आदिवासियों को पारंपरिक हुनर से जोड़ने की जरूरत
जैन संत, धर्म और समाज के विषयों के मार्गदर्शक, कई वर्ष से आदिवासी अंचल में प्रवासरत दुनिया के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले शुरुआती निवासी यानी आदिवासी वर्तमान की तुलना में पूर्व में बहुत बड़े क्षेत्रों में रहते थे। आज के वक्त का बड़ा सवाल यह है कि हम वास्तव में इन आदिवासियों के बारे में कितना जानते हैं, फिर चाहे वे भारत के हों या पृथ्वी के किसी अन्य भू-भाग के? क्या हमें उनके बारे में जानने की जरूरत नहीं है? आदिवासियों का व्यवसाय खेतों में काम करने, मछली पकडऩे और वन उपज के संग्रह से भिन्न होता है। ज्यादातर अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर होते हैं और उनमें से 10 फीसद से भी कम अपनी जरूरतों के लिए ही शिकार करते हैं।
आज आदिवासी जिस स्थिति में हैं, उसके जिम्मेदार कुछ हम हैं तो कुछ वे स्वयं। हमने उन्हें नौकरियों की योजनाओं के सब्जबाग दिखाए तो उन्होंने इस चक्कर में अपने पारंपरिक काम-धंधे छोड़कर शहरों का रुख किया। ऐसे में हमें अपने जीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं को अन्य देशों से मंगवाना पड़ रहा है। आदिवासियों की स्थिति आज इतनी खराब है कि वे पेट भरने के लिए अपने बच्चों तक को बेचने या उन्हें काम करने के लिए दूसरे राज्यों में भेजने को मजबूर हैं, जहां वे आपराधिक घटनाओं का शिकार भी होते हैं। हर वर्ष सरकारों के करोड़ों रुपए के बजट आवंटन दलितों और आदिवासियों के लिए मातृत्व लाभ और बुनियादी आय सुरक्षा सहित सार्वभौमिक बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की गारंटी का दावा करते हैं, पर लाभ किसको और कितना मिला है?
दलित मानवाधिकारों पर राष्ट्रीय अभियान (एनसीडीएचआर) के अनुसार 15 से 34 आयु वर्ग में दलित और आदिवासी समुदायों की युवा आबादी 35% और 23.8% है। ये युवा कम कौशल योग्यता के साथ ही अत्यधिक गरीबी में रहते हैं। वे भारत में असंगठित कामकाजी क्षेत्र का बड़ा हिस्सा हैं, फिर भी रोजमर्रा की वस्तुओं तक उनकी पहुंच नहीं है। आज भी कई गांवों में बिजली, पानी, सड़कें व स्वास्थ्य सुविधाएं तक नहीं हैं। सबसे बड़ा संकट आदिवासी समाज के कुछ लोगों का बहकावे में आकर अलग राज्य की मांग करना है। उन्हें पता ही नहीं है कि मूलाधार से अलग होकर क्या कोई अपना विकास कर सकता है। आज भी देश में 60-70 जिले आदिवासी-बहुल हैं, पंच से लेकर सांसद तक आदिवासी हैं, पर वे जहां थे, वहीं हैं।
एक सुझाव है कि सरकारें जो बजट, योजनाएं आदि इन आदिवासियों के लिए बनाती हैं, अगर उस बजट से उनके पारंपरिक हुनर का उत्थान किया जाए तो कायाकल्प होते देर नहीं लगेगी। एक ऐसी यूनिवर्सिटी बने जहां डिग्री के आधार पर नहीं, अनुभव और काम के आधार पर उन्हें प्रोत्साहित किया जाए। वहां उन्हें खेती करना, वन संरक्षण, जल संरक्षण और पशुपालन के अभ्यास के साथ वीडियोग्राफी, तकनीकी दक्षता और दैनिक जनउपयोग गतिविधियों का प्रशिक्षण दिया जाए। कौशल संवर्धन सोच और रहन-सहन में बदलाव लाएगा। वर्तमान में देखा जाए तो आदिवासियों का निवास नदी किनारे, पहाड़ों या जंगलों में है, इसलिए वे इनका संरक्षण भी भलीभांति कर सकते हैं। पैदल विहार के दौरान अक्सर मैंने पाया है कि आंदोलनरत आदिवासियों को ठीक से आंदोलन के कारणों का भी पता नहीं होता। कई आदिवासी क्षेत्रों में स्कूल हैं, पर शिक्षक नहीं हैं। आज सबसे ज्यादा जरूरत उन्हें काम सिखाए जाने व उनके पारंपरिक व्यापार से जोडऩे की है। आठ प्रतिशत से अधिक आदिवासियों की आबादी वाले भारत में आदिवासियों को रूढिय़ों में चित्रित किया जाता है और उपेक्षित किया जाता है। इस आख्यान को बदलना होगा। तभी हम वर्ष 2022 की थीम – ‘संरक्षण में स्वदेशी महिलाओं की भूमिका और पारंपरिक ज्ञान का प्रसारण’ को वास्तविकता में बदल सकेंगे।
सौजन्य : Patrika
नोट : यह समाचार मूलरूप से patrika.com में प्रकाशित हुआ है. मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है !