लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार: 58 दलितों की हत्या किसी ने नहीं की!
अगर ये भी बताने की ज़रूरत नहीं, वो भी बताने की ज़रूरत नहीं. तो फिर बताओगे क्या? बताएंगे एक फ़ैसले के बारे में. एंकर-एंकराएं जब इंद्रलोक से भगवान के रिटायर होने पर पुष्प वर्षा और रुदन विलाप साथ-साथ कर रहे थे. इस महान लोकतंत्र की एक बड़ी अदालत में इंसाफ़ चुपचाप दम तोड़ रहा था.
9 अक्टूबर 2013 को पटना हाई कोर्ट ने एक पुराने मामले में अपना फ़ैसला सुनाया. हालांकि किसी चीज़ के पुराने होने का मतलब उसका नष्ट हो जाना नहीं होता. पुरानी चीज़ अगर खुद को दोहराते रहे तो वो साथ-साथ नई भी होती जाती है. बहरहाल. पटना हाईकोर्ट ने जो फ़ैसला सुनाया, उसके मुताबिक़ 58 निहत्थे दलितों की हत्या हुई थी, और दोषी कोई नहीं था. शायद भगवान दोषी होता, लेकिन वो तो अगले दिन रिटायरमेंट की घोषणा करने जा रहा था.
किसी ने नहीं मारी गोली
साल 1997 की बात है. बिहार के अरवल ज़िले में सोन नदी के किनारे एक गांव पड़ता है. नाम है लक्ष्मणपुर बाथे. जो दलित और पिछड़ी जाति के लोगों की बसावट वाला गांव है. दिसम्बर की ठंड में रात के 11 बजे थे. पानी पर नाव थी और नाव पर मल्लाहे. साथ में ‘कोई नहीं’ था. कुछ देर बाद नाव किनारे लगी. मल्लाहे उतरे. और उनको गोली मार दी गई. किसने मारी? किसी ने नहीं.
कुछ देर बाद लक्ष्मणपुर बाथे का भी यही हाल था . काली अंधेरी रात में सोन नदी का पानी काला जान पड़ता था. लेकिन गांव की ज़मीन खून से लाल हो चुकी थी. 58 निर्दोष गांव वालों की लाश गांव में पसरी हुई थी. इनमें शामिल थे 16 बच्चे. 27 औरतें. जिनमें से कुछ पेट से थीं. सबसे कम उम्र का बच्चा 1 साल का था. स्त्रियों ने स्तन काट दिए गए थे. हैवानियत का वो आलम कि कलम से स्याही गिराकर लिखना चाहो तो वो भी लाल हो जाए.
इनकी हत्या किसी ने नहीं की थी. अपने आप हो गई थी. कम से कम इस देश का न्याय तो यही कहता है. हां. जिनके साथ न्याय नहीं हुआ, वो अपनी आपबीती बताते हैं. 1990 में मंडल कमीशन के बाद राजनीति में सामाजिक न्याय का मुद्दा ज़ोर पकड़ रहा था. वहीं ज़मीन पर नक्सल आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था. ज़मींदारी प्रथा के ख़ात्मे के बावजूद ज़मीनों पर पैतृक अधिकार समझा जाता था. पिछड़ी जाति के लोग अधिकतर खेतिहर मज़दूर थे. और उनके साथ आए दिन उत्पीड़न होता रहता था. (आज भी होता है). सामाजिक न्याय की लड़ाई के लिए ये लोग नक्सल समूहों या कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ते थे और उसके जवाब में रणवीर सेना जैसे मिलिटेंट समूह तैयार हो गए थे. तब पटना, जहानाबाद, अरवल, गया और भोजपुर को लाल इलाका कहा जाता था क्योंकि यहां भाकपा-माले का प्रभाव था.
बाड़ा नरसंहार
सरकारें सुस्त थीं और भूमिहार जमींदार कहते ज़मीन पर उनका पैतृक अधिकार है. बिहार में कोई उद्योग तो था नहीं कि भूमिहीन अपने बच्चों को वहां भेजते. जब दिल्ली सरकार एटम बम फोड़ने की तैयारी कर रही थी, उस वक्त बिहार में खेत और जमीन से ऊपर कोई सोच नहीं पा रहा था. चाह के भी. क्योंकि उससे बाहर कुछ दिखता ही नहीं था. लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार की हत्या की स्क्रिप्ट तब से पांच साल पहले ही लिखी जा चुकी थी. 12 फरवरी 1992 को, जब गया के बाड़ा गांव में माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के सदस्यों से 40 भूमिहारों का क़त्ल कर दिया था. मामले में आगे जाकर 9 लोगों को सजा हुई. जिनमें से 4 को पहले फांसी और बाद में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई.
इसके बाद आया 1997. लक्ष्मणपुर-बाथे में अगड़ी और पिछड़ी जातियों के बीच ज़मीन को लेकर विवाद हुआ तो 1992 का बदला लेने के प्लान बना. 100 के आसपास रणवीर सेना के सदस्य लक्ष्मणपुर-बाथे पहुंचे. और गांव पर हमला बोल दिया. कुछ आदमियों को मौक़ा मिला तो वो भाग निकले. औरतें बची रह गई. इस सोच में कि उन पर तरस ख़ाया जाएगा. लेकिन उन्हें भी बख्शा नहीं गया.
मारे गये लोगों में से किसी की शादी दस दिन पहले हुई थी. किसी का छह महीने का बच्चा था. कोई गांव आया था. कोई औरत ससुराल से भागकर अपने मायके आई थी. और फिर अपने पति के पास वापस गई ही नहीं. क्योंकि भतीजे-भतीजियों को देखने के लिए कोई बचा ही नहीं था. ना जाने कितने परिवार टूट गए थे. अगले दिन तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने इस घटना को राष्ट्रीय शर्म कहा था.
58 लोगों की हत्या किसी ने नहीं की
लोगों ने अगले दो दिनों तक अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार नहीं किया. खबरें देश विदेश तक पहुंची तो मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने गांव का दौरा किया. सरकार के आश्वासन पर 3 दिसंबर को अंतिम संस्कार हुआ. लाशें ट्रैक्टर में भरकर ले जाई गई थीं. सरकार ने वादा किया कि मुआवज़ा और नौकरियां दी जाएंगी. सालों बाद तक लोग एड़ियां रगड़ते रहे. लेकिन कुछ नहीं मिला. लोकतंत्र में निर्बल को सरकार का आसरा होता है. वहां से निराशा हाथ लगी तो कोर्ट से न्याय की आस बंधी. मामले में कुल 46 लोगों को आरोपी बनाया गया था. इनमें से 19 लोगों को निचली अदालत ने ही बरी कर दिया था जबकि एक व्यक्ति सरकारी गवाह बन गया था.
पटना की एक अदालत ने अप्रैल 2010 में 16 दोषियों को मौत की सजा सुनाई और 10 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई. ज़िला और सत्र न्यायधीश विजय प्रकाश मिश्रा ने कहा था कि ये घटना समाज के चरित्र पर धब्बा है. इसके बाद मामला हाईकोर्ट पहुंचा. और 9 अक्टूबर 2013 को सभी 26 अभियुक्तों को पटना की हाईकोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया. इस हत्याकांड और 1992 बाड़े हत्या कांड में अंतर नोट ज़रूर करिएगा. जब ऊंची जाति के लोगों का क़त्ल हुआ था. तब सज़ा भी मिली और लोग जेल भी गए. जबकि लक्ष्मणपुर-बाथे में 58 लोगों की हत्या का दोषी कोई नहीं था.
फ़ैसले के बाद नेताओं ने अपने घड़ियाली आंसू बहाए. अदालतों में अगड़ी जातियों का वर्चस्व है, ये बात हुई. प्रदर्शन हुए. लेकिन लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मुंह देखता रहा. अगले दिन यानी 10 अक्टूबर को सचिन ने रिटायरमेंट की घोषणा कर दी थी. न्यूज़ चैनल की डिबेट्स में यही छाया रहा. तत्कालीन बिहार सरकार ने नए सिरे से SIT गठित करने की बात की. वादा किया कि सरकार सुप्रीम कोर्ट जाएगी. लेकिन जो हुआ सो सबके सामने है. निष्कर्ष तो यही निकला कि 58 लोगों को काट पीट डाला गया. लेकिन हत्या किसी ने नहीं की. अपने आप हो गई.
इतना ही नहीं गांव वाले बताते हैं कि आज भी उच्च जाति के लोग उन्हें धमकी देते हैं. गांव वालों से कहा जाता है,
जब 58 की हत्या पर किसी का कुछ नहीं हुआ, तो अब एक-दो मर्डर करने पर कौन पूछेगा?’
एपिलॉग
शुरुआत में जो कविता हमने आपको सुनाई थी. उसके लेखक का नाम है प्रतिभा जयचंद्रन. तमिल भाषा में दलित विमर्श पर लिखने वाले कवि हैं. जातिगत हिंसा के मसले पर हमें पार्थसारथी मुथुक्करुप्पन का 2017 का एक रिसर्च पेपर मिला. जातिगत हिंसा के मामले में पार्थसारथी तर्क देते हैं, यूं तो संज्ञा के पीछे जब कोई विशेषण लगता है तो वो उसके बारे में कुछ बताता है. जैसे ‘बड़ा घर’ कहा जाए तो, घर के बड़ा होने की बात हो रही है. लेकिन जातिगत हिंसा में ‘जातिगत’ विशेषण जितना हिंसा के बारे में बताता है. उतना ही हिंसा जाति के बारे में भी बताती हैं.
ईपी थोंपसन एक ब्रिटिश इतिहासकार हैं. उनका एक कथन बहुत फ़ेमस है, ‘क्लास एक सम्बंध है, बजाय कि एक वस्तु के’. इस बात को अगर जाति के संदर्भ में लाया जाए, तो ये कहना भी उतना ही सही होगा कि जाति अपने आप में अलग इकाई ना होकर दो समूहों के बीच संबंधों के तौर पर उजागर होती है. और जब समूह जब अपने आप को जाति के आधार पर संगठित करते हैं, तो उनमें शक्ति के आधार पर ऊंच-नीच आनी तय है. चूंकि तब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से सम्बंध नहीं बनाता. बल्कि वो अपनी जाति को रेप्रेज़ेंट करते हुए दूसरे व्यक्ति की जाति से सम्बंध बना रहा होता है.
यूं तो व्यक्तिगत मसलों में भी सब सामान नहीं होते. वहां भी हिंसा की गुंजाइश रहती है. लेकिन दो लोगों के बीच में अगर कोई किसी का उत्पीड़न करता है तो न्याय का तंत्र इससे निपट सकता है. अगर यही दिक़्क़त समूहों के बीच में हो तो उत्पीड़न पूरे तंत्र का हिस्सा बन जाता है. तंत्र में शामिल लोग, जातिगत पहचान को तंत्र का हिस्सा होने की अपनी पहचान पर वरीयता देने लगते हैं. और उत्पीड़न सिस्टेमैटिक बन जाता है. जहां ये सम्भव हो जाता है कि व्यक्तिगत तौर पर आप चाहे किसी का उत्पीड़न ना करें. लेकिन सिस्टम में ऐसी गाँठें पड़ चुकी होती हैं, कि नीची माने जाने वाली जातियों को चाहकर भी न्याय नहीं मिल पाता.
इसीलिए डॉक्टर आम्बेडकर जो पहले मानते थे कि जातियों में आपसी विवाह और सम्बंध ना होना ही दिक़्क़त है. बाद में कहने लगे थे कि जाति की समस्या का एक ही हल है, और वो है जाति के सिस्टम को पूरी तरह से उखाड़ फेंकना.
सौजन्य :ललनटॉप
नोट : यह समाचार मूलरूप सेhttps://www.thelallantop.com/bherant/tarikh-1997-laxmanp में प्रकाशित हुआ है. मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है|