दक्षिण भारत में दलित विमर्श में नई हलचल
आज, हम सत्तारूढ़ हिंदू दक्षिणपंथ द्वारा संरक्षित जातिवाद के एक नए ब्रांड के साक्षी हैं, चाहे वह दक्षिण भारत में कर्नाटक में हो या उत्तर में उत्तर प्रदेश। यह आरएसएस की वैचारिक व संगठनात्मक ताकत से समर्थित है, जो “हिंदू एकता” की अपनी आधिपत्यवादी परियोजना के तहत विद्रोही दलित पहचान को दबाने की कोशिश कर रहा है। इसके अपरिहार्य काउन्टर करेंट के रूप में, कुछ दलित रचनात्मक कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में जातिवाद-विरोधी एक नई शैली (genre) ने भी जन्म लिया है। वे सार्वभौमिक अपील वाले रचनात्मक सांस्कृतिक उत्पादों के साथ सामने आ रहे हैं, और इसमें वे किसी से पीछे नहीं हैं, चाहे वह साहित्यिक कार्य हो या नए युग का सिनेमा। वे जन संस्कृति के क्षेत्र में रैडिकल एजेंडा तय कर रहे हैं। वे हिंदुत्ववादी आधिपत्य और इसके अंतर्निहित उच्च जाति के एकीकरण को चुनौती दे रहे हैं। यह कर्नाटक और तमिलनाडु में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है।
कर्नाटक में केसरिया के ख़िलाफ़ साहित्यिक धमाका
जो लोग पूरे भारत में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता से प्यार करते हैं, उन्हें हाल के दिनों में कर्नाटक से बहुत बुरी खबरें मिली हैं – चाहे वह बुर्का प्रतिबंध हो, अज़ान पर प्रतिबंध हो, हलाल मांस का मुद्दा हो, स्कूली किताबों का सांप्रदायिक संशोधन हो, धर्मांतरण विरोधी कानून पारित करना हो, या फ्लैश मॉब हो जो केवल अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थलों और यहां तक कि उनकी दुकानों और घरों आदि पर हमला करने के लिए यात्रा निकालते हैं। लेकिन, एक बदलाव भी दिखा- जो कि एक अच्छी खबर आई है।
राज्य में दलित आंदोलन के प्रमुख विचारक और नेता देवनूर महादेवा ने हाल ही में आरएसएस पर अपनी आलोचनात्मक पुस्तक प्रकाशित की। आरएसएस-आला मट्टू अगला (आरएसएस-इसकी गहराई और चौड़ाई) शीर्षक से, पुस्तक का प्रकाशन अपने आप में एक ‘मेगा इवेंट’ बन गया।
देवनूर महादेवा
आरएसएस के खिलाफ इस लोकप्रिय पुस्तिका के प्रकाशन की योजना एक बड़े धमाकेदार कार्यक्रम के रूप में बनाई गई थी। छह प्रमुख प्रकाशकों को उसी पुस्तक को प्रकाशित करने और उसी दिन जारी करने के लिए नियुक्त किया गया था। कन्नड़ बुद्धिजीवियों के बीच अभी भी शक्तिशाली साहित्यिक और सांस्कृतिक नेटवर्क की वजह से, नई पुस्तक के आसन्न विमोचन के बारे में बात बिना किसी मंच-प्रबंधित कमर्शियल प्रोमो के भी, तेजी से फैल गई।
देवनूर महादेव की पुस्तक
40 रुपये की कीमत वाली 64 पेज की पुस्तिका कोई नियमित प्रचार सामग्री नहीं है। यह संघ परिवार के आधिपत्य की एक अनूठी सबाल्टर्न आलोचना पेश करता है। एक ऐसी आलोचना जो पारंपरिक उदार लोकतंत्र तक ही सीमित नहीं है, बल्कि जो रैडिकल सामाजिक न्याय पर आधारित है। कुल मिलाकर, सभी छह प्रकाशकों ने पुस्तक की 9000 प्रतियां निकाली थीं और एक सप्ताह के भीतर लगभग सभी प्रतियां बिक चुकी हैं। अब वे सभी पुनर्मुद्रण के लिए तैयार हैं। अभूतपूर्व प्रतिक्रिया को देखते हुए, कुछ तालुक-स्तर के प्रकाशक भी अपनी तालुक-स्तरीय मांग को पूरा करने हेतु इसे प्रकाशित करने के लिए आगे आए हैं। एक गंभीर गैर-कथा (non-fiction) प्रकाशन के लिए ऐसा रिकॉर्ड प्रकाशन-कार्य दुर्लभ है।
और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारी संख्या में पाठक वर्ग दलित युवा और दलित आंदोलन के कार्यकर्ता नहीं हैं। वे अन्य सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं। गैर-दलित वर्गों के बीच दलित-केंद्रित और अम्बेडकर-संबंधित पठन सामग्री के लिए आकर्षण एक बहुत ही महत्वपूर्ण नया विकास है। हो सकता है, एक नए सर्वदेशीयवाद (cosmopolitanism), उदार बहुसंस्कृतिवाद (liberal multiculturalism) और एक लोकतांत्रिक मिली-जुली संस्कृति (composite culture) के कोमल अंकुर धीरे-धीरे प्रस्फुटित हो रहे हैं।
दलित और रैडिकल आंदोलनों में देवनूर महादेव के करीबी संस्थापक-पीढ़ी के साथियों में से एक
और वर्तमान में अखिल भारतीय पीपल्स फ्रंट (एआईपीएफ) के कर्नाटक संयोजक डॉ. वी. लक्ष्मीनारायण ने न्यूज़क्लिक के लिए देवनूर महादेव की पुस्तक का सारांश इस प्रकार दिया: “पुस्तक में, देवनूर महादेव दिखाते हैं कि कैसे गोलवलकर की दृष्टि तीन घातक विचारों पर आधारित थी
1) ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का समर्थन, जिसने पदानुक्रमित (hierarchic) और दमनकारी वर्ण व्यवस्था का आधार रखा, 2) चतुर वर्ण को बनाए रखने के लिए अम्बेडकर के संविधान की अस्वीकृति, और 3) आर्य वर्चस्व का महिमामंडन। वह दिखाते हैं कि कैसे इन तीन सिद्धांतों पर आधारित हिंदुत्व की विचारधारा मूल रूप से दलित विरोधी और मजदूर विरोधी है। किताब में महादेव ने भाजपा विरोधी ताकतों की व्यापक एकता का आह्वान करते हुए अगले चुनाव में कर्नाटक में भाजपा की हार की रणनीति भी बताई है।
न्यूज़क्लिक ने कर्नाटक में कुछ अन्य कार्यकर्ताओं से बात की- लोगों की राय थी कि किताब द्वारा वकालत की गई राजनीति केवल आक्रोश और विरोध की राजनीति नहीं थी। बल्कि, यह गरिमा, स्वायत्तता और स्वतंत्रता का दावा है, और सामान्य लोकतांत्रिक महकमे में सबसे अधिक उत्पीड़ितों द्वारा नेतृत्व के उदय का द्योतक भी। यह शोषित हाशिये के लोगों और उनके बहिष्कार की शोकपूर्ण अभिव्यक्ति नहीं थी। बल्कि, यह एक स्वतंत्र सामाजिक और राजनीतिक भूमिका के लिए उनका आत्मविश्वास और हिंदुत्व के लिए एक चुनौती थी। यह केवल गांव और मोहल्ला स्तर पर उच्च जाति के प्रभुत्व का सामना करने तक ही सीमित नहीं था बल्कि अखिल भारतीय स्तर पर हिंदू उच्च जाति के राजनीतिक नेतृत्व को चुनौती दे रहा था।
देवनूर महादेवा कर्नाटक में स्वायत्त दलित आंदोलन के अग्रदूतों में से एक रहे हैं, वह आंदोलन जो 1970 के दशक में कर्नाटक में, इस तरह के आंदोलन के कुछ समय पहले, पड़ोसी महाराष्ट्र में अपनी पहचान बनाने के बाद आया था। महाराष्ट्र के दलित पैंथर्स के समान, कर्नाटक में नए दलित दावेदारी का नेतृत्व दलित संघर्ष समिति ने किया, जिसे डीएसएस (DSS) के नाम से जाना जाता है। देवनूर महादेवा डीएसएस के संस्थापकों में से एक हैं। चार दशकों से अधिक समय से, वह न केवल दलित आंदोलन, बल्कि कर्नाटक की राजनीति में किसानों के आंदोलन, महिला आंदोलन, श्रमिक आंदोलन और रैडिकल वामपंथ व नागरिक समाज को शामिल करते हुए एक प्रगतिशील आंदोलन-आधारित ‘तीसरी ताकत’ के लिए भी प्रमुख रणनीतिकार रहे हैं।
इसके साथ ही, उन्होंने एक लेखक और साहित्यिक व्यक्तित्व के रूप में भी अपनी पहचान बनाई और कन्नड़ साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें पद्म श्री से भी सम्मानित किया गया। एक बहुत ही प्रतिभाशाली लेखक के रूप में, उन्होंने और उनके साथियों जैसे दिवंगत डीआर नागराज ने यह सुनिश्चित किया कि दलित साहित्य की शैली जीवंत कन्नड़ साहित्यिक क्षेत्र में अन्य साहित्यिक विधाओं को टक्कर दे। राजनीतिक रूप से, वे एक स्वतंत्र वामपंथी और कर्नाटक में डॉ. राममनोहर लोहिया के प्रबल सहयोगी रहे।
इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि जब कर्नाटक में उच्च जाति के हिंदू सांप्रदायिक प्रभाव क्षेत्र एक जन लोकलुभावन आयाम ग्रहण कर रहे थे और हिंदू मध्य वर्गों का मुस्लिम-विरोधी पूर्वाग्रह एक वायरस की तरह फैल रहा था, एक द्वंद्वात्मक प्रतिवाद के रूप में, आरएसएस के खिलाफ देवनूर महादेवा की किताब एक धमाके के रूप में आयी। इसके प्रकाशन के पहले सप्ताह में ही हजारों प्रतियां बिक जाने से यह स्पष्ट हो गया है कि कर्नाटक में भगवा-विरोधी संदेश और गुणवत्तापूर्ण आरएसएस विरोधी साहित्य के लिए पर्याप्त पाठक हैं। इसने साबित कर दिया कि कर्नाटक में भगवा वैचारिक उभार को चुनौती अवश्य मिलेगी।
तमिलनाडु में दलित-केंद्रित सिनेमा की एक नई शैली का उदय
जबकि साहित्यिक क्षेत्र अभी भी कर्नाटक में लोकप्रिय जन संस्कृति पर हावी है, पड़ोसी तमिलनाडु में इसकी जगह तमिल फिल्म उद्योग, कॉलीवुड (Kollywood) ने ले ली है। यह एक अत्यधिक राजनीतिकृत क्षेत्र है जहां द्रविड़ राजनीति का इतिहास और फिल्मी दुनिया का इतिहास अविभाज्य हैं। अब सबाल्टर्न तमिल फिल्मों की एक नई शैली, जिसे कई लोग ‘दलित सिनेमा’ कहते हैं, लहरें पैदा कर रही है। एक नये फिल्म निर्माता पा.रंजीत, इस प्रवृत्ति में अग्रणी हैं और 2012 में वह 29 वर्ष के थे, और बमुश्किल कला के स्कूल से बाहर निकले थे, जब उन्होंने फिल्म-निर्माण में अपने कैरियर की शुरुआत की।
तमिलनाडु के एक प्रमुख वामपंथी नेता एस. कुमारस्वामी ने दलित सिनेमा के बारे में, विशेष रूप से पा. रंजीत की फिल्मों के बारे में न्यूज़क्लिक को संक्षेप में बताया, “पा.रंजीत नए दलित सिनेमा के प्रतीक हैं। यह गंदगी के बारे में नहीं है। यह आंसुओं में डूबने के बारे में भी नहीं है। यह जीवन के बारे में है। अब यह रंगों से भर गया है। यह संघर्ष के बारे में है। यह अपनी दावेदारी को बढ़ाने के बारे में है। यह जाति-ग्रस्त हिंदू समाज के मौजूदा मूल्यों पर सवाल उठाने के बारे में है। यह अन्य जातियों के मेहनतकश लोगों तक पहुंचने के बारे में भी है।”
पा.रंजीत
फिर भी, ये फिल्में बड़ी व्यावसायिक हिट बन गईं। पा.रंजीत द्वारा निर्देशित Sarpattaparambarai, OTT में 150 देशों में देखी गई थी। इस कहानी में नायक भयानक पिटाई खाता है, ग़म में डूब जाता है, लेकिन फिर से आसमान छूने के लिए उठ खड़ा होता है। उनका संदेश, ‘नीय ओली’ (तमिल में: स्वयं अपना प्रकाश बनो), बहुजनों के लिए एक प्रेरक संदेश है। अन्य जातियों ने भी इस फिल्म का स्वागत किया है। न्यूयॉर्क टाइम्स ने इसे ओटीटी पर ‘मस्ट वॉच मूवी’ कहा है। परियेरुम पेरुमल (Pariyerum Perumal) भी एक दलित छात्र की कहानी है जो पढ़कर एक वकील के रूप में स्थापित होना चाहता है, ताकि वह उत्पीड़ितों के लिए लड़ सके। पा. रंजीत की कबाली और काला, दोनों रजनीकांत के साथ बनीं और मेगाहिट बन गईं। काला हिंदुत्व के खिलाफ बोलता है। कबाली ने मलेशिया में तमिलों के उत्पीड़न के सवाल पर जोरदार हमला किया। उनकी अट्टाकथी और मद्रास शहरी दलित जीवन और राजनीतिक रूप से संरक्षित शहरी माफियाओं के खिलाफ उनके दृढ़ संकल्प के बारे में है।
जब से पा.रंजीत ने दलित सिनेमा में एक नया मुकाम हासिल किया है, मारीसेल्वराज और वेत्रिमारन जैसे अन्य फिल्म निर्माताओं ने भी इसी तरह की फिल्में बनाकर इस ट्र्रेन्ड को बनाए रखा है। उनकी कहानियां भी ‘छिपे हुए लोगों’ और ‘अस्वीकृत लोगों’ के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती हैं। असुरन वेत्रिमारन भी एक फिल्म है जिसमें एक दलित नायक दमनकारी उच्च जाति के कुलकों से लड़ने का बीड़ा उठाता है और इस प्रक्रिया में अन्य मेहनतकश जातियों के व्यापक किसानों को जुटाता है।
“हाई-टेक युग में, ‘मेमोरी कार्ड’ ने महंगे फिल्म रोल की जगह भले ही ले ली है, लेकिन यादें और गाथाएं – उत्पीड़न और संघर्ष की – शक्तिशाली सौंदर्यबोध युक्त कहानियों के रूप में पुनः प्राप्त और पुन: प्रस्तुत की जाती हैं ताकि समाज विस्मृति के दलदल में न डूबे। उनके राजनीतिक संदेश में भी, ये फिल्में हिंदुत्व के खिलाफ एकजुटता का आह्वान करती हैं, क्योंकि वे यथास्थिति की जड़ों को हिलाती हैं,” कुमारस्वामी ने निष्कर्ष के तौर पर कहा।
लोकप्रिय तमिल सिनेमा में ‘मैक्सिमाइज़िंग-द-मार्केट’ विचार अब जातिगत भेदभाव को निर्धारित नहीं करता है। सच है, दलित अस्तित्व और प्रतिरोध के ग्लैमराइजेशन और रोमांटिसाइज़े़शन का एक तत्व है, जो शायद फिल्म निर्माण में अपरिहार्य है। फिर भी, जाति और जातिवाद के सांस्कृतिक निर्माण वास्तविक जीवन में जातिगत उत्पीड़न और असमानताओं में अंतर्निहित हैं। तथापि, दलित आदर्शों और शहरी दलित-जीवन विषयों वाली फिल्में भी बॉक्स- ऑफिस पर हिट होती हैं। दलित-विरोध अब एक संकीर्ण वर्गीय आवाज नहीं रह गया है, बल्कि एक लोकतांत्रिक मूल्य-छाप के साथ एक सामान्यीकृत नैतिकतावादी प्रस्ताव बनने की ओर अग्रसर है। गैर-दलितों के बीच उनकी उतनी ही अपील है जितनी दलितों पर है। यह तमिल सामाजिक सिनेमा में गुणात्मक रूप से एक नया तत्व है।
देवनूर महादेवा हों या पा.रंजीत, व्यक्तिगत स्तर पर, उन्होंने उच्च जाति के अभिजात्य वर्ग के गढ़ों में प्रवेश किया है, चाहे वह कन्नड़ साहित्यिक क्षेत्र हो या तमिल फिल्म उद्योग। उनका काम सीमित दलित क्षितिज के भीतर नहीं घूमता, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक लोकतंत्र के व्यापक क्षितिज पर आधारित है। दोनों ने अपने-अपने क्षेत्र में कलात्मक श्रेष्ठता स्थापित की है। हो सकता है, उनकी सफलता अभी भी नवजात और अल्पविकसित है, लेकिन उन्होंने साबित कर दिया है कि एक नई पीढ़ी अब तक बहिष्कृत सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में उत्पीड़ितों के नेतृत्व की घोषणा करने के लिए आगे आ गई है। इस लिहाज से यह सभी लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष तत्वों के लिए अच्छी खबर है।
संयोग से, दलित विमर्श में यह नया उत्साह सामाजिक धरातल पर और जमीनी स्तर पर बहुल (plural) लेकिन पदानुक्रमित (hierarchic) और ध्रुवीकृत (polarised) समाजों में लोकतंत्रीकरण की ऐतिहासिक चुनौती को उजागर करता है। यह समय-समय पर, कुछ हद तक, सामाजिक स्तर पर लोकप्रिय उदारवाद के उभार के बारे में है। उस तरह का उभार जिसने बराक ओबामा के लिए सबसे अधिक नस्लवादी श्वेत-वर्चस्ववादी समाज का मुखिया बनना संभव बना दिया था।
आज हम जो देख रहे हैं, वह पारंपरिक दलितवाद नहीं है, जो एपिसोडिक उच्च जाति की क्रूरता के खिलाफ खड़ा है। यह एक व्यापक सामाजिक-लोकतांत्रिक और राजनीतिक दावेदारी है। यह दिखाता है कि कैसे भगवा सरकारें डॉ.अम्बेडकर के लोकतांत्रिक मूल्यों तथा स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कानून के शासन पर संवैधानिक दिशानिर्देशों को कुचलकर उनके साथ अन्याय कर रही हैं।
दरअसल, वह आर्थिक रूप से उन्नत महाराष्ट्र ही था, जिसने पहली बार एल्गार परिषद प्रकरण पर एक शक्तिशाली नए दलित विद्रोह को देखा। भगवा संगठन को अभी भी इसके पीछे “अर्बन नक्सल” का भूत दिखाई देता है। अब शायद तुलनात्मक रूप से विकासशील कर्नाटक और तमिलनाडु की बारी है कि वे समान लोकप्रिय सामाजिक-लोकतांत्रिक प्रवृत्तियों का अनुभव करें। क्या यह अपेक्षाकृत अधिक रूढ़िवादी गुजरात या मध्य प्रदेश, या सांस्कृतिक रूप से अधिक पिछड़े यूपी और बिहार के भविष्य के विकास का आईना होगा? क्या यह अत्यधिक भगवा गाय-पट्टी (cow belt) क्षेत्रों में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को भी प्रेरित करेगा? क्या हम उत्तर प्रदेश और बिहार के अन्यथा जीवंत सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी देवनूर महादेवा और पा.रंजीत की एक नई नस्ल के उदय के साक्षी होंगे? इतिहास इंगित करता है कि यह केवल समय की बात है कि दक्षिण भारतीय स्वर से अच्छी खबर पश्चिम और उत्तर में भी गूंजेगी।
सौजन्य : Newsclick
नोट : यह समाचार मूलरूप से newsclick.in में प्रकाशित हुआ है. मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है !