पीरियड्स में बीमार बच्चे को भी छू नहीं सकती:गाय-गोबर के बीच सोना पड़ता है, त्योहार हो तो गांव में रहने नहीं देते
Posted On November 17, 2022
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हर महीने दो से तीन दिन गाय-भैंसों के बीच रहना पड़ता है। खाना-पीना-सोना सब कुछ वहीं। रातभर मच्छर काटते हैं, ऊपर से गोबर की बदबू। कपड़े से नाक दबाए, दम घुटने लगता है। रात-बेरात वॉशरूम जाना पड़े तो अलग मुसीबत, उसी गोबर पर पैर रखकर खेत में जाना पड़ता है।
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले की जाणा गांव की ऐलू देवी इतनी सहजता से ये सारी बातें कहती हैं कि मैं सोच में पड़ जाती हूं। एक तरह महिलाओं को लेकर सरकारें बड़े-बड़े दावे करती हैं। दूसरी तरफ ऐलू देवी की तरह अनगिनत महिलाओं को अपने सबसे मुश्किल दिनों यानी पीरियड्स के दौरान घर से बाहर गाय-भैंसों के कमरे में, झोपड़ी में या अलग कमरे में रहना होता है। यहां के लोग इसे बाहर बैठना कहते हैं।
फिलहाल हिमाचल प्रदेश में वोटिंग हो चुकी है। 8 दिसंबर को फैसला भी आ जाएगा, लेकिन सदियों से दंश झेल रही इन महिलाओं की स्याह जिंदगी में कब उजाला होगा, कहना मुश्किल है।
इन्हीं महिलाओं का हाल जानने मैं दिल्ली से तकरीबन 550 किलोमीटर दूर हिमाचल प्रदेश के कुल्लू पहुंची।
घना और वीरान जंगल, जंगल के बीचों-बीच संकरा रास्ता। इक्क-दुक्का गाड़ियों, झरने और पक्षियों का चहचहाना छोड़ दें, तो किसी और आवाज की यहां दखल नहीं। दखल है तो बस यहां के देवी-देवताओं और उनसे जुड़ी मान्यताओं की, जो हर गांव में अपनी पूरी ठसक के साथ सुनाई देती हैं।
यहां से 40 किलोमीटर चलकर मैं पहुंची जाणा गांव। 2200 मीटर की ऊंचाई पर बसे इस गांव में तकरीबन 1400 लोग रहते हैं। ज्यादातर ठाकुर कम्युनिटी के लोग। गांव की शुरुआत में ग्राम देवता का मंदिर है। शाम का वक्त, सूरज पहाड़ों के पीछे छिपने लगा था। ऊपर चढ़ते-चढ़ते मेरी सांस फूल रही थी।
लकड़ी से बना पारंपरिक पहाड़ी घर। पहली मंजिल में बनी खिड़की से झांकती 2-3 साल की लड़की। दूसरी खिड़की से देखतीं एक महिला। यहां मुझे घर के बाहर लगे नल से पानी भरती हुई 40 साल की ऐलू देवी मिलती हैं। उनकी चचेरी सास मंजू देवी भी पास में ही बैठी हैं।
मैं ऐलू देवी से पूछती हूं गाय-भैंसों के साथ रहने में डर नहीं लगता? पहले काफी डर लगता था, पूरी-पूरी रात सो नहीं पाती थी। अजीब सी आवाज कानों में गूंजती थी। और अब…? अब भी कुछ नहीं बदला, मजबूरी में रात गुजारनी ही पड़ती है। आखिर हम कर ही क्या सकते हैं।
मंजू देवी उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं,’ हम तो डर के मारे रात में टॉयलेट भी नहीं जाते। कई बार तो पूरी रात पेट पकड़ कर पड़े रहते हैं। बाकी लोग अंदर सोते हैं। आखिर आधी रात को हम किसे आवाज दें।’
आखिर ऐसी क्या मजबूरी है? आज के जमाने में कौन इतना भेद-भाव करता है? ऐलू देवी कहती हैं, ‘करना ही पड़ेगा। हजारों साल से हमारे घर की महिलाएं ऐसा करती आ रही हैं। हमने कुछ गलत किया, तो गांव के देवता नाराज हो जाएंगे। हम नहीं चाहते कोई अनहोनी हो।’
यहां से मैं आगे बढ़ती हूं। रास्ते में मुझे 67 साल की मन्होरी मिलती है। पहाड़ी वेशभूषा में सीढ़ियों पर बैठी हैं। जाणा मन्होरी का मायका है। वे कुछ दिनों के लिए यहां आई हैं। मन्होरी पीरियड शब्द नहीं जानती हैं। उनसे बाहर बैठने वाले दिनों की बात का जिक्र करती हूं।
वे कहती हैं, ’जब तारीख आती है तो हम गांव के बाहर बनी झोपड़ी में रहते है। बाहर इतनी ठंड लगती कि पूरा शरीर अकड़ जाता है। घुटने और हाथों में दर्द होने लगता है। इसी के चलते मुझे ब्लड प्रेशर की शिकायत भी रहने लगी।’
मन्होरी कहती हैं कि जिन लोगों के पास पैसे हैं, उन्होंने अब इसके लिए अलग पक्के का कमरा बना लिया है, लेकिन अभी भी ज्यादातर लोगों को 2-3 दिन उन्हें गायों के साथ ही रहना पड़ता है।
अगर बच्चा बीमार हो या जरूरी का काम हो तो भी घर से बाहर नहीं आ सकतीं? नहीं आ सकती, जो नियम-कायदें हैं, उससे मानना ही पड़ेगा। 2-3 साल का बच्चा हो तो मां अपने साथ रखती हैं, लेकिन उससे बड़े बच्चे अलग ही रहते हैं। बच्चा बीमार है तो परिवार के दूसरे लोग उसकी देखभाल करेंगे।
अगर परिवार में कोई और नहीं है, तो पड़ोस के लोग बच्चे की देखरेख करते हैं। जब मेरे बच्चे छोटे थे तो कई बार ऐसा हुआ, लेकिन मैं मन मारकर रह जाती थी।
इन इलाकों में ज्यादातर घर लकड़ी से बने हैं। सबसे ऊपर वाले हिस्से में घर के कुलदेवता रहते हैं। उसके नीचे रहने के कमरे और किचन होता है। सबसे नीचे के कमरों में गाय और बाकी जानवर बांधे जाते हैं। इसे यहां के लोग खुड कहते हैं। पीरियड्स के दिनों में महिलाएं यहीं रहती हैं। जिन घरों में केवल एक महिला है, वहां गांव की कोई और महिला इनके खाने-पीने की व्यवस्था करती है।
मन्होरी से मिलने के बाद मैं आगे बढ़ती हूं। पहाड़ों पर चलते-चलते थक जाती हूं। थोड़ी देर आराम करने के लिए एक सीढ़ी पर बैठती हूं। यहीं मेरी मुलाकात सुआंरू राम से हुई। पेशे से किसान सुआंरू राम 68 साल से जाणा में रह रहे हैं।
मैं उनसे पूछती हूं आप महिलाओं को उन दिनों में घर के बाहर क्यों रखते हैं? वे कहते हैं,’ये तो दादा-बाबा के समय से चली आ रही परंपरा है। औरतों को इस दौरान गौशाला में ही रहना पड़ता है। 4 दिन इन्हें घर के अंदर नहीं आने देते। उन्हें कोई छूता नहीं है। नहाने के लिए अलग से पानी भी कोई और ही देता है।’
मैं कहती हूं औरतों को बड़ी दिक्कत होती होगी… वे झट से कहते हैं- कोई दिक्कत नहीं होती। औरतों को आदत पड़ गई है। पहले तो बच्चे भी गोशाला में ही होते थे। जब तक बच्चे की नाल नहीं काटते, तब तक महिलाएं घर के अंदर नहीं आ सकती थीं।’
यहां से और ऊपर बाजार की ओर जाते हुए मुझे 12वीं में पढ़ने वाली शिवानी और सोनी मिलीं। इनकी कहानी में भी ऐसा ही दर्द छिपा है। शिवानी कहती हैं,’पीरियड्स के पहले दिन हम स्कूल तक नहीं जा सकते। दूसरे दिन चाहे कितनी ही ठंड हो, सिर धोकर, नहाने के बाद ही स्कूल जा पाते हैं। इसके साथ एक दिक्कत ये कि हम खुद से नहा भी नहीं सकते। घर में कोई और हमारे ऊपर पानी डालता है।’
शिवानी स्टेट लेवल की एथलीट हैं। मैं पूछती हूं आप पढ़ी-लिखी हो फिर भी भेदभाव को मान रहे हो। इस पर शिवानी कहती हैं- ‘जब तक हम गांव में हैं, इस परंपरा को मानना ही पड़ेगा। अकेले हम कुछ बदल नहीं सकते। हां गांव से बाहर निकलने के बाद मैं इस परंपरा को नहीं मानूंगी।’
यहां से नीचे उतरते हुए मेरी मुलाकात वीणा से हुई। वीणा एक सेब के बगीचे की मालकिन हैं। यहां उनका मायका है और ससुराल लाहौल-स्पीति में। शादी बाद उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया है। इसलिए उनके ससुराल में इस प्रथा को नहीं मानते हैं, लेकिन जब भी मायके आती हैं, उन्हें यहां की परंपरा माननी पड़ती है।
वे कहती हैं,‘मैं अपने ससुराल में तो इसे नहीं मानती, लेकिन यहां रहते अगर डेट आती है तो नीचे के कमरे में रहना होता है। दो से तीन दिन किसी से मिलना नहीं हो पाता। खाना देने वाले भी दूर से खाना देकर चले जाते हैं। नहाने के लिए भी किसी को आवाज देती हूं, तो वो शरीर पर पानी डालकर चला जाता है।’
जाणा की महिलाओं से बात करने के बाद मेरा अगला पड़ाव है विस्ट बेहड़ गांव। कुल्लू से करीब 10 किलोमीटर दूर पहाड़ों पर बसे इस गांव में 40-45 घर हैं। ज्यादातर कच्चे मकान। इक्का-दुक्का ही पक्के घर है। यहां भी ठाकुर कम्युनिटी का वर्चस्व है। 10वीं तक की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूल है। आगे की पढ़ाई के लिए कुल्लू या दूसरे शहरों में बच्चों को जाना पड़ता है।
पहाड़ी पर बना तीन मंजिला घर। सबसे निचले हिस्से में एक छोटा सा कमरा। उसके अंदर और बाहर गाय बंधी हैं। बाहर चटाई पर अनाज सूखने डाला रखा है। दूसरी तरफ मुंडेर पर 20-22 साल की दिव्या बैठी हैं। दो साल पहले ही उनकी शादी हुई है।
मैं बात करने के लिए पास जाती हूं, उनकी तरफ माइक बढ़ाती हूं। तभी वो बोल पड़ती हैं- ‘इधर कहां आ रही हैं आप। मैंने छू दिया तो आप अशुद्ध हो जाएंगी, अपवित्र हो जाएंगी।’
मैं पूछती हूं आपके छूने से मैं अपवित्र कैसे हो जाऊंगी? गहरी सांस लेकर पहले मुझे दूर बैठने का इशारा करती हैं। फिर कहती हैं- ‘अभी हम किसी को छू नहीं सकते। हमारे देवता नाराज हो जाएंगे। आप किसी और से बात कर लो।’
दिव्या को तीन दिन घर से बाहर रहना है। आज पहला दिन है, इसलिए बाहर बैठी हैं। शाम में उनके लिए लिए अलग कमरा मिलेगा। जहां वे दो दिनों तक अकेली रहेंगी। उसी कमरे में उन्हें खाना पहुंचाया जाएगा।
दिव्या से बात करने के बाद मैं वापस कुल्लू पहुंचती हूं। यहां मेरी मुलाकात एक्टर, लेखक और थिएटर डायरेक्टर केहर सिंह ठाकुर से होती है।
वे अपनी मां के साथ हुआ एक वाकया बताते हैं, ‘एक रात गांव में बहुत बर्फबारी हुई, 2 से 3 फीट बर्फ थी। इस बीच मेरी मां को पीरियड्स आ गए। उन्हें पीरियड्स के बाद घर में अंदर आने के लिए कपड़े धोने थे, नहाना था।
मैं उनके नहाने के लिए गर्म पानी लेकर गया था, लेकिन जितनी देर में कपड़े धुलते, वो पानी ठंडा हो गया। मां को उस हाड़ कंपाने वाली ठंड में भी खुले में नहाना पड़ा। तब मुझे लगा कि ये बंद होना चाहिए, लेकिन जागरूकता की कमी से लोग ऐसा कर नहीं पा रहे।’
डॉ. देवकन्या ठाकुर शिमला के एस.जी.वी.एन. शनान के जनसंपर्क विभाग में सहायक प्रबंधक हैं। वे अपनी बेबसी जाहिर करते हुए कहती हैं,‘मैं एक पढ़े-लिखे परिवार से आती हूं, PhD कर चुकी हूं, लेकिन मुझे अपने घर में पीरियड्स के दौरान बाहर रहना पड़ता है। हम चाहते हैं कि बदलाव हो, लेकिन वो किस कीमत पर हो, ये तय करना मुश्किल है। अपने माता-पिता ही हमें मजबूर कर देते हैं।’
वे कहती हैं,’ कुल्लू के गांवों में जब कोई त्योहार होता है या देवता का रथ निकलता है, तो पीरियड्स वाली महिलाओं को घर से ही नहीं बल्कि गांव से बाहर रहना होता है। इसके लिए गांव की सरहद के बाहर लकड़ी का घर बना है। वहीं इन महिलाओं को रहना पड़ता है।
महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में भी बाहर बैठने को मजबूर महिलाएं
महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले के टुकुम गांव में गोंड और मड़िया आदिवासी लोग रहते हैं। इन समुदायों में महिलाओं को पीरियड्स के दौरान पीरियड हट में रहना पड़ता है। इन हट्स को कुर्मा घर कहते हैं। यहां कई औरतों की मौत भी हो चुकी है। महाराष्ट्र के साथ-साथ छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश और ओडिशा में भी इस प्रथा को मानते हैं।
तमिलनाडु के पेरंबलूर और मदुरै जिले के कुछ गांवों में भी ऐसी प्रथा मानी जाती है। यहां के दलित समुदायों में मान्यता है कि पीरियड्स में औरतों के घर आने से उनके कुलदेवता नाराज हो जाएंगे। पेरंबलूर में इन हट्स को मुट्टुकड्डू कहा जाता है।
कर्नाटक के रामनगर जिले के अरललासंद्र गांव में भी औरतों को इसी तरह अपने घर के बाहर पेड़ों के नीचे और झोपड़ियों में रहना पड़ता है।
ब्राजील में पीरियड आया तो एक साल के लिए गांव से बाहर रहना पड़ता है
अमेरिका के मध्य-पश्चिमी इलाके उजिबवे में पीरियड्स के दिनों में महिलाएं अपने समुदाय से बाहर अलग बने घरों में रहती हैं, इन्हें यहां के लोग मून लॉज कहते हैं।
अमेजन के घने जंगलों में रहने वाला ब्राजील का तिकुना समुदाय महिलाओं को पहले पीरियड्स के बाद एक साल के लिए गांव से बाहर एक घर में रहने के लिए भेज देता है। इस पूरे साल भर के समय में लड़की से केवल उसकी दादी मिल सकती हैं, जो उसे सिलाई-कढ़ाई-बुनाई और घर की देखभाल करने जैसे पारंपरिक घरेलू काम सिखाती हैं।
नेपाल में महिलाओं को पीरियड्स के दौरान घर के बाहर झोपड़ी में रहना होता है। उन्हें इस दौरान केवल उबले हुए चावल खाने को दिए जाते हैं। वो भी ऊपर से फेंक कर, जैसे किसी जानवर को खाना दिया जा रहा हो।
पोलैंड में माना जाता है कि पीरियड्स के दौरान महिलाओं को सेक्स नहीं करना चाहिए, नहीं तो उनके पार्टनर की मौत हो जाएगी। वहीं रोमानिया में मान्यता है कि इस दौरान महिलाओं को फूल नहीं छूने चाहिए, इससे फूल मुरझा जाते हैं।
मलेशिया के लोगों का मानना है कि महिलाओं को पैड्स फेंकने से पहले धो लेने चाहिए, नहीं तो भूत उनके पीछे लग जाते हैं। अर्जेंटीना में महिलाओं को पीरियड्स में नहाने की इजाजत नहीं होती।
पीरियड्स के दिनों में भेदभाव बंद हो- गुजरात हाईकोर्ट
पिछले साल गुजरात हाइकोर्ट ने अपने एक फैसले में पीरियड्स के दिनों में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव पर रोक लगाने की बात कही थी। हाईकोर्ट ने कहा था कि सार्वजनिक, व्यक्तिगत, धार्मिक और शैक्षिक जगहों पर पीरियड्स के दौरान होने वाले सामाजिक बहिष्कार बंद होना चाहिए। इसके बावजूद कुल्लू सहित देश के कई राज्यों में बाहर बैठने की प्रथा अपने पैर पसारे हुए है।
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ना बारात आई, ना डोली सजी, ना दुल्हन बनी, ना सिंदूरदान हुआ। पति है, लेकिन कोई मानता नहीं। बेटा-बेटी हैं, लेकिन उन्हें पिता का नाम नहीं मिला। ना पूजा कर सकती, ना मंदिर जा सकती। मां-बाप के साथ भी ऐसा ही हुआ और बहन भी बिना शादी के ही मां बन गई। (पढ़िए पूरी खबर)
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छुटकी पेट में थी, जब वो बॉम्बे (मुंबई) चले गए। एक रोज फोन आना बंद हुआ। फिर खबर मिलनी बंद हो गई। सब कहते हैं, तीज-व्रत करो, मन्नत मांगो- पति लौट आएगा। सूखे पड़े गांव में बारिश भी आ गई, लेकिन वो नहीं आए। मैं वो ब्याहता हूं, जो आधी विधवा बनकर रह गई। इंटरव्यू के दौरान वो नजरें मिलाए रखती हैं, मानो पूछती हों, क्या तुम्हारी रिपोर्ट उन तक भी पहुंचेगी! (पूरी स्टोरी पढ़ने के लिए क्लिक करें)
3. पैदा हुई तो थाली बजी, बड़ी हुई तो पिटाई होने लगी; स्कूल में टीचर कमर दबाता, दर्द से रोती तो गोद से भगा देता
सीने पर उभार दिखने लगे। आवाज बदलने लगी, और चाल भी। यहां तक कि कपड़े चुनते हुए मैं खुद अटक जाती कि चेक वाली शर्ट पहनूं या फूलों वाली फ्रॉक। इस अटकन, इस झिझक ने मेरा बचपन बदलकर रख दिया। स्कूल में टीचर ने एब्यूज किया, तो डॉक्टरी पढ़ने के बाद मरीजों ने इलाज करवाने से मना किया। बहुत वक्त लगा, खुद को आजाद करने में।
कोलकाता की घनी बस्तियों में शाम यानी रसोई में पकती मछलियों की गंध के साथ संगीत और बच्चों के खेलने-कूदने की आवाजें। इसी शहर में मेरा बचपन बीता, लेकिन खेलते हुए नहीं- इधर से उधर फुटबॉल की तरह उछलते हुए। लड़कों के ग्रुप में जाती तो वे भगा देते कि मुझ जैसे छुईमुई लड़के की उनके बीच जगह नहीं। लड़कियों के पास पहुंचती तो वे इशारों में कुछ फुसफुसातीं और लड़कों के पास भेज देतीं। मैं कहीं फिट नहीं थी।
सीने पर उभार दिखने लगे। आवाज बदलने लगी, और चाल भी। यहां तक कि कपड़े चुनते हुए मैं खुद अटक जाती कि चेक वाली शर्ट पहनूं या फूलों वाली फ्रॉक। इस अटकन, इस झिझक ने मेरा बचपन बदलकर रख दिया। स्कूल में टीचर ने एब्यूज किया, तो डॉक्टरी पढ़ने के बाद मरीजों ने इलाज करवाने से मना किया। बहुत वक्त लगा, खुद को आजाद करने में।
डॉ संतोष गिरी कहती हैं- शाम की चाय सुकड़ते हुए, या फिर शॉपिंग मॉल में नहीं बताया जा सकता कि आप ट्रांसजेंडर हैं। इसमें बहुत ताकत लगती है। बताते हुए गले के साथ दिमाग की नसें भी फटती हैं। तैयार रहना होता है- अपनों से अलग रहने के लिए।
पैदा हुई तो लड़कों के जन्म पर जितनी खुशियां मनाने का चलन है, सब मनाई गईं। लड्डू बंटे। कांसे की थाल बजी। मैं घर का इकलौता लड़का थी। मां चाव से काला टीका लगाती कि बेटे को किसी की नजर न लगे। यहां तक सब ठीक था, लेकिन परेशानी शुरू हुई, जब मैं बड़ी होने लगी। मुझे कमीज-पैंट पहनना पसंद नहीं था। मां-बहनें जरा भी घर से बाहर गईं, मैं झट से बहनों की फ्रॉक निकालकर पहन लेती।
वो मेरी अपनी दुनिया होती। सजकर देर तक आईना देखा करती। मुझे मेरा यही चेहरा पसंद था। सजा-धजा, अदाओं से दमकता हुआ, लेकिन ये थोड़ी देर के लिए ही होता। सबके घर लौटने से पहले फटाफट सारे निशान ऐसे मिटाने होते, जैसे कोई अपराधी जुर्म के निशान मिटाता है। बहनों के कपड़े तह लगाकर उनकी अलमारी में सज जाते और मैं पैंट-शर्ट पहनकर घर का दुलारा बेटा बन जाती।
आंखों के सामने जैसे पिक्चर चल रही हो, संतोष इस तरह से अपने बचपन को याद करती हैं। वे कहती हैं- सेक्शुअल एब्यूज हो तो लड़कियां रो सकती हैं, शिकायत कर सकती हैं, लेकिन ट्रांसजेंडर के साथ एब्यूज मामूली बात होती है। वे अक्सर चुप ही रहते हैं, जैसे मैं रही।
तब मैं मिडिल स्कूल में थी, जब एक टीचर ने बात करने के बहाने मुझे क्लास में रोके रखा। बाकी क्लास खेल के मैदान में थी, और मैं टीचर के साथ अकेली। वो मुझे यहां-वहां छूने लगा। कमर और पेट पकड़कर दबाने लगा। मैं रोने लगी तो छोड़ दिया। इसके बाद तो सिलसिला चल पड़ा। हफ्ते में दो बार उसकी क्लास होती, और हर बार मैं उसकी गंदी हरकतें झेलती। जब दर्द से रोने लगती तो गोद से उतारकर भगा देता था।
बातचीत में संतोष उस टीचर का पूरा नाम भी बताती हैं। वे कहती हैं, उसके कारण मुझे स्कूल के नाम से डर लगने लगा था। पढ़ाई में बहुत अच्छी थी, लेकिन क्लास में जाने से बचने लगी।
किसी से शिकायत क्यों नहीं की? मेरे सवाल पर संतोष कहती हैं- जो बच्चा अपनी पहचान से जूझ रहा हो, वो टीचर की शिकायत कैसे और किससे करेगा! लगता था जैसे अंधेरी सुरंग से गुजर रही हूं, जो कभी खत्म नहीं होगी। अकेले में अपने शरीर को देखा करती और सोचती कि ऊपरवाले से मुझे बनाने में कोई भूल जरूर हो गई!
घर पर भी माहौल बदलने लगा था। छुप-छुपकर कपड़े पहनने का राज खुला और मेरी जमकर पिटाई हो गई। बाहरवाले शिकायत करने लगे। कोई मउगा बुलाता, कोई जनखा।
पिताजी ने एक रोज बुलाया और डपटकर कहा कि मैं ‘सुधर’ जाऊं। मुझ पर लड़का बनने का दबाव था। जैसे किसी पर डॉक्टर बनने या फिर परिवार चलाने का होता है। मैंने कोशिश भी की। उन्हीं जैसे कपड़े पहनती, उनकी ही तरह चलने और बोलने की कोशिश करती- लेकिन ये सब कोशिश ही थी। दिल से मैं लड़की थी। तो इस तरह से मर्दानापन जगाने की सारी कोशिशें बेकार हुईं।
फिर एक रोज पिताजी ने मुझे घर से निकाल दिया। कोलकाता की सड़कों पर भटकते हुए शाम घिरने लगी। कोई दोस्त था नहीं, जिसके घर चली जाती। रिश्तेदार पहले ही मजाक बनाते थे। भटकते हुए एक तालाब किनारे पहुंची और बैठ गई।
कहने को लड़कों के कपड़े पहने हुए थे, लेकिन ढीली-ढाली शर्ट के भीतर लड़की का दिल जोरों से धड़क रहा था। रात गहराने लगी। इसी बीच कुछ लड़के आए और मुझे घेर लिया। एक ने टांगों पर हाथ रखा। इसके बाद का कुछ याद नहीं। मेरी आंखें अस्पताल में खुली।
शरीर पर ढेरों जख्म थे। टीस से मैं रो पड़ी। खूब खुलकर रोई। वहीं सामने स्टूल पर पिताजी बैठे थे और मुझे देखते हुए वो भी रो रहे थे। ये मुझे अपनाने की शुरुआत थी। वे समझ चुके थे कि लड़कों के कपड़ों के भीतर उनका बच्चा असल में लड़की था।
संतोष के लहजे में पश्चिम बंगाल-बिहार का लोच है। वे खुद को ‘हम’ कहते हुए सारी बातचीत करती हैं। घर पर कुछ राहत मिली तो कॉलेज मुंह फाड़े खड़ा था- संतोष याद करती हैं। कॉलेज में एडमिशन का समय आया। मैं लड़कों की तरह दिखने-चलने की प्रैक्टिस करके पहुंची, लेकिन हो नहीं सका। एडमिशन काउंटर से मुझे हटने को कह दिया गया। एकदम मुंह पर। मैं चुपचाप कोने में खड़ी हुई पीछे वालों को आगे बढ़ता देख रही थी। आखिर में कॉलेज यूनियन के पास पहुंची। उन्होंने खूब ठोकने-बजाने के बाद मुझे लेने पर हामी भर दी।
मैं पढ़ाई में खासी तेज थी, लेकिन एडमिशन के लिए मुझे गिड़गिड़ाना पड़ा। हालांकि, यहां हालात स्कूल से बेहतर रहे। किसी ने मुझे सेक्सुअली एब्यूज नहीं किया। मैं खुलकर लड़कियों वाले डांस करती और खूब तालियां बटोरतीं। बंगाल में ये अच्छी बात है कि संगीत आपको जेंडर से ऊपर ला देता है। मेरे जिस शरीर की लचक और आंखों के भाव मुझे शर्मिंदा करते थे, वहीं यहां मेरा साथ देने लगे।
यानी कॉलेज के बाद से आपकी जिंदगी ट्रैक पर आ गई? संतोष बोली- नहीं! बीच में ही मैंने मेडिकल की पढ़ाई में दाखिला ले लिया। वो आखिरी साल था। इंटर्नशिप चल रही थी। फिर मैं डॉक्टर बन जाती, लेकिन मरते हुए मरीज को भी ट्रांसजेंडर डॉक्टर नहीं चाहिए।
अस्पताल में मरीजों की भीड़ होती, सब एक के ऊपर एक टूटने को तैयार कि जैसे भी हो जल्दी चेकअप हो जाए। मैं एक कोने में खाली टेबल-कुर्सी लिए बैठी रहती। सीने पर डॉक्टर के सफेद कोट के बावजूद कोई मरीज मेरी तरफ नहीं आता था। मैं आवाज भी देती तो या तो इग्नोर कर देते, या फिर कहते- हमें तो डॉक्टर को ही दिखाना है। दूसरी तरफ मेरे साथी डॉक्टरों के पास पेशेंट्स धक्कामुक्की करते होते। तब जाना कि डॉक्टरी का भी जेंडर होता है। फिर मैं कभी प्रैक्टिस नहीं कर सकी। जितना धीरज और लगन मुझमें है, शायद मैं बहुत अच्छी डॉक्टर होती, लेकिन इससे पहले मुझे लड़की या लड़का होना था।
डॉक्टर तो नहीं बन सकी, लेकिन अपनी तरह के लोगों के लिए काम करने लगी, बोलने लगी, लेकिन ये आसान नहीं। मैं ऐसे ही लोगों के लिए काम करती हूं। कहने को खासी मजबूत हो चुकी हूं, तब भी कई मामूली चीजों पर अटक जाती हूं। कपड़े चुनने जाऊं तो ऐसा कोई स्टोर नहीं, जो जेंडर न्यूट्रल कपड़े दे।
लड़कियों के स्टोर में जाऊं तो सब घूरते हैं। लड़कों के स्टोर में जाऊं तो वक्त बर्बाद होता है। कभी कोई एप्लिकेशन भरूं तो मेल-फीमेल कॉलम पर अटक जाती हूं। हर जगह ‘अदर’ का ऑप्शन नहीं होता।
सौजन्य : Dainik bhaskar
नोट : यह समाचार मूलरूप से bhaskar.com में प्रकाशित हुआ है. मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है !
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