दलित का स्थानापन्न क्या ललित होगा? शब्द पर रोक नहीं, फिर सरकार ने क्यों बनाई दूरी
आजादी के 75 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में पिछले महीने जब साहित्य अकादेमी का अंतरराष्ट्रीय उत्सव शिमला में संपन्न हो रहा था, तब कुछ सामाजिक कार्यकर्ता सोशल मीडिया पर लिख रहे थे, ‘यह क्या हो रहा है? आप लोग वहां सरकारी मेहमान बनकर क्या कर रहे हैं? क्या आप देख नहीं रहे हैं कि अकादेमी ने चर्चा के लिए पांच दर्जन से अधिक उपविषय रखे हैं, लेकिन दलित साहित्य, दलित मीडिया, दलित स्त्री लेखन इत्यादि का तो एक भी विषय नहीं है। ऐसे तो इस समाज की दशा-दिशा को दर्शाने वाले शब्द का वजूद ही खत्म हो जाएगा।’
दरअसल इन पंक्तियों के लेखक और शरणकुमार लिंबाले के पास कार्यक्रम की सूची नहीं थी। मुख्य विषय ‘स्वतंत्रता आंदोलन में किताबों की भूमिका’ पर ही हमने अपने आलेख तैयार किए थे। सो हम नहीं जानते थे कि शिमला में आयोजित साहित्य अकादेमी के सम्मेलन से दलित शब्द की विदाई हो चुकी है। वैसे हो भी जाए, तो क्या मुसीबत थी? यदि समाज से दलित-गैरदलित का भेद समाप्त कर दिया जाए, तो दलित शब्द-स्वतः इतिहास की चीज हो जाएगा। आज ‘हरिजन’, ‘गिरिजन’, ‘’बहिष्कृत’ जैसे शब्द साहित्य की मुख्य अभिव्यक्ति नहीं हैं। अगर स्थितियों में सुधार हो, तो दलित भी ललित हो सकता है।
असंसदीय शब्दों की नई बुकलेट आने पर विपक्ष के हंगामे की प्रतिक्रिया में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने कहा था कि कोई शब्द प्रतिबंधित नहीं है। दलित शब्द असंसदीय नहीं है। यह हटा, तो क्या कोई ‘हरिजन’ या ‘अछूत’ शब्द अपनाने को तैयार होगा? उसका स्थानापन्न क्या ‘बहुजन’ या ‘मूल निवासी’ शब्द होगा? क्या ‘अछूत’ या ‘दलित’ कहना छोड़ने से अस्पृश्यता की कालिख मिट जाएगी? क्या ‘रंक’ का नाम ‘राजा’ रखने से सिर पर ताज आ जाएगा? क्या गुलाम को आजाद कहने से वह बंधन मुक्त हो जाएगा? कदाचित् नहीं। ऐसे समय में पत्रकार, कवि रघुवीर सहाय की एक कविता की पंक्ति जेहन में कौंधती है…लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कहकर आप हंसे। इसी को उलट दें, तो होगा, ‘दलित शब्द का अंतिम क्षण है कहकर आप फंसे।‘
हंसने के बजाय फंसने की बात क्यों? इसलिए कि दलित शब्द को शिमला-उत्सव में हाशिये पर भी जगह न मिलने से नाखुश लोगों ने दलितों से हमदर्दी जाहिर करते हुए कहा कि देशी-विदेशी भाषाओं में प्रचलित और वैश्विक पहचान वाले शब्द पर रोक सही नहीं है। तीन जून, 2022 को दिल्ली सरकार ने ‘हरिजन‘ शब्द पर रोक लगा दी। समाज कल्याण मंत्री राजेंद्र गौतम ने बाकायदा प्रेसवार्ता कर कहा कि ‘हरिजन‘ शब्द के स्थान पर आंबेडकरी शब्द का प्रयोग होगा।
जबकि सच्चाई यह है कि राजनीतिक पार्टियों को दलित शब्द से कभी इनकार नहीं रहा है। वर्ष 2003 में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के समय भोपाल में अंतरराष्ट्रीय दलित कान्फ्रेंस हुई थी। बीते चुनावों के समय कई शीर्ष नेताओं ने दलितों के घर पर भोजन किया था। तब उन्हें दलित शब्द से भी परहेज नहीं था। क्या अब मात्र संविधान के अनुसूचित जाति शब्द का प्रचलन साहित्य में होगा? लेकिन क्या राष्ट्रपति को ‘दलित’ और ‘आदिवासी’ पहचान से मुक्त रख पाना संभव है?
आंबेडकर ने इस जाति समूह को ‘बहिष्कृत भारत’ कहा है। ऐसा भी नहीं है कि अंग्रेजी, हिंदी, मराठी, तमिल, तेलगू में दलित शब्द का इस्तेमाल रोक दिया गया है। तो फिर सरकारी संस्थाओं में दलित शब्द को जगह न देने का क्या औचित्य है? जब समाज में अनुभव और अभिव्यक्ति की विविधता है, तो साहित्य में विविधता क्यों नहीं आएगी? ध्यान देने की बात यह भी है कि देश आजादी के 75 साल पूरे होने पर ‘अमृत-महोत्सव‘ मना रहा है। जो समाज में घटित होता है वही साहित्य में चित्रित या प्रतिबिंबित होता है। शब्द की आजादी मर्यादित अभिव्यक्ति संयत की जा सकती है, पर अंग्रेजी राज की तरह साहित्य पर पाबंदी नहीं लगाई जा सकती।
अगर हम पिछले छह महीने की पत्र-पत्रिकाएं उलट-पलट कर केवल खबरों के शीर्षक देखें, तो चिंताजनक फेहरिस्त तैयार होगी। जैसे, ‘दलित युवक की गोली मारकर हत्या’, दलित युवक को लाठी-डंडों से पीटने का आरोप’ ,‘हर महीने दलित समुदाय के बीच जाएंगे बीजेपी सांसद,’ ‘दलितों को खुली धमकी देने का विडियो वायरल’, ‘डिलीवरी बॉय से जाति पूछ खाना लेने से इनकार’, ‘विपक्षी दलों ने दलितों के लिए कुछ नहीं किया’, ‘दलित परिवारों ने कहा पलायन को मजबूर हैं,’ ‘दलित उत्पीड़न के खिलाफ प्रदर्शन’, आदि।
मराठी और अंग्रेजी अखबारों में भी दलितों की दुर्दशा के सबंध में दलित शब्द का प्रयोग हो रहा है। दलितलिटी नाम से एक अंग्रेजी अखबार दलित युवक का पाक्षिक स्तंभ प्रकाशित करता है। अमेरिका, कनाडा और इंग्लैंड में ‘दलित डायस्पोरा’ नाम से लोग संगठित हैं। सरकार के नब्बे फीसदी नेता दलित शब्द का इस्तेमाल करते हैं, और जो अुनसूचित श्रेणी से आते हैं, वे अपना जातिसूचक शब्द भी इस्तेमाल करते हैं। हालिया उदाहरण उत्तर प्रदेश के जल संसाधन राज्यमंत्री दिनेश खटीक का है, जिन्होंने अपना बयान सार्वजनिक करते हुए कहा था, ‘दलित हूं, इसलिए मेरी बात नहीं सुनी जाती।’ ऐसे में सरकारी सहायता प्राप्त अकादमियों व प्रचार-प्रसार के माध्यमों को दलित शब्द इस्तेमाल न करने देने की बात चिंताजनक है।
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सौजन्य : Amarujala
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