दलित क्या पानी पीने के हकदार नहीं
शायर अज़हर इनायती ने लिखा है-
अजब जुनून है ये इंतिक़ाम का जज़्बा,
शिकस्त खा के वो पानी में ज़हर डाल आया।
देश में धार्मिक और जातीय भेदभाव के कारण समाज में जो दुश्मनी का माहौल बन गया है, अब उसमें इसी तरह इंतिकाम यानी बदला लेने की घटनाएं हो रही हैं। तमिलनाडु के पुडुकोट्टई जिले के वेंगईवयाल गांव में एक झकझोरने वाला मामला सामने आया है। इस गांव के बच्चे पिछले कुछ दिनों से बीमार पड़ रहे थे। डाक्टर ने बीमारी का पता लगाने के लिए पानी की जांच करने कहा। गांव में जिस पानी की टंकी से आपूर्ति होती थी, उस पर चढ़कर देखा गया तो पानी पीला नजर आया।
जांच के बाद पता चला कि लगभग 10 हजार लीटर वाली इस पानी टंकी में किसी ने बड़ी मात्रा में मानव मल डाल दिया, ताकि पानी दूषित हो जाए। यह अमानवीय कृत्य केवल इसलिए हुआ, क्योंकि वेंगईवयाल गांव आज भी दलित विरोधी मानसिकता से जकड़ा हुआ है। एक और चिंताजनक और हैरान करने वाली बात ये है कि यह खबर देते हुए कुछ लोगों ने अनुसूचित या दलित समुदाय के लिए बनी पानी टंकी लिखा है। हमने प्रेमचंद की कहानी ठाकुर का कुआं तो पढ़ी है, लेकिन आजादी के अमृतकाल में भी अगर दलितों की पानी टंकी पढ़ना पड़े, तो ये समझना कठिन नहीं है कि आजादी का अमृत केवल सवर्ण-संपन्न तबकों के लिए ही है। गरीब पहले भी गुलाम थे, अब भी उनके हालात गुलामों की तरह ही बदतर हैं।
जिस गांव में दलितों के पानी पीने पर भी साजिश रची गई, वहां इस बात का भी खुलासा हुआ है कि यहां जातिगत भेदभाव हर जगह है। गांव में चाय की दुकान पर दलितों के लिए अलग गिलास रखे हुए हैं। दलितों का ये भी कहना है कि उन्हें तीन पीढ़ियों से मंदिर के भीतर प्रवेश की अनुमति नहीं है। पानी टंकी को मानव मल से दूषित करने की शिकायत के बाद जब यहां की जिलाधिकारी कविता रामू और पुलिस अधीक्षक वंदिता पांडे गांव में पहुंचीं, तब लोगों ने इन सारे भेदभाव की शिकायत की। बताया जा रहा है कि जिस चाय दुकान में दलितों के लिए अलग गिलास रखने का रिवाज था, उसके मालिक के खिलाफ शिकायत दर्ज की गई है।
दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलवाने की पहल भी जिलाधिकारी ने की। उन्होंने कहा कि मंदिर के दरवाजे सभी के लिए खुले होने चाहिए और सभी को यहां दर्शन की अनुमति दी जानी चाहिए। भविष्य में ऐसी घटना ना हो इसके लिए यहां कैमरे लगाए जाएं। जिलाधिकारी दलित समुदाय के लोगों को मंदिर के अंदर ले गईं। लेकिन खबरों के मुताबिक जिस समय जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक वहां पहुंचीं तो वहां पर पूजा चल रही थी, उसी दौरान कथित रूप से ऊंची जाति की एक महिला ने अपने शरीर में देवता के आने की बात कही और कहा कि नीची जाति के लोगों को मंदिर में प्रवेश नहीं करना चाहिए। अगर यह बात सही है तो फिर यह समझ लेना चाहिए कि जिलाधिकारी की इस स्वागतयोग्य पहल का कोई भविष्य नहीं है।
दरअसल जाति की बेड़ियों ने समाज को इस तरह बांधा हुआ है कि उसे टूटने में सदियां लग जाएंगी। वैसे यह विचारणीय है कि वेंगईवयाल गांव में अगर पानी टंकी का दुखद प्रकरण घटित नहीं होता, तो क्या पुडुकोट्टई जिला प्रशासन को दलितों के साथ हो रहे भेदभाव की खबर लग पाती। अगर तीन पीढ़ियों से दलितों को मंदिर प्रवेश नहीं मिला था, तो यह बात पहले से प्रशासन के संज्ञान में क्यों नहीं थी। जो भेदभाव जिले के एक गांव में हुआ है, क्या अन्य गांवों-शहरों का भी वही हाल नहीं होगा। दुखद बात ये है कि दलितों के साथ ये अन्याय उस तमिलनाडु में हुआ, जो ई वी रामास्वामी पेरियार की जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों रहीं।
पेरियार ने पूरी जिंदगी अंधविश्वास, अतार्किकता, रूढ़िवादी विचारों और ब्राह्मणवाद की मुखालफत की। उन्हें हिंदू धर्म के खिलाफ बताया जाता है, लेकिन असल में वे सभी संगठित धर्मों के खिलाफ थे। पेरियार हर तरह के भेदभाव के खिलाफ थे, चाहे वह जाति या धर्म को लेकर हो या फिर लैंगिक आधार पर। इसलिए उन्होंने बाल विवाह के उन्मूलन, विधवा महिलाओं की दोबारा शादी के अधिकार, पार्टनर चुनने या छोड़ने, शादी को इसमें निहित पवित्रता की जगह पार्टनरशिप के रूप में लेने, आदि के लिए अभियान चलाया था। महिलाओं से केवल बच्चा पैदा करने के लिए शादी की जगह महिला शिक्षा अपनाने को कहाथा। पेरियार का मानना था कि हमारे देश को आजादी तभी मिली समझनी चाहिए, जब ग्रामीण लोग, देवता, अधर्म, जाति और अंधविश्वास से छुटकारा पा जाएंगे।
सौ साल पहले समाज की जिन बुराइयों की ओर पेरियार ने ध्यान दिलाया था, बल्कि उससे मुक्ति के लिए आंदोलन भी छेड़ा, आज भी उसी दलदल में समाज फंसा हुआ है। और जातिगत भेदभाव का यह कीचड़ केवल तमिलनाडु नहीं, पूरे भारत में फैला हुआ है। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 2019 से 2021 के दौरान, देश में दलितों के खिलाफ अत्याचार में 11 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। दलित उत्पीड़न के मामले 2019 में 45,961 थे जो 2021 में 50,900 हो गए हैं। अब 2022 भी बीत रहा है और तब पता चलेगा कि आंकड़ों में और कितनी वृद्धि हुई है।
कैलेंडर के पन्ने आगे बढ़ते जा रहे हैं और समाज पीछे की ओर लुढ़कने में मग्न है। धर्म, संस्कृति, परंपरा के नाम पर सड़ी-गली प्रथाओं और मानसिकता को समाज गर्व से ढो रहा है। ऐसे में दलित लड़कियों के साथ बलात्कार हो या दलित छात्रों को पीट कर मारा जाए या दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने से रोका जाए या दलित के मंदिर प्रवेश पर रोक लगाई जाए, तो ये घटनाएं व्यापक समाज को मामूली ही लगेंगी। क्योंकि जिस समाज में इंसान को उस पर थोपी गई जाति के कारण पानी पीने का हकदार भी न माना जाए, वहां इंसाफ या नैतिकता की सारी बातें बेमानी ही हैं।
सौजन्य : Desh bandhu
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