सूखी-बासी रोटियों से जरूरतमन्द महिला ‘वश’ में हो जाती है, पढ़ें दलित साहित्य की चर्चित आत्मकथा ‘अछूत’
दलित लेखक दया पवार ने जब्बार पटेल की फिल्म डॉ. बाबा साहेब आम्बेडकर की पटकथा लिखी. इस फिल्म को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. दया पवार को उनके साहित्यिक योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया.
दया पवार की आत्मकथा ‘बलुत’(अछूत—1979) एक चर्चित पुस्तक है. उनकी आत्मकथा दलित साहित्य में पहली आत्मकथा है. दया पवार की आत्मकथा के कई भाषाओं में अनुवाद हुए और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह चर्चित हुई. ‘बलुत’ का हिंदी संस्करण ‘अछूत’ नाम से राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. प्रस्तुत है ‘अछूत’ का एक अंश-
हमारा स्कूल लोकल बोर्ड द्वारा बनाया गया. शायद इसलिए हमें बाहर न बैठाते. इस सन्दर्भ में तात्या का अनुभव उलटा है. तब कक्षाएं हनुमान मन्दिर में लगतीं. महार के लड़के सीढ़ियों पर बैठते. एक बार ब्राह्मण मास्टर ने तात्या को रूल फेंककर मारा. तात्या क्या कर सकते थे? उन्होंने वही रूल फिर मास्टर को दे मारा. उनके माथे पर गहरी चोट आई. मास्टर का बहता खून देखकर तात्या महारवाड़ा से गयब हो गए. तब से तात्या स्कूल गया ही नहीं.
महारवाड़ा के ऊपरी भाग में विशाल चट्टानें थीं. वहां बड़े-बड़े विशाल काले पत्थरों की शिलाएं पड़ी थीं. चारों ओर ‘साबरबोंड’ का जंगल. ये साबरबोंड महारवाड़ा में अकाल के समय बहुत उपयोगी साबित होते. ऐसे पथरीले हिस्से में हमारा स्कूल था. स्कूल की इमारत भव्य; दूर-दूर से दिखती. उस स्कूल में मेरा नाम तीसरी क्लास में लिखवाया गया. मास्टर ब्राह्मण ही थे, एक पैर से लंगड़े. सफेद कपड़े पहनते. सिर पर गांधी टोपी. उनके पास जाने पर दूध-घी की गन्ध आती.
स्कूल चैथी क्लास तक ही था. पहली से चैथी तक कक्षाएं एक ही हॉल में लगतीं. स्कूल जाते समय स्लेट-बस्ते के साथ-साथ बैठने के लिए बारदाने का एक टुकड़ा भी ले जाते.
शुरू-शुरू की बात स्पष्ट याद है. गांव के मराठे लड़कों के साथ एक ही लाइन में हमें बैठने नहीं दिया जाता था. अलग से बैठना पड़ता. प्यास लगने पर स्कूल में पानी न मिलता. सीधे महारवाड़ा आना पड़ता. पास के चमारवाड़ा में भी पानी न मिलता. सप्ताह में एक दिन लड़कों को ही सारा स्कूल गोबर से पोतना पड़ता. लड़कों की बारी तय रहती.
वैसे ये काम ऊंची कक्षा के लड़कों को ही करने होते थे. ब्राह्मण मास्टर दोपहर में मस्त हो सो जाते. सामने टेबल पर पैर रखकर सोना उनकी आदत थी. कभी-कभी मास्टर हमें सामने के बगीचे से नींबू-मौसंबी चुराकर लाने को कहते. ब्राह्मण मास्टर कक्षा में हमसे छुआछूत मानते हैं, यह महसूस न होता. परन्तु घर पर मास्टर बहुत ही अलग तरह का व्यवहार करते. सुबह पूजा-अर्चन में रहते. उनकी छोटी-सी किराने की दुकान थी. दुकान जाते समय पैसे न रहने पर अंजुरी-भर अनाज लेकर जाने से भी सामान मिल जाता. परन्तु मास्टर के घर, बाहर ही देहरी पर खड़े रहना पड़ता. घर में प्रवेश करने की मनाही थी. देहरी से भी छूत तो नहीं लगेगा, इसकी सावधानी रखकर ही माल दिया जाता. स्कूल के मास्टर और घर के मास्टर में बहुत अन्तर दिखाई देता. ऐसा लगता कि घर आते ही उन्होंने खूंटी पर टंगी अपनी जाति का जनेऊ फिर चढ़ा लिया हो.
मैं शहर में आ गया था. इसलिए मेरे साथ कुछ शब्द भी शहर आ गए. मेरे बोलने में अक्सर ‘सबर’ शब्द आता. विशेषकर कबड्डी खेलते समय ‘रुको’ के अर्थ में मैं उसका उपयोग करता. मराठों के लड़कों को यह शब्द समझ में न आता. उनको यह गई-गुजरी भाषा लगती. वैसे देखा जाए तो देहात के लड़कों से मैं अच्छी मराठी बोल लेता था. फिर भी मेरी हंसी उड़ाई जाती. धीरे-धीरे उनके साथ मेरा खेलना बन्द हो गया.
भाषा के कारण एक बात याद आई. तालुके के स्कूल में भी इसके लिए ‘महारों की भाषा’ कहकर तिरस्कार किया जाता. मर्मांतक घाव लगता. जोश में आकर मैं लड़कों से झगड़ा कर लेता. हमारी भाषा कैसी शुद्ध है, यह बात उनके गले उतारता. मेरी बातचीत में ‘नहीं’ और ‘बाज़ार’ शब्द ख़ासतौर पर आते. ‘नहीं’ और ‘बाज़ार’ शब्द उर्दू के ख़ास शब्द हैं और ऐसे ही अनेक शब्दों को मराठी में राज्यमान्यता मिल गई—तब मेरी भाषा के ‘नहीं’ और बाज़ार’ शब्द किस तरह सर्वथा उचित हैं, यह मैं विशेष रूप से स्पष्ट करता. ‘पाणी’ का ‘ण’—इस शब्द का उच्चारण कई सालों तक ठीक से न जमता. इस कारण भी मेरी बड़ी हंसी उड़ाई जाती.
पर एक बात समझ में आई. किताबी दुनिया के कारण मैं अपने बस्ती के अनुभवों से दिनोंदिन दूर हटता जा रहा हूं. पढ़ने-लिखने के कारण भी अधिक संवेदनशील होता जा रहा था. अनावश्यक प्रश्न खोपड़ी में घोंसला बना लेते. कोंडवाडा (कांजीवाड़ा), संग्रह में एक कविता में मैंने लिखा है:
किताबों से भला क्योंकर पहचान हुई?
अच्छी थी गोशाला, नदियों के किनारे।
गांव के ढोर चराए होते—
ऐसे डंक तो न डंसते।
यह मुझे अपना ही वर्णन लगता है. इन जहरीले डंकों के कारण जीवन में जो थोड़ा-बहुत मुक्त आनन्द था, वह भी जाता रहा. महारवाड़ा के लोग वैसे जानवरों की जिन्दगी जी रहे थे. उनके जीवन में भी एक हठी दर्शन था. लेकिन मुझे उनसे घृणा होने लगी. दूसरी तरफ जिनका जीवन आदर्श लगता, वे मुझे अपने में समा लेने को तैयार न थे. ऐसी चमत्कारिक पहेली के बीच मैं घिरा था.
जैसे-जैसे मुझमें समझ आती गई, मैं अकेला होता गया. गांव के लड़के खेलों में तुच्छता से पेश आते और महारवाड़ा के लड़कों का खेल पसन्द न आता. उनके साथ खेलने में मन न रमता. फिर एक ही आनन्द रह गया. जो भी किताब हाथ लगी, उसमें रम जाना. स्कूल के सामने एक ऊंचा पहाड़ था. उन दिनों वह बहुत ही हरा-भरा था. आज की तरह उसका सिरा नंगा-बुच्चा नहीं था. उस पहाड़ी पर मां लकड़ियों का गट्ठा लाने जाती. इस पहाड़ के पीछे क्या होगा? यह प्रश्न हमेशा मेरे दिमाग में कौंधता. इस पहाड़ी के पठार पर एक पोस्टमैन दोपहर में नियमित जाता और शाम को वापस उतरता था. तालुके की ओर उसका जाने का रास्ता हमारे स्कूल से ही था. उसके हाथ में झुनझुने से सजी लाठी होती. सिर पर लाल पगड़ी होती. खाकी कपड़े. उसका आगमन स्कूल की घड़ी थी. उनकी झुनझुनेदार लाठी से हमारे स्कूल छूटने का समय हो गया है, इसका अन्दाज होता. मुझे बहुत समय तक यह प्रश्न सताता रहा कि यह रोज ऊपर पहाड़ पर क्यों जाता है? बाद में इस प्रश्न का समाधान हुआ. उस पार कोतुल नाम का एक बाज़ार गांव. उस तरफ की डाक लेकर वह जाता. वह पहाड़ की चोटी पर जब पहुंचता, तब दूसरा पोस्टमैन कोतुल की डाक लेकर वहां पहुंचता. उनकी डाक की अदला-बदला होती. मैं सोचता, जंगली जानवरों से इन्हें डर क्यों नहीं लगता?
शायद स्कूल में बच्चे बढ़ गए होंगे. एक की जगह दो शिक्षक हो गए. नए मास्टर आए. वे महार थे. काले-सांवले चेहरे पर चेचक के दाग. नेहरू-कुरता और सफेद लुंगी पहनते. बाल संवारकर अच्छी तरह रखते. उनके सिर पर टोपी न होती. गांव में रहने के लिए कहीं भी मकान मिलना उनके लिए असम्भव था. वे हमारे ही घर के ओसारे में रहने लगे. मास्टर की शादी नहीं हुई थी. मास्टर को कविता लिखने का शौक था.
परन्तु उनकी कविताएं गीत हुआ करतीं—डॉ. अम्बेडकर के आन्दोलन के सन्दर्भ में. डॉ. अम्बेडकर के शहरी आन्दोलन के बारे में सबसे पहले उन्हीं से सुनने को मिला. घर में मास्टर मुझसे बड़ा अच्छा व्यवहार करते, परन्तु स्कूल में ख़ूब डांटते-फटकारते. मुझे ठीक से गणित न आता. एक-दो बार उनसे अच्छी पिटाई होने की बात भी याद आती है. उनका गांव ऊंची पहाड़ियों के पीछे था. एक बार उनके पिताजी बकरी लेकर आनेवाले थे. मास्टर को ताजा दूध मिले, इसलिए उनके पिताजी ने यह बकरी ख़ासतौर पर खरीदी थी. बकरी लाने के लिए एक दिन मैं उनके साथ उस पहाड़ी पर गया. पहाड़ी की चिपटी सीढ़ियां चढ़ते हुए बड़ी घबराहट होती. वहां से गांव चित्रों की आकृति-सा दिखता. आदमी, पेड़—सब चींटियों-से दिखते. वहां से पहाड़ के उस पार वाला अज्ञात प्रदेश पहली बार ही देख रहा था. मास्टर बता रहे थे— ‘वह दूर—जो दीख रहा है न, वह है कलसूबाई का शिखर!’ मुला नदी चांदी की धारा-सी चमकती दिखाई देती. जब तक हम उस पार नीचे उतरें, तब तक मास्टर के पिताजी बकरी लेकर आ गए.
वैसे मास्टर औरतों के मामले में बहुत ‘चालू’ थे. पहाड़ी के उस पार के गांव की दो औरतें हमेशा अंडों से भरी टोकरी लेकर आया करतीं. वे यह माल तालुके तक पहुंचाते. पता नहीं, उन दो औरतों के साथ मास्टर ने कैसे सम्बन्ध स्थापित कर लिये! अक्सर वे स्कूल के बरामदे में ही आराम करतीं. स्कूल की चाबियां मास्टर के पास ही रहा करतीं. एक दिन जब मैं स्कूल जाता हूं, तो देखा कि वहां कागज, धागा, लड्डू का चूरा पड़े हुए थे. मेरे मन में अजीबोगरीब शंकाएं घूमने लगती हैं. स्कूल की छुट्टी होने के बाद क्या हुआ होगा, इसका अन्दाज लगता है. चाचा, मास्टर का दोस्त था. उन दोनों की बड़ी गहरी दोस्ती. वे दोनों आते-जाते इन औरतों का मजाक उड़ाते. मुझे ऐसा लगता कि इस प्रकार किसी की बदनामी नहीं करनी चाहिए. इतने दिनों के बाद आज मैं यह बता पा रहा हूं.
वैसे यह सब महारवाड़ा के लिए नया नहीं था. अनेक बातें सुनने में आतीं. डलिया-भर सूखी-बासी रोटियां किसी जरूरतमन्द महिला को देने पर वे तुरन्त अपने वश में हो जाती हैं.
सौजन्य : News18
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