दलितों के प्रति गांधी की नफरत ! चौरी-चौरा कांड
गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा नामक स्थान के पास मुडेरा एक जगह है, यह मुडेरा चौरी ग्राम के निकट ही है। उत्तर प्रदेश की यह मुख्य जगहयह (मुडेरा), जहां पर चमड़ेव मांस की बहुत बड़ी मंडी अर्थात साप्ताहिक बाजार लगा करता था। इस बाजार में मुख्य रूप से मांस व चमड़े के व्यापारी चमार जाति के हुआ करते थे।
1 फरवरी सन 1922 को यहां पर एक घटना घटी थी। चौरी-चौरा थाने का अध्यक्ष उस समय गुप्तेश्वर सिंह हुआ करता था। थाना अध्यक्ष गुप्तेश्वर सिंह नेक्रांतिकारी भगवान अहीर के साथ गाली गलौज की तथा थाने के अंदर उसको लाठियों से मार लगाई। इस घटना की खबर सभी को लग गई थी। इस समय अंग्रेजों के विरूद्ध क्रांति की लहर चल रही थी।
5 फरवरी 1922 का दिन था। इस दिन साप्ताहिक बाजार लगने वाला था।सभी में रोष था। इस समय 5000 लोग इकट्ठा हुए। इसका नेतृत्व रामपति चमार ने किया। सभी ने मिलकर चौरी-चौरा ग्राम के थाने को चारों तरफ से घेर लिया, सभी लोग इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे, अंग्रेजों भारत छोड़ो हमारा शोषण बंद करो के नारों से आकाश गूंज रहा था। सभी ने मिलकर थाने में आग लगा दी। पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोलियां चलाई और ना ही लोगों में से कोई भीजो चलाई, लेकिन न तो कोई मरा और ना ही कोई डरा, परंतु सभी में जोश भरता चला गया।
देखते ही देखते थाने के अंदर गए 23 पुलिस कर्मियों में से कुछ तो जल गए और जो बचे थे उनकी हत्या कर दी गई। यह घटना उस समय कीहै जब भारत के गांव के लोग चौकीदार को देखकर भी घरों में घुस जाया करते थे।
इतने बड़े आंदोलन की चर्चा समस्त भारत में हो रही थी और गांधी को डर सताने लगा कि इस देश का नेता कोई चमार ना बन जाये।
इसे दबाने के लिए गांधी ने स्वंतत्रता आंदोलन वापस ले लिया था जो पूरे देश में चलाया जा रहा था। गांधी नहीं चाहते थे कि भारत में अछूत व दलित जिनका अपना स्वाभिमान व सम्मान में नहीं है, जो हमारे इशारो पर चलते हैं उनके नेतृत्व में आंदोलन चलाया जाए। भारत में आज भी अनेकों टीकाकारों ने एवं राजनीतिज्ञो ने मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुसार गांधी के निर्णय की आलोचना की है। इस समय गांधी को यह एहसास होने लगा था कि पेशवाओं के शासन में जिन जातियों को अपराधी घोषित किया, जिनका सड़कों पर चलना बंद किया, यह जातियां देश की स्वतंत्रता का नेतृत्व करने जा रही हैं। कहीं भारत में अमीर शोषकों के विरुद्ध दलित जातियां राजनैतिक मंच पर एकत्र होकर भारत के शासन में ब्राह्मण व्यवस्था को समाप्त ना कर दें।
गोपी मोहन साहा
क्रांतिकारियों की पंक्ति में गोपी मोहन साहा तथा विना दास जैसे नाम अमर है। पुलिस अधिकारी सर चार्ल्स टेगर्ट क्रांतिकारियों को यातनाएं देने में बहुत ही प्रसिद्ध हो गए थे। वह क्रांतिकारियों को नए-नए तरीकों से यातनाएं देते थे। जिससे लोग क्रांति की आवाज बुलंद ना कर सके। सर चार्ल्स टेगर्ट का दमन चक्र बढ़ता ही जा रहा था।
क्रांतिकारियों में गोपी मोहन साहा का नाम सबसे ऊपर आता है। गोपी मोहन साहा ने प्रण किया था कि मैं टेगर्ट को मार कर ही दम लूंगा। वह अपने पास सदैव भरा हुआ तमंचा रखते थे। एक दिन बंगले से एक अंग्रेज निकला हुआ जा रहा था। गोपी मोहन साहा ने सोचा यही टेगर्ट है। मौके का फायदा उठाते हुए तुरंत साहा ने गोलियों की बौछार से उस अंग्रेज को वहीं पर ढेर कर दिया।जब वह मर गया तो पता चला कि वह टेगर्ट नहीं था।गोपी मोहन को पकड़ लिया गया उन्हें अंग्रेज की हत्या के जुर्म में फांसी की सजा सुना दी गई। बाद में मुखवरी ने बताया कि गोपी मोहन साहा को बर्फ में गाड दिया गया था। गोपी मोहन को जिस कोठरी में नजरबंद रखा गया था उस कमरे की दीवार पर
भारतीय राजनीति क्षेत्र अहिंसार स्थान नेई
इसका अर्थ है कि भारतीय राजनीति के क्षेत्र में अहिंसा का कोई स्थान नहीं है।
यह एक शहीद का संदेश था गोपी मोहन साहा को 1 मार्च 1924 को फांसी पर लटका दिया। गोपी मोहन साहा की फांसी के बाद बंगाल प्रांत में ही नहीं अपितु पूरे देश में भूचाल आ गया। चारों तरफ गोपी की चर्चाएं हुई। सिराजगंज में प्रांतीय राजनीति कांफ्रेंस हुई। इस सभा में गोपी मोहन साहा की वीरता की प्रशंसा की गई। तथा उसकी प्रशंसा में एक प्रस्ताव भी पास किया गया। सारे देश में इसकी चर्चा हुई परंतु गांधी ने इस प्रस्ताव की कई शब्दों में आलोचना की थी। परंतु बंगाल के सर्वमान्य नेता देशबंधु गुप्त ने सिराजगंज के प्रस्ताव का जोरदार समर्थन किया था। सारे भारत के अखबारों में साहा की कोठरी की दीवार पर लिखे वाक्यों को छापा गया था। गांधी ने इसकी काफी निंदा भी की, निंदा अखबारों में छपी थी। भारत में गुलामी का तांडव था। गांधी देश में अहिंसा का प्रयोग के बहाने ब्राह्मणवादी व्यवस्था की स्थापना करना चाहते थे। वह नहीं चाहते थे कि किसी भी प्रकार भारत की क्रांति में आजादी में दलितों को शहीदों की सूची में रखा जाए। उनका हौसला बढ़ाया जाए उन्हें डर था कि कहीं ब्राह्मण व्यवस्था प्रणाली खत्म ना हो जाए।
साइमन कमीशन
1928 में साइमन कमीशन ने भी माना था कि भारत के शोषित समाज को शासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और भारत में शोषितों की स्थिति का जायजा लेने ही साइमन कमीशन आया था लेकिन भारतीय सवर्णों को और गांधी जी को यह मंजूर नही था इसलिए साइमन कमीशन के लिए गो बेक के नारे लगे थे।
गोलमेज सम्मेलन
ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्मजे मैक्डोनल्ड ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में हुए विचार विमर्श के फलस्वरूप 16 अगस्त 1932 को कम्युनल अवार्ड की घोषणा की। इस निर्णय में दलितो को भी मुस्लिम, सिख आदि की तरह पृथक निर्वाचक मंडल प्रदान किया गया।
लेकिन गाँधीजी द्वारा इस सिद्धांत का विरोध किया गया। लेकिन उन्होंने मुस्लिमों या सिखों के लिए समान प्रावधानों पर कोई आपत्ति नहीं जताई इससे ज्यादा आपको उनके जातिवादी होने का क्या सबूत चाहिए।
पूना पैक्ट की पृष्ठभूमि
19 सितम्बर 1932 को बाम्बे में गणमान्य व्यक्ति मर्चेंट्स चैंबर हॉल के सामने के बरामदे पर एकत्रित हुए।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक पुरस्कार की घोषणा की थी, जिसने एक महीने से थोड़ा अधिक समय पहले केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं के लिए दलित वर्गों को अलग निर्वाचक मंडल की पेशकश की थी।
इस पुरस्कार को गांधीजी द्वारा सवर्ण समुदाय के लिए खतरे के रूप में देखा गया था। उन्होंने तर्क दिया कि यह अछूतों को हिंदुओं से अलग करेगा।
जबकि अम्बेडकर और उत्पीड़ित वर्गों के अन्य नेताओं ने इस पुरस्कार का गर्मजोशी से स्वागत किया।
गांधी ने 20 सितंबर, 1932 को जेल में रहते हुए आमरण अनशन की घोषणा की, जब तक कि अलग निर्वाचक मंडल को पुरस्कार से हटा नहीं दिया गया।
पूना पैक्ट==
कम्युनल अवार्ड के विरोध में गांधी ने अनशन शुरू कर दिया और अनशन की वजह से गांधी की तबीयत बिगड़ने लगी। अंबेडकर जी पर अछूतों के अधिकारों से समझौता कर लेने का दबाव बढ़ने लगा। देश के कई हिस्सों में बाबा साहब के पुतले जलाए जाने लगे, उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए और कई जगहों पर सामान्य वर्ग के लोगों ने दलितों की बस्तियां जला डालीं और दलितों के साथ मारपीट भी की।
आखिर में बाबा साहब को अपने लोगों को मरने से बचाने के लिए झुकना पड़ा।
बाबा साहब भीमराव अंबेडकर 24 सितंबर 1932 को शाम 5 बजे पुणे की यरवदा जेल पहुंचे, जहाँ गांधी और बाबा साहब अंबेडकर के बीच समझौता हुआ, जिसे पूना पैक्ट कहा गया। कहा जाता है कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने बेमन से रोते हुए पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए थे क्योंकि गांधी ने छलकपट से उनके हाथ काट लिये थे। दलितों के विकास के लिए कांटे बिछा दिये थे यह था गाधीं का दलित प्रेम…..
(यह लेख शोषित समाज के क्रांतिकारी प्रवर्तक (लेखक चरण सिंह भंडारी) व गुगल से लिया गया है।)