दलितों पर हिंसा: तमाम क़ानूनों के बावजूद क्यों नहीं लगती लगाम
दलितों और आदिवासियों की ख़बर मीडिया में तभी छपती है जब कोई उत्पीड़न होता है। जालौर में इंद्र कुमार मेघवाल की हत्या की ख़बर मीडिया में खूब रही। इतना स्थान मीडियम इनके शिक्षा, विकास व नौकरी आदि के लिए मिली होती तो लाखों का उत्थान हो जाता। करोडों दलित बच्चों का वजीफा नही बढ़ा, मिलता है तो बहुत बाद में । लाखों बच्चों की स्कालरशिप का गबन हो जाता है। लाखों करोड़ के स्पेशल कॉम्पोमेंट प्लान और ट्राइबल सब प्लान के पैसे का दुरपयोग होता रहता है। लाखों सरकार में पद खाली हैं। मीडिया में ऐसे मुद्दे को स्थान कहां मिलता है। जो मीडिया सामाजिक और राजनैतिक नेताओं का अच्छे काम को स्थान नही देती वही उत्पीड़न होने पर ही क्यों सक्रिय होती है? जालौर की घटना को मीडिया ने इतना जगह दिया कि लाखों लोग बिना संगठित पहुंच गए । जालौर अपवाद नहीं है बल्कि और उत्पीड़न के मामले में भी ऐसा होता है । कई घटनाएं ऐसी भी होती हैं कि नजर से बच जाती हैं भले ही बहुत संगीन हो। कई बार न चाहते हुए भी कवर करना पड़ता है जब ख़बर किसी एक जगह चल जाए।
सबसे आश्चर्य की बात है कि दलित सक्रियता इसी समय दिखती है। ऐसा इसी समय क्यों दिखती है यही यक्ष प्रश्न है। कभी एक जज बनाने या कुलपति के लिए क्यों नही इकठ्ठे होते । एक जज के कलम से पूरा आरक्षण प्रभावित हो जाता है। एक विश्व विद्यालय के कुलपति से कितने प्राध्यापक भर्ती किए जा सकते हैं और छात्रों का तो भला होगा ही। भारत का सचिव या यूपीएससी का सदस्य या चेयरमैन के लिए कभी दलित सक्रियता नही दिखती जिससे करोड़ों के जीवन में परोक्ष या अपरोक्ष भला हो सकता है। दलित – आदिवासी को लगभग वैसे मंत्रालय दिए जाते हैं जो ज्यादा भला नही कर सकते। राजनैतिक दल संगठन ऐसे पद नही देते जिससे अपने समाज का भला हो सकता है। जो सासंद या विधायक इनके लड़े उसके पीछे क्यों नहीं खड़े होते ? जब पार्टी ऐसे लोगों का पत्ता काट देती है तो कोई दलित सक्रियता नही दिखती।
दलित खुद के जातिवाद करने पर गर्व करते हैं। शायद ही कोई कथित दलित सक्रियता वाला हो जो जाति के संगठन से परोक्ष या अपरोक्ष से न जुड़ा हो। एक जाति दूसरे से लड़ते रहते हैं।पंजाब में चुनाव हुआ मज़हबी दलित नाममात्र का वोट दिया क्योंकि चन्नी रविदासी थे। खुद तो जातिवाद करें तो ठीक और जट सिख जट करें तो गलत । बहुजन अंदोलन के पहले भले ही चेतना काम थी लेकिन उपजातिवाद कम था । कहा गया कि जो अपनी जाति को जोड़ेगा वो पाएगा । फिर क्या था निकल पड़े जाति के नेता अपनी अपनी जाति को संगठित करने के लिए और किए भी। जब टिकट और सम्मान नहीं मिला तो अपनी जाति का वोट लेकर दूसरे दुकान पहुंच गए। जो भी कीमत लगी समझौता कर लिया । कुछ न से कुछ भी भला और जाति इतने पर बौरा जाति है और दनादन वोट डाल देती। छाती चौड़ी हो जाती है और उस पार्टी के लिए झंडा डंडा उठा लेते हैं। थोड़े से लालच के चक्कर में एक दलित की जाति दूसरे के खिलाफ खड़ी हो जाती है। हरियाणा में ए और बी का इतना गहरा अंतर्विरोध है कि दबंग और शोषण करने वाली जाति से हाथ मिला लेंगे लेकिन एक दूसरे को फूटी आंख से देखने को तैयार नहीं हैं।
इनके जातीय सम्मलेन की बातें जानें तो आश्चर्य होगा। व्यवस्था के अनुसार जो जातियां सबसे नीचे पायदान पर हैं वो भी गला फाड़ फाड़ कर भाषण करेगें कि हमें अपनी जाति पर गर्व है। जब इन्हे गर्व है तो राजपूत और बनिया को अपने जाति पर क्यों न गर्व हो ? खुद करें जातिवाद तो गर्व की बात है जब ब्राम्हण करें तो जातिवाद । जब तक यह चलेगा जालौर, हाथरस और उन्नाव जैसी घटनाएं होती रहेंगी। उत्पीड़न का श्रोत जनतंत्र में नही बल्कि सामाजिक व्यवस्था है। सामाजिक व्यवस्था ज्यों का त्यों बनी रहे तो सरकार किसी की भी हो उत्पीड़न नही रुकेगा। जनत्रंत्र की ताकत जब ढीली हो जाती है तो उत्पीड़न हो जाता है। जाति व्यवस्था का भेदभाव और उत्पीड़न हिस्सा है। संविधान के कारण भेदभाव कम हुआ है और जहां संवैधानिक प्रवधान निष्क्रिय हुए वहीं पर जालौर जैसा कांड हो जाता है।
बहुजन अंदोलन था डॉ अंबेडकर के विचाराधारा के खिलाफ लेकिन लोग समझे कि यही सामाजिक न्याय, जाति का उन्मूलन और एकता है। इसे ऐतिहासिक ठगी या नासमझी कहा जाए। बाबा साहेब हिंदू धर्म तक जाति से मुक्ति के लिए छोड़ दिए। हमारे सारे नेता हिन्दू धर्म में ही मरे कुछ अपवाद को छोड़कर। बाबा साहब के संघर्ष का प्रतिफल जैसे आरक्षण और अन्य सुविधाएं तो लेने में कोई देरी नही। छात्र जीवन से ही लेने लगते हैं और जब बौद्ध धर्म अपनाने की बात आए तो बुढ़ापे का इंतजार । बुद्ध धर्म तो आरक्षण लेने से पहले ले लेना चाहिए ताकि जातिवादी संस्कार से मुक्त हो जाएं । खुद जातिवादी संस्कार में रहकर जाति के खिलाफ लड़ रहे हैं । खुद जाति उन्मूलन न करें और सवर्णों से कहें कि वो जातिवाद न करें। जब तक मेघवाल , बेरवा, बलाई, खटीक, चमार , महार, मतंग रहेंगे तो एकता कहां होगी और बिना एकता के अन्याय से लड़ कैसे पाएंगे? जिन संस्कारों के कारण अत्याचार हो रहा है उसी को माने तो सामाजिक व्यवस्था मजबूत रहेगी और उत्पीड़न होता रहेगा , हैं कभी कम कभी ज्यादा होता रहेगा। दलित पीएम और सीएम भी बन जाएं तो उत्पीड़न बंद नही जाएगा और कम हो सकता है। दलित उत्पीड़न की घटना से किसी राजनैतिक दल को फायदा हो सकता है । जो लोग दर्द और सहानुभूति प्रकट करने जालोर गए , उनका नाम मीडिया में छप गया और नेता बन जाने का अवसर मिल जाए लेकिन दलितों के शोषण को रोकने का उपाय यह नही। ऐसे घटना का विरोध होना चाहिए और हुआ भी लेकिन स्थाई समाधान खोजना होगा।
सौजन्य : Janjwar
नोट : यह समाचार मूलरूप से janjwar.com में प्रकाशित हुआ है. मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है !