भारत की वो 9 महिला स्वतंत्रता सेनानी, जिसने अंग्रेज खाते थे खौफ
नई दिल्ली । अंग्रेजों से हमें आजादी मिले 75 साल होने जा रहे हैं। गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए ना जाने कितने ही क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी? यूं तो जंग-ए-आजादी के मतवालों की फेहरिस्त लंबी है, मगर हम 15 अगस्त 2022 के मौके पर उन 9 क्रांतिकारी महिला स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में बता रहे हैं, जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के जुल्मों सितम के बावजूद कदम पीछे नहीं खींचे। स्वतंत्रता के लिए उनके मजबूत इरादे देख अंग्रेज अफसर भी उनसे खौफ खाया करते थे।
भोगेश्वरी फुकनानी, असम
1885 में असम के नौगांव में जन्मी भोगेश्वरी फुकनानी ने भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया था। वृद्धावस्था में इन्होंने बेहरामपुर कस्बे में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया था। कस्बे की महिलाओं का संगठन बनाकर उन्हें आन्दोलन में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। 13 सितम्बर 1942 को विजयादशमी के दिन समारोह में एकत्रित भीड़ पर पुलिस दल ने अचानक आकर लाठियाँ बरसानी शुरू कर दीं। महिलाओं का नेतृत्व करती हुई भोगेश्वरी देवी तिरंगा हाथ में लेकर अंग्रेज सेना के सामने जा पहुंचीं। भोगेश्वरी देवी ने झपटकर झण्डे के डंडे से फिंस पर हमला कर दिया। घायल फिंस ने भोगेश्वरी देवी को गोलियों से छलनी कर दिया, जिससे ये शहीद हो गईं।
मातंगिनी हाजरा, पश्चिम बंगाल
मातंगिनी हाजरा वो भारतीय क्रांतिकारी थीं, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में तब तक भाग लिया जब तक कि अंग्रेजों ने गोली मारकर हत्या नहीं कर दी। इनका जन्म पश्चिम बंगाल के मिदनापुर ज़िले में 19 अक्टूबर 1870 को हुआ था। इन्होंने 29 सितम्बर, 1942 को वीरगति प्राप्त की। इनको लोग ‘गांधी बुढ़ी’ भी बुलाते थे। साल 1942 में ब्रिटिश सेना की गोलियों का शिकार होने से पहले इन्होंने ‘वंदे मातरम’ का नारा लगाया था।
कनकलता बरुआ,असम
असम के गोहपुर में 22 दिसंबर 1924 को जन्मी कनकलता बरुआ ने छोटी सी उम्र में ही अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए थे। एक गुप्त सभा में 20 सितंबर, 1942 को तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया था। तिरंगा फहराने आई हुई भीड़ पर अंग्रेजों ने गोलियाँ दागीं। यहीं पर कनकलता बरुआ ने शहादत पाई। ये शहीद हुईं तब इनके हाथ में तिरंगा था।
झलकारी बाई, उत्तर प्रदेश
22 नवंबर 1830 को जन्मी झलकारी बाई की शक्ल रानी लक्ष्मीबाई से मिलती जुलती थी। इसीलिए ये अक्सर अंग्रेजों को गुमराह करने के लिए रानी लक्ष्मीबाई के वेश में आजादी की लड़ाई लड़ा करती थीं। 4 अप्रैल 1857 को वीरगति पानी वाली झलकारी बाई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया।
रानी चेन्नम्मा, कनार्टक
अंग्रेजों के खिलाफ जंग-ए-आजदी के शुरुआती दौर में आवाज उठाने वालों में कर्नाटक की कित्तूर रियासत की रानी चेन्न्म्मा भी थीं। इन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जंग का नेतृत्व किया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष के पहले ही रानी चेनम्मा ने युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। हालांकि उन्हें युद्ध में सफलता नहीं मिली और उन्हें कैद कर लिया गया। अंग्रेजों के कैद में ही 21 फरवरी 1829 को रानी चेनम्मा शहीद हो गई थीं।
प्रीतिलता वादेदार, बंगाल
चिटगाँव (वर्तमान बांग्लादेश) में 5 मई 1911 को जगबंधु वड्डेदार और प्रतिभा देवी के घर जन्मी प्रीतिलता 21 साल की उम्र में ही शहीद हो गई थीं। ये वो क्रांतिकारी महिला हैं, जिन्होंने ‘मास्टर दा’ सूर्य सेन के साथ मिलकर पहाड़तली यूरोपीय क्लब को आग लगाई थी। अंग्रेजों के इस क्लब के साइनबोर्ड में लिखा था कि ‘कुत्तों और हिंदुस्तानियों को इजाजत नहीं’। गिरफ्तारी से बचने के लिए 1932 में वादेदार ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।
ऊदा देवी पासी, उत्तर प्रदेश
ये वो ‘दलित वीरांगना’ हैं, जिन्होंने उत्तर प्रदेश के लखनऊ के सिकंदर बाग की लड़ाई में पीपल के पेड़ पर चढ़कर 30 से ज्यादा ब्रिटिश सैनिकों को ढेर कर दिया और फिर खुद भी शहीद हो गई थीं। इन्होंने 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई साहसिक कदम उठाए। अवध के छठे नवाब वाजिद अली शाह के महिला दस्ते की सदस्य भी रहीं।
सिकंदर बाग की लड़ाई में ऊदा देवी पासी ने पुरुषों के वस्त्र धारण कर अपने साथ एक बंदूक और कुछ गोला बारूद लेकर पेड़ पर चढ़ गयी थीं। हमलावर ब्रिटिश सैनिकों को सिकंदर बाग में तब तक प्रवेश नहीं करने दिया था जब तक कि उनका गोला बारूद खत्म नहीं हो गया था।
भीमाबाई होलकर, मध्य प्रदेश
भीमाबाई होलकर महारानी अहिल्या बाई होलकर के दत्तक बेटे तुकोजीराव के बेटे यशवंत राव की बेटी थीं। 1817 में माहिदपुर में अंग्रेजों के खिलाफ भीषण संग्राम हुआ, जिसमें इन्होंने 1817 में गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाकर अंग्रेजों को धूल चटाई। तब ये महज 20 साल की थी। लड़ाई में उन्होंने 2,500 घुड़सवारों की फौज का नेतृत्व किया। हालांकि इन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था, मगर उनकी देशभक्ति और वीरता ने उन्हें अमर बना दिया।
रानी गाइदिनल्यू, मणिपुर
1915 में जन्मी रानी गिडालू भारत की नागा आध्यात्मिक एवं राजनीतिक नेत्री थीं। इन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। भारत सरकार ने इनको 1982 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। इन्होंने नागालैण्ड में क्रांतिकारी आन्दोलन चलाया था। ये महज 13 साल की उम्र में ही आजादी की लड़ाई से जुड़ गई थीं। महज 16 की उम्र में गिरफ्तार भी हो गईं और आजीवन कैद की सजा पाई। हालांकि आजादी मिलने के बाद जेल से रिहा हो गई थीं।
सौजन्य : Oneindia
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