मुस्लिम व ईसाई दलित?
हिन्दू धर्म से इस्लाम व ईसाई धर्म में परिवर्तित दलितों को भी हिन्दू, सिख व बौद्ध दलितों के समान आरक्षण की सुविधाएं देने को लेकर भारत में लम्बे अर्से से बहस चल रही है जिसका संज्ञान लेते हुए केन्द्र सरकार इस विषय पर विशद विचार करने के लिए एक आयोग का गठन करने पर विचार कर रही है जिससे समस्या का अन्तिम हल निकाला जा सके। वैसे यह सवाल स्वयं में कम महत्व का नहीं है कि जब इस्लाम व ईसाईयत में घोषित तौर पर कोई जाति प्रथा या सामाजिक ऊंच-नीच नहीं है तो उस धर्म में दीक्षित होने के बाद हिन्दू दलितों को दलित क्यों माना जाये? हिन्दू समाज में दलितों के साथ सदियों से अन्याय और पशुवत व्यवहार होता चला आ रहा है जिसकी वजह से आजाद भारत में 1950 में एक कानून बना कर उन्हें राजनैतिक सत्ता केन्द्रों में 15 प्रतिशत आरक्षण दिया गया और यह प्रणाली सरकारी नौकरियों में भी लागू की गई।
1950 में इस बारे में कानून बनाया गया और बाद में 1956 में सिख दलितों को भी यह सुविधा दी गई। मगर बौद्ध धर्म अपनाने वाले दलितों को भी यह सुविधा 1990 में 1950 के कानून में संशोधन करके प्रदान कर दी गई। इसका मुख्य कारण यह था कि बौद्ध व सिख धर्म भारत की धरती में ही ऊपजे हैं और इनके धार्मिक दर्शन सिद्धान्त हिन्दू दर्शन के सिद्धान्तों के ही अंश माने जाते हैं और सांस्कृतिक रूप से ‘देशज’ भारतीयता ही पर्याय हैं। हालांकि बौद्ध धर्म में भी जाति प्रथा नहीं है मगर ‘नव बौद्धओं’ के साथ यह समाज वह न्याय नहीं कर सके जिसकी अपेक्षा करके डा. बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपने अनुयायियों को बौद्ध धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया था। दिसम्बर 1956 में अपनी मृत्यु से कुछ महीने पहले ही बाबा साहेब अम्बेडकर ने हजारों दलितों के साथ बौद्ध धर्म में दीक्षा ली थी। उससे पहले उन्होंने सिख धर्म गुरुओं से भी बातचीत की थी मगर उन्हें लगा था कि इस समाज में आने के बावजूद उनकी स्वीकार्यता सम स्तर पर नहीं हो सकेगी जिसके बाद उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाने का निश्चय किया क्योंकि वह कहते थे कि मेरा जन्म हिन्दू के रूप में जरूर हुआ है मगर मैं एक हिन्दू के रूप में मरना नहीं चाहता। इसकी वजह हिन्दू समाज की जाति प्रथा के तहत दलितों के साथ छुआछूत व अमानवीय व्यवहार होना ही था। परन्तु इसके बावजूद उन्होंने भारत की धरती पर जन्मे धर्मों में से ही किसी एक धर्म का चुनाव किया और वह बौद्ध धर्म था। परन्तु इस्लाम व ईसाई एेसे धर्म हैं जिनका उद्गम स्थल भारत से बाहर की धरती रही है। अतः इनकी मूल मान्यताएं भी विदेशी धरती की सांस्कृतिक परंपराओं के अनुरूप निरूपित हैं और धार्मिक दर्शन का हिन्दू दर्शन से अन्तर्सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता है। इसके बावजूद इस्लाम धर्म पर भारत की सतरंगी संस्कृति का असर पड़े बिना नहीं रह सका।
दलितों का इस्लाम धर्म में परिवर्तित होने का इतिहास में पहला हमें प्रमाण तैमूर लंग के भारत पर आक्रमण के समय मिलता है। जब 1398 में उसने भारत पर आक्रमण किया था। मगर कालान्तर में हिन्दुओं के दबे-पिछड़े व दलित वर्गों का धर्मान्तरण विभिन्न मुस्लिम शासकों के दौर में होता रहा मगर उनके साथ होने वाले सामाजिक व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया और न ही उनकी आर्थिक स्थिति में परिवर्तन उनके व्यावसायिक पेशों की वजह से आय़ा सिवाय इसके कि उन्हें मस्जिदों में अन्य मुस्लिमों के साथ जाने की छूट थी। अशराफिया मुस्लिम समाज इन्हें ‘कम जात’ ही मानता और कहता रहा परन्तु इनके साथ हिन्दू समाज की तरह छुआछूत भी नहीं की गई। अतः मुस्लिम धर्म में दलितों की सामाजिक स्थिति वह नहीं कही जा सकती जो कि हिन्दू धर्म में है। मगर दूसरी तरफ आदिवासी समाज को भी 7.5 प्रतिशत आरक्षण दलितों के साथ ही दिया गया जो कि धर्म तटस्थ था। आदिवासियों की पहचान में धर्म की कोई भूमिका नहीं रखी गई, केवल उनकी संस्कृति रखी गई। इसी प्रकार जब 1990 में पिछड़े समाज के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण हुआ तो इसमें भी धर्म की भूमिका नगण्य हो गई और मुस्लिम समाज में पेशे से बनी जातियां इस आरक्षण समूह में आ गईं। ईसाई व मुस्लिम समाज के कथित दलितों के आरक्षण के बारे में पहले भी कई बार प्रयास किये गये हैं। सबसे पहले 2004 में मनमोहन सरकार ने धार्मिक व भाषाई अल्पसंख्यकों को दलित आरक्षण कोटे में स्थान देने के लिए रंगनाथ मिश्र आयोग का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट 2007 में दी और सिफारिश की कि दलित आरक्षण को भी आदिवासी आरक्षण के समान ‘धर्म तटस्थ’ बना दिया जाना चाहिए जिसे तत्कालीन सरकार ने अस्वीकार कर दिया।
इसके समानान्तर इसी वर्ष राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने भी सिफारिश की कि दलित मुस्लिमों व ईसाइयों को भी आरक्षण की सुविधा मिलनी चाहिए। इसे भी सरकार ने मंजूर नहीं किया और कहा कि इसके लिए व्यापक सर्वेक्षण किये जाने की जरूरत है किसी एक इलाके के सीमित आंकड़ों से वृहद निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। अब सवाल यह पैदा होता है कि मोदी सरकार इस्लाम धर्म व ईसाई धर्म में जाने वाले दलितों के साथ किस प्रकार का न्याय करना चाहती है? इसमें कोई दो राय नहीं है कि दलित समाज के लोग बेशक मुसलमान या ईसाई बन गये हों मगर उनकी न तो आर्थिक स्थिति में कोई परिवर्तन आया है और ना ही उनका सामाजिक सम्मान बढ़ा है। दूसरे मजहब में जाने के बावजूद वे दलित के दलित ही हैं, सिवाय इसके कि उन्हें पूजा या इबादत का अधिकार बराबरी के अनुसार मिलने का दावा किया जाता है। मगर भारत में आज भी देख सकते हैं कि मस्जिदों तक को अशराफिया और निचले वर्गों में कहीं-कहीं बांट तक दिया जाता है। सक्के से लेकर खटीक और धूने-जुलाहे व दस्तकार या कारीगर मुस्लिम समाज में सबसे निचली पंक्ति में रहते हैं और इन्हें इन्हीं नामों से जाना जाता है। धर्म परिवर्तन करने के बावजूद ये दलित के दलित ही रहते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
सौजन्य : News18
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