यूपी चुनाव में क्या मायावती से तमग़ा छीनकर खुद दलित नेता बन पाएंगे चंद्रशेखर आजाद?
लखनऊ. आज़ाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद के गोरखपुर सदर सीट से योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद से ही उनके इस फैसले ने सबका ध्यान खींचा है. गोरखपुर विधानसभा सीट भारतीय जनता पार्टी के लिए हमेशा से ही ‘सुपर-सेफ’ निर्वाचन क्षेत्र रहा है, जिसपर भाजपा का व्यापक दबदबा है. 1989 के बाद से बीजेपी (BJP) गोरखपुर सीट से सिर्फ एक बार ही हारी है. यह एकमात्र हार 2002 में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के हाथों हुई थी, लेकिन वह भी पूरी तरह से हार नहीं है. क्योंकि उस वक़्त योगी आदित्यनाथ सांसद थे और उनके समर्थन से ही अखिल भारतीय महासभा के उम्मीदवार डॉक्टर राधा मोहन दास अग्रवाल बीजेपी के उम्मीदवार शिव प्रताप शुक्ला के खिलाफ जीते थे.
गोरखनाथ की भूमि में दलित शक्ति
पिछले कुछ चुनावों में बहुजन समाज पार्टी का प्रदर्शन गोरखपुर सदर सीट पर दलित वोटों की एक साफ़ तस्वीर रखता है. गोरखपुर में अल्पसंख्यक मतदाताओं का बड़ा प्रभाव है. हालांकि बीजेपी का कोर वोटर ज़्यादातर वैश्य, राजपूत, कायस्थ और ब्राह्मण समुदाय से आता है लेकिन गोरखपुर में दलित वोटर्स का साथ भी भाजपा को खूब मिलता आया है. यहां पर चंद्रशेखर की नज़रें उसी दलित वोट बैंक पर है और अगर बसपा भी अपने उम्मीदवार को उस सीट से चुनावी मैदान में उतारती है तो दलित वोट भी यहां पर तीन हिस्सों में बंटने वाला है, जिसका कुल मिला कर फायदा किसी भी दल को नहीं है.
क्या बहनजी का विकल्प बनकर उभरेंगे चंद्रशेखर?
यूपी विधानसभा चुनाव में चंद्रशेखर आजाद के प्रयासों को दलित राजनीती में मायावती का विकल्प बनने के प्रयास के रूप में भी देखा जा रहा है. दलित युवाओं पर भी चंद्रशेखर की अच्छी पकड़ है और चूंकि वे हर मौके पर दलित समाज के उद्धार के लिए बात करते नज़र आते हैं तो दलितों में उनकी लोकप्रियता भी लगातार बढ़ रही है. गोरखपुर की इस सीट से अगर बसपा अपना प्रत्याशी चुनावी मैदान में उतारती है और उस प्रत्याशी के विरुद्ध अगर चंद्रशेखर अधिक वोट पाने में सफल हो जाते हैं तो यह मायावती द्वारा बरसों की बनाई हुई दलित नेता की छवि में भी गिरावट पैदा कर सकता है, जिसको बदलना अभी तक किसी भी नेता के लिए मुमकिन नहीं रहा है.
क्या होगा राजनीतिक लाभ?
जिस तरह से कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना करने के बाद दलित और मुसलमानों में अपनी पकड़ बनाने का कार्य किया. चंद्रशेखर आज़ाद के इस कदम को भी उन्हीं की तरह देखा जा रहा है और फिर चाहे वे चुनाव में हार भी जाएं पर इसका एक फायदा उनको ये मिलेगा की इस चुनाव के बाद दलितों में उनका चेहरा बड़े चेहरों में गिना जायेगा और भाजपा के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए दलित नेता के रूप में चंद्रशेखर आज़ाद का राजनीतिक कद भी बढ़ेगा और शायद आने वाले सालों में इसका फायदा उन्हें चुनावों में भी मिल सकता है.
सौजन्य : News 18
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