एक तो दलित लड़की ऊपर से हिम्मती, आगे बढ़ने, लड़ने और जूझने को तैयार, समाज के गले कैसे उतरती?
‘मैं डॉ. पूनम तुषामड़ हूं। आप सब मुझे आज इसी रूप में जानते हैं, लेकिन पूनम तुषामड़ जिस जाति या समुदाय से संबंध रखती हैं उसे 21वीं सदी में भी नफरत और हिकारत से देखा जाता है। दलित समुदाय में भी वाल्मीकि कहे जाने वाली जिस जाति से मैं हूं, उस जाति के बच्चों का बचपन कितने कटु अनुभवों से भरा होता है, इसका अंदाजा कोई दलित समाज का व्यक्ति ही लगा सकता है।’
वुमन भास्कर से खास बातचीत के दौरान समाज की जाति से जुड़ी सड़ी-गली सोच पर प्रहार करती और बचपन में मिले बुरे अनुभवों को साझा करती दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डॉ. पूनम तुषामड़ कहती हैं कि मैं जब छोटी बच्ची थी, पढ़ने-लिखने में बहुत होशियार थी, लेकिन जाति की वजह से होने वाला भेदभाव हमेशा मेरे साथ चिपक कर चलता। मेरे सभी मित्र या सहपाठी जो दूसरी जाति के थे, मुझे पसंद भी करते थे, उन्होंने भी कभी मेरे साथ खाना नहीं खाया। स्कूल में किसी कॉम्पिटिशन में अगर कुछ बनाकर भी ले गई तो, वहां टीचर्स ने उसे चखा तक नहीं।
गिने-चुने लोग ही दोस्त बने
मैं खेलकूद, गीत कविता, कहानी से लेकर नृत्य तक की प्रतियोगिताओं में भाग लेती, पर तमाम प्रशंसा के बाद भी मुझे पुरस्कार को मुझसे दूर रखा जाता। मैं खुद को दूध से निकाली गई मक्खी की तरह तड़पता देखती। मैं कोशिश करती कि सभी मुझे भी उसी तरह सम्मान दें, उतने ही प्यार से देखें, पास बैठाएं और वैसा ही बर्ताव करें, जैसा वे दूसरों के साथ करते हैं, लेकिन ऐसा क्यों नही हुआ, यह मैं आज तक नहीं समझ सकी और शायद कोई मुझे समझा भी नहीं पाएगा, क्योंकि मैं जिस दर्द से गुजरी हूं, उस दर्द का अंदाजा कोई नहीं लगा सकता। यही वजह है कि गिने-चुने लोग ही मेरे दोस्त बने।
आंटी नमस्ते करने से मना करतीं
स्कूल जाते वक्त सड़क पर झाड़ू लगाने वाली आंटी को नमस्ते कहती तो वह सड़क के कोने पर ले जाकर मुझे समझातीं- ‘देख बेटी सबके सामने मुझसे नमस्ते मत कहा कर। तेरे दोस्त क्या कहेंगे?’ उस समय मेरा बाल मन आंटी की बात की गहराई नहीं समझता था। बस मन में अजीब सी कौंध रह गई कि आंटी मुझे नमस्ते करने से मना क्यों करती है? जब बड़ी हुई तो मुझे उनकी बात समझ आई और समाज के प्रति घृणा साथ-साथ अफसोस भी हुआ।
दिल्ली में घट रही थीं ये घटनाएं
ये सभी घटनाएं किसी सुदूर गांव की नहीं, बल्कि देश की राजधानी दिल्ली की हैं। दिल्ली का पुनर्वास एरिया ‘शकूरबस्ती’ में मेरा जन्म हुआ। घर में बड़े भाई के बाद हम चार बहनें। हमारे घर के सामने एक संभ्रांत वर्ग से आने वाली आंटी रहती थीं। वह नवरात्री में कन्याओं को पूजतीं, सभी को बुलातीं और मुझे हलवा-पूड़ी अपनी थाली में नहीं देतीं। मुझे अपनी थाली लेकर उनके यहां जाना होता। बचपने में मैंने भी तपाक से उनसे पूछ लिया आप और सबको तो प्लेट लाने को नहीं कहतीं, मुझे ही क्यों कहती हैं। मैं उसके बाद से कभी उनके घर नहीं गई। बाद में आंटी जोर-जोर से कहती रहीं- ‘लड़की का रुबाब तो देखो जाति छोटी नखरे बड़े।’
पिता ने होटल में साफ किए बर्तन
मां ने लड़ना चाहा, लेकिन पापा ने रोक लिया। घर में पापा हमारे आदर्श थे। उन्होंने कभी भाई-बहनों के बीच भेदभाव नहीं किया। हम यह जानते थे कि हमारे पिता बहुत प्रतिभावान हैं, कबड्डी, कुश्ती और फुटबॉल के प्लेयर हैं। उनकी मेहनत की कमाई उनकी ट्रॉफियां देख हम बच्चों की छाती भी गर्व से भर जाती।
पापा एक बड़े होटल में शेफ हैं। पापा की जिंदगी में हमें यही मालूम था, लेकिन उनकी उनकी मृत्यु के बाद मालूम हुआ कि वे उस बड़े से होटल में शेफ नहीं बल्कि जातीय भेदभाव के चलते व दसवीं तक पास होने के बावजूद होटल में बर्तनों की सफाई की नौकरी करते रहे, जिसे होटल की भाषा में हैंडीमैन (handyman) कहा जाता है। पिता कैसे हम पांच भाई-बहनों का पेट भरते, हमें नहीं मालूम। पर कभी हमें किसी चीज की कमी नहीं होने दी। उन्होंने तो यह भी नहीं बताया कि उनकी नौकरी बर्तन धोने की है, क्योंकि वो यह नहीं चाहते थे कि मेरे बच्चों में मेरे प्रति गर्व की जो भावना भरी है उसमें किसी तरह की कमी आए।
12वीं पास करते ही हो गई शादी
दिल्ली के सरकारी स्कूल से ही मैंने जब 12वीं पास की तो घर में शादी के लिए दबाव डाला जाने लगा। इसी बीच स्कूल में मेरी मुलाकात गुलाब (हसबैंड) से हुई। गुलाब ने शादी का प्रस्ताव रखा और मेरे घर वाले मान-मनौव्वल के बाद मान गए।
एक गरीब ,दलित और उस पर स्त्री के संघर्षों का अंत कभी नही होता शायद इसीलिए तमाम मुश्किलों के बाद भी हिम्मत नहीं हारी। पढ़ाई पूरी की। शादी और बच्चों की जिम्मेदारी भी संभाली।
पहली बच्ची जिंदा नहीं रही
19 साल की उम्र में शादी हुई और लगभग 20 साल की उम्र में एक बच्ची हुई, लेकिन मेरा ससुराल उन्हीं रूढ़ियों से बंधा था जिसे पूरा समाज मानता है। डिलीवरी घर में कराई गई, जिसका खामियाजा मैंने अपनी बेटी की जान गंवाकर भुगता। मेरी मासूम बच्ची सिर्फ चार दिन ही जिंदा रही और जब मेरी हालत खराब हो गई तब मुझे अस्पताल नसीब हुआ।
पहली प्रेग्नेंसी में ही बच्चे को खो देने का सदमा ऐसा लगा कि कई दिन तक उबर नहीं पाई। जब मैं 21 साल की हुई तो दूसरी बेटी हुई। तब लगा कि मेरी पहली बेटी वापस आ गई है। बेटी की परवरिश और गृहस्थी संभालते-संभालते अपने सपनों को कुछ समय के लिए पीछे धकेलती गई, लेकिन पढ़ाई की ललक के चलते पति के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय में बीए में दाखिला लिया।
जब प्रिंसिपल ने दी लिफ्ट
उसी दौरान पति की नौकरी करनाल में लग गई। मैंने बीएड का एंट्रेंस दिया और पास हो गई। करनाल के विमेन कॉलेज में ही मुझे एडमिशन मिल गया। मैं रोज कॉलेज से दो किलो. की दूरी पर एक क्रेच में बेटी को छोड़ने जाती और फिर वहां से भागी-भागी कॉलेज पहुंचती।
इस समय मैं चार महीने की प्रेग्नेंट भी थी। ऐसी हालत में रोज क्रेच से कॉलेज तक का सफर करते मेरी प्रिंसिपल देखतीं तो उन्होंने लिफ्ट के लिए भी पूछा, लेकिन मैंने ही मना कर दिया और कहा कि मुझे तो रोज ऐसे ही आना-जाना है। आप एक दिन मदद कर देंगी। मेरे इस विनम्र निवेदन को प्रिंसिपल मैम ने समझा और मुस्कुरा दीं।
जाति की वजह से नकारा गया अस्तित्व
जब दिल्ली आए तो यहां आकर जामिया से एमए किया और नेट की परीक्षा भी पास की। बाद में पीएचडी के लिए अप्लाय किया। इसी दौरान मुझे राष्ट्रीय सफाई आंदोलन से जुड़ने का मौका मिला, जहां मुझे मेरे हकों के बारे में और गहरी समझ बनी। मैंने दलित महिलाओं पर लिखना शुरू किया। धीरे-धीरे मैं उन स्मृतियों में भी खोती गई, जहां मेरी जाति की वजह से मेरे अस्तित्व को नकारा गया था।
पीएचडी करनी हो या कॉलेज में नौकरी पानी हो दोनों ही मुझे आसानी से नहीं मिले। यहां तक कि कई जगहों पर एससी कैटेगरी में नौकरी नहीं दी गई। अपने हक के लिए हमेशा लड़ना पड़ा। बोलती और जागरुक लड़कियां समाज को अच्छी नहीं लगतीं। ऐसे अवरोधकों ने मुझे बहुत रोकने की कोशिश की, लेकिन मैं भी रुकी नहीं।
मैला उठाने वालों पर पहली किताब
मेरी पहली किताब उन दलित महिलाओं पर आई, जिन्होंने मैला उठाने का दंश झेला था। जिनका सुहाग सीवर साफ करते हुए जहरीली गैसों की भेंट चढ़ गया। जिनके बच्चे जाति की वजह से स्कूल में नहीं जा पाए और मुश्किलों से गए भी तो स्कूल से निकाल दिए गए। स्कूल वालों को डर था कि यहां ‘सभ्य’ समाज के बच्चे आते हैं, तुम्हारे जैसे मैला उठाने वालों के आएंगे तो हमें दिक्कत हो जाएगी।
मेरा पहला कविता संग्रह “मां मुझे मत दो” हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा चयनित है, इससे मुझे विशेष पहचान मिली। इसके पश्चात लिखने पढ़ने के साथ-साथ समाज में जातीय आधार पर हो रहे अन्याय के खिलाफ बोलने और संघर्ष करने का आत्मविश्वास भी जागा और तीन पुस्तकें और प्रकाशित हुईं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सजग साहित्यिक लेखन करते हुए अनेक सम्मानित पुरस्कारों से भी नवाजा गया।
युनिवर्सिटी सिलेबस में शामिल हुआ लेखन
हाल ही में पता चला कि मेरे द्वारा लिखित प्रथम लघु नाटक “ये कैसी आजादी का मंचन हरियाणा के हल्कारा ए थिएटर ग्रुप की और से अलग-अलग स्थानों पर किया गया। मन को हर्षित करती एक उपलब्धि और पता चली कि मेरा लिखा साहित्य कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के सिलेबस में भी शामिल हो गया है।
पढ़ते जाना है, बढ़ते जाना है
मैं समाज की हर लड़की को बस यही कहना चाहूंगी कि जीवन में मुश्किलें हर कदम पर आती हैं और क्योंकि तुम लड़की हो इसलिए समाज तुम्हें कई स्तरों पर रोकेगा। ऊपर से तुम मुखर हो और दलित हो तो और रोकेगा-टोकेगा, लेकिन हमें हिम्मत नहीं हारनी है। आत्मविश्वास, हिम्मत और लगन से पढ़ते जाना है, आगे बढ़ते जाना है, मुश्किलों से लड़ते – जूझते जाना है और समाज में अपनी जगह बनानी है।
सौजन्य : Dainik bhaskar
नोट : यह समाचार मूलरूप से haskar.com में प्रकाशित हुआ है. मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है !