पंजाबः जर-जमीन से वंचित जाति
अक्तूबर की 15 तारीख को पूरे देश ने टेलीविजन चैनलों पर वह भयावह दृश्य देखा था जिसमें पंजाब के तरनतारन जिले के एक 35 वर्षीय दलित सिख कृषि मजदूर लखबीर सिंह को दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन स्थल के पास प्रताड़ित कर मार डाला गया. अगले दिन हरियाणा पुलिस ने चार निहंगों को गिरफ्तार किया था. गिरफ्तार निहंगों—सरबजीत, नारायण सिंह, भगवंत सिंह और गोविंद प्रीत—ने दावा किया कि उन्होंने लखबीर को ‘पवित्र ग्रंथ का अपमान’ करने पर ‘दंडित’ किया था.
जितना विचलित करने वाली यह घटना थी, उससे भी अधिक बेचैन करने वाली है इस मुद्दे पर पंजाब के राजनैतिक तंत्र की खामोशी. यह चुप्पी इस वजह से और भी ज्यादा चुभने वाली है कि पंजाब के नए मुख्यमंत्री भी दलित सिख हैं. पंजाब के पहले दलित सिख मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने इस मुद्दे पर एक सोची-समझी चुप्पी बनाए रखी. शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के प्रमुख सुखबीर बादल, जिन्हें ग्रामीण दलित मजहबी/वाल्मीकि सिख अपना मुख्य हितैषी मानते हैं, ने भी चुप्पी साधे रखी. चूंकि यह घटना पवित्र पुस्तक के अपमान से जुड़ी बताई जा रही थी, इसलिए पंजाब में कोई भी राजनेता सिख धार्मिक नेताओं और ऊंची जातियों के सिखों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहता था.
पंजाब में दलितों का हिंसक उत्पीड़न कोई नई कहानी नहीं है. उत्पीड़न को सही ठहराने के लिए धर्म से जुड़ी बहानेबाजी भी असामान्य नहीं हैं, लेकिन ये घटनाएं आम तौर पर मीडिया की निगाहों में नहीं आतीं. पिछली बार ऐसा समाचार अक्तूबर 2019 में राष्ट्रीय सुर्खियों में आया था, जब संगरूर जिले में जगमाले सिंह नाम के व्यक्ति को पेड़ से बांधकर मौत के घाट उतार दिया गया था. जगमाले ने एक जाट सिख से लड़ाई करने का ‘पाप’ किया था.
मजहबी दलित सिखों और ऊंची जाति के जाट सिखों में संघर्ष 2015 में गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटना के बाद अधिक होने लगा. सिख धार्मिक नेताओं का मानना है कि उस घटना के पीछे गुरमीत राम रहीम के डेरा सच्चा सौदा के अनुयायी थे. पंजाब में डेरे, और कुछ हद तक ईसाई चर्च, दलितों—ज्यादातर मजहबी—की शरणस्थली रहे हैं. उनमें से कई लोग डेरा सच्चा सौदा की ओर आकर्षित रहे हैं. डेरों ने दलितों को जमीन और अपने हक का दावा करने के लिए संगठित होने का आत्मविश्वास दिया है. यह बात ऊंची जाति के सिखों को अच्छी नहीं लगी क्योंकि इससे धर्म और जमीन पर उनके वर्चस्व को चुनौती मिलती है. पंजाब विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाली रविंदर कौर धालीवाल कहती हैं, ”धार्मिक संघर्ष जैसी घटनाएं अक्सर दलितों के खिलाफ संघर्ष में बदल जाती हैं. ज्यादातर मौकों पर दलित हारते हैं क्योंकि उनके पास संसाधनों और सियासी ताकत की कमी है.”
चुनौती का आगाज
साल 2009 से जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति (जेडपीएससी) नामक एक वामपंथी संगठन मालवा क्षेत्र में ग्राम-स्तरीय समितियों के जरिए दलित युवाओं को लामबंद कर रहा है. जेडपीएससी हर गांव में ‘आरक्षित’ साझा भूमि के लिए सभी दलितों की सामूहिक बोली और खेती को प्रोत्साहित करता है. इससे उनका जाट सिखों से सीधा टकराव होता है. पंजाब में 1961 से पंजाब विलेज कॉमन लैंड्स (रेगुलेशन) ऐक्ट लागू है, जो हर गांव की साझा कृषि भूमि का 33 फीसद दलितों के लिए आरक्षित करता है. इन जमीनों का वार्षिक पट्टा बोली से मिलता है. लेकिन धालीवाल बताती हैं कि जाट सिख किसान अपने किसी एवजी दलित उम्मीदवार को खड़ा करके जमीन पर कब्जा कर लेते हैं. वह कहती हैं, ”दलित यथास्थिति को चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं, और अंतत: मजहबी सिख खेतिहर मजदूर बन कर रह जाते हैं.”
2015 की कृषि जनगणना के मुताबिक, पंजाब की आबादी के 18 फीसद जाट सिखों के पास राज्य की 93 फीसद निजी भूमि का नियंत्रण है. वहीं दलितों (32 फीसद) के पास सिर्फ 3.5 फीसद जमीन है. इनमें भी मजहबी सिखों के पास 0.1 फीसद से भी कम जमीन है.
कृषि कानूनों के विरोध के बीच पूरे पंजाब में जाट सिख-बहुल पंचायतों ने मजहबी सिख मजदूरों की मजदूरी और स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए दंडात्मक प्रस्ताव लागू किए हैं. इनके अनुसार, खेतिहर मजदूरों को धान की बुवाई के लिए प्रति एकड़ 2,500-3,000 रुपए का भुगतान किया जाएगा. मजदूरों को काम के लिए गांव से बाहर जाने से भी रोक दिया गया है. वहीं, प्रवासी श्रमिक इसी काम के 4,500 रुपए या ज्यादा लेते हैं.
चन्नी के मुख्यमंत्री बनने से उम्मीदें बढ़ी हैं कि वे ग्रामीण दलितों के मुद्दों को हल करेंगे. इनमें भूमि सुधार लागू करना शामिल है. लेकिन, मुख्यमंत्री के रूप में चन्नी के पहले महीने में उन्हें प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रमुख नवजोत सिद्धू ने उलझाए रखा है.
अर्थहीन संख्याबल
लखबीर मजहबी सिख समुदाय का सदस्य था. 2011 की जनगणना के अनुसार, मजहबी सिख लगभग 35 फीसद बहुमत के साथ पंजाब के दलितों में सबसे बड़ा समुदाय हैं. लेकिन मजहबी न तो सियासी रूप से संगठित हैं और न ही राज्य में उनका प्रभावी नेतृत्व है. चन्नी दूसरे सबसे बड़े दलित समुदाय (30.4 फीसद) रामदासी सिख/रविदासी समूह से हैं. रामदासी सिख संपन्न हैं और उन्होंने शैक्षिक संस्थानों, नौकरियों और राजनैतिक संगठनों में आरक्षण के लाभों का सबसे बड़ा हिस्सा हासिल कर रखा है.
सामाजिक स्थिति के मामले में मजहबी सबसे नीचे हैं. सिख धर्म अपनाने से पहले वे मुख्य रूप से मैला ढोया करते थे. पंजाब में बहुत से निहंग भी मजहबी सिख समुदाय (लखबीर हत्याकांड के तीन आरोपियों सहित) से हैं. मजहबी सदियों से सिख धर्म के प्रति समर्पित रहे हैं और नौवें सिख गुरु तेग बहादुर के कटे हुए सिर को हासिल करने में उनकी वीरता के लिए अक्सर उन्हें याद किया जाता है. औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर का सिर दिल्ली में काटा था.
माझा और दोआबा क्षेत्रों में काम के अवसर प्रवासी मजदूरों के पास चले जाने के बाद मजहबियों को गांव छोडऩा पड़ा है. मजहबी अमूमन कस्बों और शहरों की ओर पलायन करते हैं, जहां वे सफाई कर्मचारी, लैब कर्मचारी या मजदूर के रूप में काम करते हैं. इनमें बहुत कम लोग सरकारी नौकरियां हासिल करते हैं. मजहबी सिखों के एक संगठन, गरीब कल्याण मोर्चा से जुड़े कैप्टन अमनदीप भट्टी कहते हैं, ”चुनौती समुदाय को संगठित करने की है…गरीबी और संसाधनों की कमी उन्हें रोकती रही है. यह अस्तित्व की लड़ाई है.”
सौजन्य: aaj tak
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