं हैं, उनमें से कई के पीछे किसी के बोले हुए या लिखे हुए शब्द ही थे और मैंने जीवन में कई बेहतरीन तोहफ़े भी लफ़्ज़ों के तौर पर ही हासिल किए हैं. शब्दों की ये ताक़त ही है, जिसकी वजह से बोलने की आज़ादी बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है.
‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’- अफ़सोस की बात तो ये है कि इस अभिव्यक्ति ने भी एक पक्षपाती क़बीलाई रंग अख़्तियार कर लिया है. अक्सर इसे स्वतंत्रता के बरक्स संयम की दुधारी तलवार पर लटकाया जाता है. जिसके एक छोर पर ‘मेरी जो मर्ज़ी हो बोलूं’ की मांग है, तो दूसरी तरफ़, ‘ज़रा दूसरों की भावनाओं का भी ख़याल रखें’ का तर्क है. हालांकि ये एक भयंकर विरोधाभास है|
कैसी किताबें छापी जाएं?
मैं उन किताबों की गिनती नहीं बता सकती, जिन्होंने मुझे तक़लीफ़ पहुंचाई, ग़ुस्सा दिलाया और मन में नफ़रत का भाव पैदा किया. लेकिन, मैं ये तर्क कभी नहीं दूंगी कि वो किताबें छापी ही न जाएं.
जब मैं कोई ऐसी बात पढ़ती हूं, जो वैज्ञानिक रूप से ग़लत है. जैसे कि पेशाब पीने से कैंसर ठीक हो जाता है या फिर किसी इंसान के सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली बुरी बात, जैसे कि समलैंगिकों को तो इसके लिए क़ैद में डाल देना चाहिए, तो मैं ऐसे ख़यालों को दुनिया के बीच से निकालकर दूर फेंकने को बेक़रार हो जाती हूं. फिर भी मैं ख़ुद को, सेंसरशिप की वकालत करने से रोकती हूं.
मैं बोलने की खुली आज़ादी के सिद्धांत में दिल की गहराइयों से यक़ीन रखती हूं और मैं इसलिए इस आज़ादी में और भी यक़ीन रखती हूं क्योंकि मैं एक लेखिका हूं, एक पाठक हूं, और साहित्य मेरा प्यार है.
आप इसे मेरी ख़ुदग़र्ज़ी भी कह सकते हैं. लेकिन मेरा व्यवहारिक कारण ये डर है कि जिस हथियार का इस्तेमाल मैं किसी और के ख़िलाफ़ करने की वकालत करती हूं, वो कल मेरे ऊपर भी तो इस्तेमाल किया जा सकता है. जिस बात को आज सहिष्णु माना जाता है, हो सकता है कि कल उसे अपमानजनक क़रार दे दिया जाए|
क्योंकि, बोलने की आज़ादी के दमन का ताल्लुक़ बोलने से ज़्यादा उस इंसान से है, जो इस अधिकार पर लगाम लगाना चाहता है. अमेरिका की हाई स्कूल परिषदों के बीच आज किताबों पर पाबंदी लगाने की होड़ लगी हुई है. ये प्रक्रिया इकतरफ़ा मालूम होती है.
जो किताबें बरसों से सिलेबस का हिस्सा थीं. स्कूलों में पढ़ाई जा रही थीं और जिनके ख़िलाफ़ कोई शिकायत नहीं थी, उन पर अचानक कई राज्यों में प्रतिबंध लगा दिया गया है. मेरी जानकारी के मुताबिक़, प्रतिबंध का सम्मान पाने वाली ऐसी किताबों में से एक मेरी भी है.
हालांकि अक्सर ये होता है कि ऐसी पाबंदियां अपना मक़सद हासिल कर पाने में नाकाम रहती हैं. किसी किताब पर पाबंदी लगने की जानकारी मिलने के बाद, मेरे ज़हन में पहला ख़याल यही आता है कि उस किताब को पढ़ूं कि आख़िर उसमें लिखा क्या है, जो उस पर रोक लगा दी गई.
और इसीलिए, मैं कहना चाहूंगी कि किताबों पर पाबंदी मत लगाइए. उनका जवाब दीजिए. आज के दौर में जब पूरी दुनिया मे ग़लत जानकारी का तूफ़ान आया हुआ है, जब झूठ को बहुत आसानी से हक़ीक़त का ऐसा ख़ूबसूरत जामा पहना दिया जाता है कि वो सच की तरह दमकने लगता है, तो ऐसे दौर में समाधान झूठ छुपाने में नहीं, बल्कि उसका पर्दाफ़ाश करने, झूठ की चमक वाले उसके आवरण खुरचकर अलग करने में है.
मैं विपरीत सियासी ध्रुवों के दोनों तरफ़ के अख़बार पढ़ती हूं. यक़ीन जानिए मैं आज भी हैरान हो जाती हूं कि ये अख़बार जो कभी निष्पक्षता के गढ़ माने जाते थे, वो आज सियासी तौर पर बंटे हुए हैं|
मैं अक्सर जब प्रवचन देने के मूड में होती हूं, तो ये कहती हूं कि मैं उन लोगों के विचार भी जानना चाहती हूं, जो मुझसे असहमत हैं क्योंकि मुझे लगता है कि किसी मुद्दे के अलग अलग पहलुओं के बारे में जानना-सुनना अच्छा होता है.
लेकिन सच तो ये है कि मैं उनके विचार जानने में इसलिए दिलचस्पी रखती हूं, क्योंकि मैं उन्हें ठीक से समझ लेना चाहती हूं, ताकि उनके तर्कों की धज्जियां उड़ा सकूं.
मुझे लगता है कि बुरा बोलने का जवाब अधिक से अधिक बोलना है और मुझे पता है कि ये बात सुनने में कितनी आसान और मज़ाक़िया लगती है. मेरे कहने का ये मतलब नहीं कि किसी को किसी भी वक़्त कुछ भी कहने की इजाज़त दे देनी चाहिए|
बोलने पर बंदिशें हों या नहीं हों?
मेरे ख़याल से ऐसा सोचना बचकानापन और हक़ीक़त से दूर ख़्वाबों की दुनिया में जीने जैसा होगा. बोलने की संपूर्ण आज़ादी एक ऐसी सैद्धांतिक दुनिया में ही ठीक हो सकती है, जहां पर इंसानों के बजाय सिर्फ़ सजीव विचार आबाद हों.
सभ्य समाज में बोलने पर कुछ बंदिशें ज़रूरी हैं. दूसरे विश्व युद्द के बाद जब तमाम देश, मानव अधिकारों का सार्वभौमिक घोषणापत्र जारी करने के लिए इकट्ठे हुए, तो ज़्यादातर इस बात पर सहमत थे कि ‘हिंसा भड़काने को’ दंडित किया जाना चाहिए. लेकिन, सोवियत संघ और उसके साथी देश इसमें ‘नफ़रत भड़काने’ को भी जोड़ना चाहते थे.
उन्होंने इसके लिए नाज़ियों की मिसाल दी. उनका ये तर्क ऊपरी तौर पर तो वाजिब ही था. लेकिन, सोवियत ख़ेमे के विरोधियों को इस बात की आशंका थी, जो सही भी थी कि, ‘नफ़रत को भड़काने’ को सज़ा देने की व्यवस्था की इतनी व्यापक व्याख्या की जाएगी कि इसमें सरकार की किसी भी तरह की आलोचना को शामिल कर लिया जाएगा.
इससे एक सवाल खड़ा होता है: ये कौन तय करे कि अभिव्यक्ति की आज़ादी कितनी सीमित और स्पष्ट हो? उन्नीसवीं सदी के अंग्रेज़ दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल ने लिखा है कि परिचर्चा पर पूरी तरह से पाबंदी लगाने का मतलब ये मान लेना है कि कोई ग़लत हो ही नहीं सकता|लेकिन पोप के प्रति पूरे सम्मान के साथ ये कहना ठीक होगा कि दुनिया में ऐसा कोई नहीं जो कभी ग़लत ही न हो. ऐसे में ये कौन तय करता है कि क्या कहने पर पाबंदी होनी चाहिए?
जब महात्मा गांधी को राजद्रोह के लिए गिरफ़्तार किया गया, तो उन्होंने लिखा कि ‘लगाव न ज़बरदस्ती पैदा किया जा सकता है और न ही क़ानून के ज़रिए थोपा जा सकता है. अगर किसी को किसी इंसान या व्यवस्था से लगाव नहीं है, तो उसे अपनी नाराज़गी खुलकर जताने की आज़ादी तब तक मिलनी चाहिए जब तक वो हिंसा के बारे में नहीं सोचता, हिंसा को बढ़ावा नहीं देता या हिंसा के लिए भड़काता नहीं है.’
ज़्यादातर लोग इस बात से सहमत होंगे. लेकिन ऐसे भाषण का क्या करेंगे, जो सीधे तौर पर भले ही हिंसा न भड़काता हो लेकिन जिसके चलते लोग ख़ुदकुशी करके अपनी जान दे दें.
हम सोशल मीडिया पर तंग किए जाने के बाद लोगों को ऐसा करते देख चुके हैं. जिन्हें इतना अपमानित किया जाए, इतना कोसा जाए कि वो ख़ुद ही अपनी जान लेने को मजबूर हो जाएं? पर क्या वाक़ई ऐसा है?
हम आज के उस प्रचलित विचार के बारे में क्या कहेंगे कि भाषण से सिर्फ़ हिंसा नहीं भड़कती- जैसा शारीरिक हमला सलमान रुश्दी ने झेला- बल्कि वो भाषण ही अपने आप में हिंसा हो?
ये बयान, ‘बुरा बोलने का जवाब अधिक बोलना है’ अपने आप में दिलकश और सादगी से भरा है. लेकिन इसमें बोलने के पीछे के कारण यानी सत्ता के बारे में विचार नहीं किया गया है. सत्ता तक किसकी पहुंच है? किसके पास ये हैसियत है कि वो ख़राब बोलने वालों को अधिक बोलकर जवाब दे सके?
अभिव्यक्ति की आज़ादी के हक़ में तर्क देने वालों को सत्ता के असमान संतुलन के कारण लगने वाली बंदिशों का भी ख़याल रखना होगा. मिसाल के तौर पर मुख्यधारा के प्रेस को ही लीजिए, जिस पर गिने चुने मुट्ठी भर अमीर लोगों का क़ब्ज़ा है और ज़ाहिर है, वो बहुत से लोगों के विचार को जगह ही नहीं देते हैं.
यहां तक कि अभिव्यक्ति की परिभाषा भी सीमित करने वाली हो सकती है. जैसे कि जब अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने सिटिज़न्स यूनाइटेड के केस में तय किया कि पैसा ही अभिव्यक्ति है. ऐसे में जो अमीर नहीं हैं, वो उसी अंदाज़ में ‘जवाब नहीं दे सकते’|
सोशल मीडिया के दौर में किस तरह का हो नियंत्रण?
सबसे बड़ी बात तो ये कि सोशल मीडिया कंपनियां अपने रहस्यमयी एल्गोरिद्म और पारदर्शिता के अभाव के चलते इस बात पर ज़बरदस्त नियंत्रण रखती हैं कि कौन बोल सकता है और कौन नहीं. वो अपने यूज़र्स को निलंबित कर देते हैं, उनकी अभिव्यक्ति को सेंसर कर देते हैं.
हां ये कंपनियां निजी हैं. लेकिन, आधुनिक समाज में इनका इतना व्यापक असर है, तो क्या उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र की जनउपयोगी संस्था के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए?
ऐसे भी लोग हैं जो ये सोच रखते हैं कि चूंकि सत्ता का असंतुलन है, बंदिशें हैं, तो हमें अभिव्यक्ति की मज़बूती से काट-छांट करनी चाहिए, ताकि सहिष्णुता पैदा की जा सके. इसमें कोई शक नहीं कि ये नेकनीयती है.
लेकिन, जैसा कि डेनमार्क के वकील, जैक मचांगामा ने तर्क दिया है, ‘किसी को ज़बरदस्ती ख़ामोश करके उसे सहिष्णुता का नाम दे देने से वो सहिष्णुता नहीं हो जाता. असली सहिष्णुता के लिए समझ चाहिए. समझ सुनने से पैदा होती है और सुनने की बुनियादी शर्त है कि कोई बोले|
सहिष्णुता के नाम पर सेंसरशिप के विचार में कितनी भी नेकनीयती छुपी हो, लेकिन ये एक तरह से झुक जाना ही है. ये स्वीकार कर लेना है कि ज़ख़्मी पलटवार नहीं कर सकते.
जब एरिज़ोना स्टेट यूनिवर्सिटी के कैंपस में अश्वेत विरोधी पोस्टर लहराया गया था, तो यूनिवर्सिटी ने ऐसा करने वालों को निष्कासित नहीं करने का फ़ैसला किया. इसके बजाय एक मंच आयोजित किया गया. पोस्टर की चर्चा की गई और छात्रों ने विशाल बहुमत ने अपनी राय इसके ख़िलाफ़ ज़ाहिर की.
जिन अश्वेत छात्रों ने ये आयोजन किया था, उनमें से एक ने कहा कि, ‘जब आपको नस्लवाद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का मौक़ा मिलता है और आप ऐसा करते हैं, तो आप अगली बार भी ऐसा करने के लिए और अधिक आत्मविश्वास हासिल कर लेते हैं.’
सहिष्णुता के नाम पर काट-छांट वाली सोच की जड़ में एक परेशान करने वाला ख़याल ये है कि अच्छे लोगों को बोलने की आज़ादी चाहिए ही नहीं, क्योंकि वो शायद किसी को कुछ ऐसा नहीं कहना चाहते, जो सुनने वाले के लिए तक़लीफ़देह हो.
इस तर्क के हिसाब से बोलने की आज़ादी तो बुरे लोगों के लिए है, जो बुरी बातें कहकर बचने के लिए एक कवच चाहते हैं. आज सामाजिक निंदा की जो संस्कृति फल फूल रही है, उसके केंद्र में एक ऐसा शुद्धतावाद है, जो हम सबसे ये उम्मीद करता है कि हम देवदूतों की तरह, तमाम कमियों से पाक होंगे, और देवदूतों को तो अभिव्यक्ति की आज़ादी चाहिए ही नहीं|
सच तो ये है कि हम सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दरकार है. इसमें कोई शक नहीं कि बोलने की आज़ादी ताक़तवर का एक बड़ा हथियार है. लेकिन, ये कमज़ोरों की ज़बान भी तो है.
ईरान की महिलाओं का साहसिक विरोध प्रदर्शन, या नाइजीरिया में पुलिस के ज़ुल्म के ख़िलाफ़ एकजुट हुए नौजवानों का एंडसार्स विरोध प्रदर्शन, अरब क्रांति: सबमें ख़ुद को अभिव्यक्त करने की ताक़त का प्रदर्शन था. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बग़ैर विरोध जताना नामुमकिन है.
आज बोलने की आज़ादी के लिए सबसे बड़ा ख़तरा क़ानूनी या सियासी नहीं, बल्कि सामाजिक है. आज इसका स्वरूप भले आधुनिक लगे, मगर ये कोई नया चलन नहीं है. अमेरिकी जनजीवन के मशहूर इतिहासकार एलेक्सिस डे टॉक़विल भी ये मानते थे कि आज़ादी के सामने सबसे बड़ा ख़तरा सियासी या क़ानूनी नहीं, सामाजिक है.
और जब जॉन स्टुअर्ट मिल ने ने हमें, ‘चलन वाले विचारों और एहसासों के षड्यंत्र’ के प्रति आगाह किया था, तो उसे पढ़कर आज भी ऐसा लगता है मिल ने रूढ़िवादी सोच से आज पैदा हुए ख़तरे को बहुत पहले भी भांप लिया था.
इस ख़तरे का एक ही समाधान हो सकता है और वो है सामूहिक कार्रवाई. सामाजिक झिड़की न केवल भय का माहौल बनाती है, बल्कि इस ख़तरे को स्वीकार करने में हिचक को भी जन्म देती है|
ग़ुस्से से भरी भीड़ से डरना इंसानी स्वभाव है. लेकिन, मुझे इस भीड़ से कम ख़तरा महसूस होगा अगर मुझे यक़ीन होगा कि जब ये भीड़ मुझ पर हमला करेगी, तो मेरा पड़ोसी ख़ामोश नहीं बैठेगा. हम भीड़ से भले डरते हों, मगर हम ख़ुद एक भीड़ हैं|
हम में से हर एक शख़्स अगर बोलने की आज़ादी के लिए खड़ा होगा, बेवजह की काट-छांट या सेंसरशिप में भागीदार बनने से इनकार करेगा, तो वो उस दायरे को बढ़ा रहा होगा, जिसके भीतर रहते हुए अपनी बात रखी जा सकेगी.
लोगों का विश्वास जीतने के लिए हमें नए सिरे से शुरुआत करनी होगी. आज सार्वजनिक परिचर्चा में, अच्छे इरादे वाली सोच मर चुकी है, और आदतन अभिव्यक्ति को सबसे ख़राब बनाकर पेश किया जाता है. ये सच है कि कुछ लोग नेक नीयत वाले नहीं होते.
शायद आज का ‘ट्रोल’ शब्द शायद उन्हीं की नुमाइंदगी करता है. लेकिन, हम बस इस आधार पर अच्छी नीयत के विचार को ख़ारिज नहीं कर सकते, क्योंकि कुछ लोग अच्छे इरादे से बर्ताव नहीं करते.
यहां अमेरिका के राष्ट्रपति जेम्स मैडिसन के शब्दों को दोहराना उचित होगा: ‘हर चीज़ के सही इस्तेमाल के लिए कुछ हद तक दुरुपयोग को अलग नहीं किया जा सकता है.’
हमें सम्मानजनक और तथ्यात्मक रूप से अपना पक्ष मज़बूती से रखने के लिए नए सिरे से शुरुआत करनी ही होगी. हमें इस बात पर रज़ामंद होना ही होगा कि वामपंथी मोर्चे का पाखंडी दयाभाव हो या फिर दक्षिणपंथ की घटिया दर्ज़े की हेकड़ी, दोनों को सियासी तर्क के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है|
हर पक्ष को सुनना ज़रूरी
हमें न केवल सच पर ज़ोर देना होगा, बल्कि उसकी बारीक़ियों का भी ख़याल रखना होगा. मिसाल के तौर पर, सामाजिक न्याय का कोई भी आंदोलन तब अधिक मज़बूत और आत्मविश्वास से लबरेज़ होता है, जब ये सलीक़े और तर्कों से लैस हो, क्योंकि तब वो किसी को सहमत बनाने के लिए ख़ुद को आसान करने की ज़रूरत नहीं महसूस करता.
हमें सबसे तेज़ आवाज़ को ही नहीं, हर पक्ष को सुनना चाहिए. ये सच है कि सोशल मीडिया ने शक्तिहीनों को मंच देकर सत्ता के पारंपरिक संतुलन को बदल दिया है. लेकिन ये भी सच है कि सोशल मीडिया के चलते सबसे बुलंद आवाज़ को सच समझ लेने की ग़लती का जोखिम भी बढ़ गया है.
हमें असहमति के मूल्यों की हिफ़ाज़त करनी होगी और इस बात पर सहमत होना होगा कि असहमति भी बहुत अहम है. और हमें बोलने की आज़ादी का तब तो और समर्थन करना चाहिए, जब ये हमारे एजेंडे के मुताबिक़ न हो, फिर चाहे वो कितना भी मुश्किल क्यों न हो.
हमें ख़ुद को आरामतलबी की लत से निजात दिलानी होगी. यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के लिए अमेरिका आने के लिए जब मैंने पहली बार नाइजीरिया को अलविदा कहा था, तो मुझे फ़ौरन ये एहसास हुआ था कि अमेरिका की मुश्किल समस्याओं के बारे में होने वाली सार्वजनिक परिचर्चाओं- जैसे कि आमदनी की असमानता और नस्ल- में मक़सद सच जानना नहीं, बल्कि हर एक को सहज बनाए रखना था और इस तरह लोग वो मंज़र न देखने का नाटक करते थे, जो वो सच में देख रहे होते थे|
मुश्किल बातें कही नहीं जाती थीं. सवाल पूछे नहीं जाते थे और अज्ञानता का ज़ख़्म रिसता रहता था. ईमानदारी से सच को स्वीकार करने से जो असहजता आ सकती है, उसे न स्वीकार करना अपने आप में बोलने की आज़ादी का दमन है.
मिसाल के तौर पर, कुछ अमेरिकी ये तर्क देते हैं कि आज के बच्चों को 1950 के दशक के नस्लवादी जिम क्रो क़ानूनों के बारे में नहीं पढ़ाया जाना चाहिए, क्योंकि इससे वो असहज हो जाएंगे और इस तरह वो उन नौजवानों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह मोड़ लेते हैं, और नई पीढ़ी अपने ही इतिहास से अनजान रह जाती है.
हमें ये मानकर चलना बंद करना होगा कि हर कोई सब कुछ जानता है या उसे जानना चाहिए. हमें ये मांग करनी चाहिए कि लोग सोशल मीडिया पर भी वैसा ही बर्ताव करें, जैसा वो असल ज़िंदगी में करते हैं और हमें सोशल मीडिया में वाजिब सुधारों की मांग भी करनी चाहिए.
जैसे कि गुमनामी को ख़त्म करना या विज्ञापनों को केवल असली नाम वाले खातों से जोड़ना. इससे असली लोगों की आवाज़ को बढ़ावा देने का हौसला मिलेगा, न कि अनैतिक बॉट्स को.
क्या हो, अगर हम सब मिलकर और ख़ास तौर से हर सियासी तबक़े के ज़्यादा पहुंच वाले, रक्षा करने वाले, राय बनाने वाले, राजनीतिक और सांस्कृतिक नेता, संपादक, सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर मोटा मोटी कुछ नियमों का पालन करने के लिए इन विचारों पर सहमत हो जाएं?
वाजिब बातों पर सहमत लोगों का ये गठबंधन अपने आप ही अतिवादी बातें करने वालों की आवाज़ को मद्धम बना देगा. क्या ये सोच बचकानी है? शायद. लेकिन सोच समझकर एक हद तक बचकानेपन को अपनाने से एक बदलाव की शुरुआत हो सकती है.
आख़िर इंटरनेट को मानव संपर्कों के आदर्श के तौर पर ही तो बनाया गया था. भले ही ये बचकाना ख़याल रहा हो, फिर भी इससे इंसानों के आपस में संवाद करने के तरीक़े में बहुत बड़ा बदलाव आया.
सामाजिक निंदा ही हमारा आज का संकट है. जॉर्ज ऑरवेल ने लिखा था कि, ‘अगर लोगों की बड़ी तादाद अभिव्यक्ति की आज़ादी में दिलचस्पी रखती है, तो फिर ये आज़ादी हासिल होगी ही, भले ही क़ानून इस पर पाबंदी लगाता हो.’
मैं इसमें एक बात और जोड़ना चाहूंगी, ‘हम अपना भविष्य सुरक्षित कर सकते हैं. हमें बस नैतिक साहस जुटाने की ज़रूरत है.’
सौजन्य : bbc
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