सुसाइड करना चाहती थी, 3 हजार लड़कियों को फुटबॉल से जोड़ बाल विवाह से बचाया
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया…मजरूह सुल्तानपुरी की ये लाइन बिहार की प्रतिमा पासवान पर फ़िट बैठती है। समाज के निचले तबके में पैदा होना, अति साधारण शक्ल-सूरत का होना। इन दोनों पर किसी का वश नहीं होता। प्रतिमा का भी नहीं था लेकिन इन सबके कारण उन्होंने जो झेला, उस आग में वो तपकर मज़बूत हुईं। फिर अपनी जैसी लड़कियों के जीवन को बेहतर करने का ठाना। वो लड़कियों को बाल विवाह, घरेलू हिंसा जैसी कुरीतियों के खिलाफ जानकारी देती हैं तो साथ ही उन्हें शिक्षा और खेल की अहमियत समझाती हैं। अकेले दम पर शुरू किए गए संस्था में आज हज़ारों हाथ उनके साथ हैं।
मां मानसिक रूप से बीमार थी इसलिए पढ़ नहीं पाई
मेरा जन्म पटना से 20 किलोमीटर दूर मसौढ़ी विधानसभा के अंजनी गांव के एक दलित परिवार में हुआ था। हम तीन भाई बहन हैं। पापा नौकरी में थे इसलिए मेरे पैदा होने के 6 महीने बाद ही परिवार रांची चला गया। 15 साल की उम्र तक मैं रांची में ही पली बढ़ी हूं। मेरी मां मानसिक रूप से बीमार थीं इसलिए बचपन जिम्मेदारियों से लदा रहा। या यूं कहूं कि सात साल की उम्र में मैं मां के रोल में थी। क्योंकि मेरे से दो छोटे भाई थे, जिन्हें मुझे घर के साथ संभालना होता था। आठवीं तक जैसे-तैसे पढ़ाई की, बाद में वो भी छूट गई। फिर दो साल बाद बिहार बोर्ड से मैट्रिक पास किया।
डोली से उतरते ही सास ने रंग-रूप के लिए सुनाया ताना
दसवीं के बाद मेरी शादी हो गई, मेरा बाल विवाह था। जब मेरी शादी हुई उस वक्त मैं अपने ससुराल गांव की सबसे पढ़ी-लिखी लड़की थी। जब में शादी करके ससुराल पहुंची तो डोली से उतरते सास ने कहा कैसी शक्ल-सूरत वाली को बियाह लाए। शादी के तीन-चार साल तक मैं ससुराल में रह ही नहीं पाई। मेरे घर और ससुराल में बहुत बड़ा अंतर था। मेरी मां मानसिक रोगी थी उसके बाद भी घर का माहौल अच्छा था। मां के साथ घर के सदस्यों का बिहेवियर अच्छा। सब उनका सम्मान करते थे। लेकिन मेरे ससुराल में शाम होते ही पूरा गांव शराब के नशे में होता। कोई गाली-गलौज कर रहा होता तो कई बीवी को पीट रहा होता। मेरे ससुराल का भी लगभग यही हाल था। ना वहां सड़क थी, ना बिजली और ना शौचालय। ये सब मेरे लिए नया था।
मैरिटल रेप के कारण ख़ुद से नफ़रत हो गई थी
मेरी शादी की समझ टीवी सीरियल देखकर बनी थी। मुझे लगता था कि बारात आती है, लड़की को नए कपड़े-गहने दिए जाते हैं, लोग खाना खाते हैं। फिर शादी होती है औऱ बत्ती बुझती है। मैंने खुद की शादी के पहले किसी की भी शादी नहीं देखी थी। लेकिन सारे सपने उस वक्त टूट जाते हैं, जब पहली रात ही आपके साथ जबरदस्ती होती है। सालों तक ये सिलसिला चलता रहा। ससुराल में छोटी हाइट या रंग-रूप के लिए जो ताने मिलते उनसे मुझे फर्क नहीं पड़ता था। लेकिन मैं मैरिटल रेप की वजह से अंदर ही अंदर घुट रही थी। खुद से नफरत सी हो गई थी। मेरे पति ने दसवीं के बाद पढ़ाई नहीं की। नशा करने लगे।
हमारे समाज में बीमार पार्टनर किसी को नहीं चाहिए
2000 में मेरे पहले बच्चे के जन्म के समय हुई दिक्कतों ने मुझे लंबे समय के लिए बीमार कर दिया। इसी बीमारी में मेरे दो और बच्चे हुए। शादी से बच्चा तक दस साल का सफर मेरे जीवन का सबसे बुरा दौर रहा। ससुराल वालों का बिहेवियर मेरे प्रति जस का तस ही रहा। हर पति को खूबसूरत पत्नी चाहिए होती है। एक तो मैं खूबसूरती के पैमाने पर खरी नहीं उतरती। वहीं, दूसरी ओर बीमार रहने लगी। कोई भी इंसान बीमार पार्टनर नहीं चाहता है। मैं अपने पति के लिए बस सेक्शुअल जरूरत बनकर रह गई थी। हर बार ऐसा लगता जैसे मेरा रेप हो रहा है। हालांकि इन सबके बाद भी मैंने कभी तलाक के लिए नहीं सोचा। मेरा पति परमेश्वर है जैसी बातों पर यकीन नहीं है। लेकिन मुझे लगता कि इस इंसान की समझ ही नहीं है। अगर इसने पढ़ाई की होती या दुनिया देखी होती तो ये ऐसा नहीं होता। मुझे अपने फैसले पर कभी गिल्ट नहीं हुआ। समय के साथ मेरे पति बदले और आज मैं बाहर काम करती हूं तो घर संभालने से लेकर खाना बनाने जैसी जिम्मेदारी मेरे पति उठाते हैं।
दूसरा बच्चा पेट में था और मैं सुसाइड करने चली गई
निजी जिंदगी में जो चल रहा था, उससे मैं इतनी तकलीफ में थी या नाउम्मीद हो गई कि 2002 में एकदिन मैं सुसाइड करने चली गई। उस वक्त दूसरा बच्चा पेट में था। मैं रात में कुएं में कूदने के लिए निकल पड़ी। गर्मी की रात थी। खेत में कुछ लोग काम कर रहे थे। उन्होंने मुझे देखकर टोका कि इतनी रात को मैं घर से दूर क्या कर रही हूं। हालांकि शौचालय ना होने की वजह मैं रात में भी खेतों में जाती लेकिन उस दिन काफी दूर निकल गई थी। जब उन्होंने मुझे टोका फिर एहसास हुआ कि मैं क्या करने जा रही हूं। घर वापस आई और बड़े बेटे को देखकर फूट फूटकर रोई।
साल 2005 में बीमारी और सारी हालातों से लड़कर जब मैं ठीक हुई तो आईडीएफ नाम की एक प्राइवेट संस्था के साथ बतौर वालंटियर जुड़ी। वो संस्था प्रजनन और यौन जागरूकता को लेकर काम करती थी। वहां टीम के बाकी लोगों के साथ मैं भी फील्ड में जाकर लड़के-लड़कियों को जागरूक करती थी।
एक अधिकारी ने पहली बार दलित होने का एहसास कराया
दो साल आईडीएफ के साथ काम करने के बाद मैं एक और प्राइवेट संस्था से जुड़ी। मैं उस संस्था का नाम नहीं लूंगी। संस्था के सेक्रेटरी ऊंची जाति के थे। उन्होंने एक दिन अपने घर पर सबके लिए पार्टी रखी। पार्टी में खाना खाने के बाद जब मैं प्लेट रखने गई तो उन्होंने मुझसे कहा कि प्रतिमा तुम अपना प्लेट धोकर रखना क्योंकि मेरी काम वाली छुट्टी पर है। मैंने देखा कि उन्होंने ये बात सिर्फ मुझसे कही। पार्टी मौजूद किसी को भी उन्होंने ऐसे निर्देश नहीं दिए थे। जहां सारे लोग अपनी जूठी प्लेट रख रहे थे, वहां भी प्लेट रखने के लिए मुझे उसे धोना पड़ा। ये बात मुझे बहुत ही अजीब लगी। बचपन से अब तक कभी जाति को लेकर कोई भेदभाव नहीं देखा था। मैं घर गई और पापा को सारी बात बताई। पापा ने कहा उसमें उनकी कोई गलती नहीं है। ये उनकी परवरिश का हिस्सा है। हमने बचपन से आपको समाज की सच्चाई नहीं बताई। हम नहीं चाहते थे कि आपको एहसास हो कि आप किसी जाति से हैं लेकिन उन्होंने आपको एहसास करा दिया। मैंने उस संस्था का साथ छोड़ दिया।
शिक्षा-स्वास्थ्य पर काम करना शुरू किया तो लोगों ने मजाक उड़ाया
साल 2008 में मैंने ‘गौरव ग्रामीण महिला विकास मंच’ की शुरुआत की। इसके जरिए मैं स्वास्थ्य और शिक्षा पर काम करना चाहती थी। लेकिन जब मैं ग्राउंड पर जाती और कहती कि मैं शिक्षा-स्वास्थ्य पर काम कर रही हूं तो लोग मुझसे पूछते खुद कितनी पढ़ी हो? जब मैं बताती कि दसवीं पास हूं तो मजाक उड़ाते। फिर भी मैंने हार नहीं मानी। अपने साथ लड़कियों को जोड़ती रही और साथ मैं पढ़ाई शुरू की। मुझे रियलाइज हो गया था कि संस्था चलाने के पढ़ाई बहुत जरूरी है। आज मैं एलएलबी हूं। कानून की पढ़ाई इसलिए की ताकि घरेलू हिंसा जैसे मुद्दों पर लड़कियों की मदद कर सकूं। 2008 में मैंने अकेले शुरू किया था, आज 3500 परिवार मेरी संस्था का हिस्सा हैं। मैं औऱ मेरी संस्था बाल विवाह, घरेलू हिंसा, लड़कियों की शिक्षा के लिए लोगों को जागरूक करते हैं। साथ ही लड़कियों को फुटबॉल खेलने के लिए मोटिवेट करते हैं। ताकि उनमें कॉन्फिडेंस आ सके।
काम के दौरान कई लोगों ने समझा कि मैं आसानी से उपलब्ध हूँ
एक तो मैं दलित ऊपर से महिला। साथ ही जिस मुद्दे पर मैं काम करती हूं, लोगों को लगता है मैं उनके साथ कभी भी सो जाऊंगी। जेंडर और सेक्शुअलिटी का जिक्र करते ही लोग मुझे आसानी से उपलब्ध समझ लेते हैं। 2012 में एक बार संस्था के काम से मुझे सचिवालय जाना पड़ा। वहां मुझे समाज कल्याण विभाग में प्रपोजल देने के बाद रिसिविंग लेनी थी। वहां के बड़ा बाबू ने मुझे कहा शाम को आकर रिसिविंग ले जाइएगा। जब मैं शाम में पहुंची तो उन्होंने मुझे गेट पर ही रोका और कहा कि मेरी पत्नी बीमार रहती है। मैंने कहा तो आप उनका इलाज कराइए। उन्होंने कहा-आप समझ नहीं रही हैं। क्या आप मेरी दोस्त बनेंगी?
मैंने तेज आवाज़ में उनसे पूछा आपको किस टाइप की दोस्ती चाहिए? क्या पत्नी की सेवा करने के लिए मेरी जरूरत है या मुझे आपसे दोस्ती करनी है? तो उनका जवाब आया कि आप ज़रा धीरे बोले। मुझे आपका साथ चाहिए। मैंने उनसे उनकी जाति पूछते हुए कहा कि आपने डॉक्यूमेंट में मेरी जाति देख ली इसलिए आपकी ये हिम्मत हुई कहने की। क्या आपने अपनी पत्नी से पूछा है कि आप एक दलित औरत को घर लेकर आएंगे? मैं बाहर नहीं जाऊंगी। मैं आपके घर चलती हूं। जब मैंने ये सारी बातें कहना शुरू किया तो वो माफी मांगने लगे और वहां से निकल गए। ना उन्होंने मुझे रिसिविंग दी और ना मैं कभी पलटकर उस जगह पर गई।
निर्दलीय विधानसभा चुनाव में उतरी तो लड़कियों ने संभाला प्रचार का ज़िम्मा
2020 में मैं फुलवारीशरीफ से निर्दलीय विधानसभा का चुनाव लड़ी। मेरे प्रचार-प्रसार का जिम्मा उठाया लड़कियों ने। ये वो लड़कियां थीं, जिन्हें घर से नहीं निकलने दिया जाता था। उनकी पढ़ाई छुड़वाकर घर बिठा दिया गया था। पूरे चुनाव के दौरान घर-घर जाकर वो लोगों को उनकी वोटिंग राइटस के बारे में बताती। लोग भी हैरान थे कि इतनी कम उम्र की ये लड़कियां राजनीति बात कर रही हैं। ये मेरी और मेरी संस्था की अचीवमेंट थी। ये लड़कियां यही नहीं रुकीं। आज वो अपने हक के लिए तो खड़ी होती ही हैं। साथ ही दूसरी लड़कियों के लिए भी आवाज़ उठा रही हैं। छठीं और आठवीं में ड्रॉप आउट होने वाली लड़कियां, मेरी संस्था की वजह से आज ग्रेजुएशन या पीजी कर रही हैं। कई लड़कियां जॉब कर रही हैं। ये मेरी अचीवमेंट है।
मैं और मेरी संस्था से जुड़ने वाले सभी लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए दूसरे-दूसरे कामों पर निर्भर हैं। संस्था में बस हम एक-दूसरे से अपनी कहानी शेयर करते हैं और उसे आगे बढ़ाते जाते हैं। पहले सिर्फ दलित तबके की लड़कियों के लिए काम करते थे लेकिन आज हर वर्ग की लड़कियां शामिल हैं। जो लड़कियां कल तक हिजाब में घूमती थी। ‘गौरव ग्रामीण महिला विकास मंच’ की पहल की वजह हाफ पैंट-टीशर्ट में फुटबॉल खेल रही हैं। अब तक लगभग 3 हजार से ज्यादा लड़कियां फुटबॉल से जुड़ी हैं। ये लड़कियां बाल विवाह से हटकर फुटबॉल और पढ़ाई की ओर जा रही हैं। ये मुझे सुकून देता है।
सौजन्य : Dainik bhaskar
नोट : यह समाचार मूलरूप से bhaskar.com में प्रकाशित हुआ है. मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है !