शिवपुरीः इमरजेंसी में एंबुलेंस के पहुंचने का रास्ता भी नहीं, पानी के लिए जाना पड़ता है दो किमी दूर
बैराड़। आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में ग्राम पंचायत स्तर पर आदिवासी कॉलोनियां बसाई गई हैं। प्रशासन ने कॉलोनियां तो बसा दीं, लेकिन यहां सुविधाएं देना भूल गए। यहां तक कि प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ भी इन्हें नहीं मिल पा रहा है। ग्राम धतूरा के पिपलोदा कटारे में भी आदिवासी जंगल की तरह रहने का मजबूर हैं, क्योंकि कोई सरकारी योजना इन तक नहीं पहुंचती। सड़कों की स्थिति ऐसी है कि इमरजेंसी की स्थिति में एंबुलेंस भी वहां नहीं पहुंच पाती है। आदिवासी बाहुल्य होने के बाद भी यहां आंगनवाड़ी नहीं है जिससे पोषण योजना का लाभ नहीं मिलता है। स्थिति यह है कि पूरी बस्ती में प्रधानमंत्री आवास योजना से सिर्फ एक ही आवास बना है। उस आवास के बारे में भी ग्रामीण ने बताया कि इसकी आगे वाली दीवार पर खुद सरपंच सचिव ने प्लास्टर करवा कर धनराशि निकाल ली। अंदर प्रधानमंत्री आवास की कुटीर में पानी गिरता रहता है।
यहां के आदिवासियों ने बताया कि हमारी सरपंच एवं सचिव नहीं सुनते और किसी काम की कहते हैं तो यह जवाब मिलता है कि जाओ जहां मर्जी हो शिकायत कर दो। मजबूरी यह है कि कम पढ़े लिखे यह आदिवासियों को ठीक से यह भी नहीं पता कि मदद के लिए किस दरवाजे को खटखटाया जाए, क्योंकि तहसील पर भी उन्हें निराशा ही मिलती है।
आंगनबाड़ी पर लटका ताला, नहीं मिलता पोषण आहार
महिलाओं ने बताया कि यहां की आंगनबाड़ी सदैव बंद रहती है। हमारे बच्चों के लिए आज तक किसी भी प्रकार का मध्यान भोजन तथा पोषण आहार के लिए दलिया की थैली नहीं मिली है। हमने तो सिर्फ सुना है कि हर मंगलवार को दलिया बांटा जाता है, लेकिन मिला आज तक नहीं है। कई बार आंगनबाड़ी जाते हैं, लेकिन हमेशा वहां ताला ही लटका हुआ मिलता है। गांव की महिलाओं ने बताया कि यहां कृष्णा शर्मा जो आंगनबाड़ी में कार्य करता है, उनके द्वारा हमें आज तक किसी भी प्रकार की बच्चों के लिए भोजन सामग्री और दलिया की थैली नहीं दी गई है।
अब कह रहे करा देंगे व्यवस्था
आदिवासी कॉलोनी बदहाली के बारे में जब नईदुनिया ने जिम्मेदारों से सवाल किए तो उन्होंने रास्ता बनवाने की बात कही। साथ ही यह भी माना कि वहां पांच फीट की जगह ही छूटी है जिससे रास्ता नहीं बन पा रहा है। अब निर्मल नीर योजना के बारे में भी पता करवाने की बात कही। यहां सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर अब तक जिम्मेदार किस तंद्रा में थे जो उन्हें आदिवासियों की परेशानी दिखाई ही नहीं दी। अपने कथनों में वे खुद इस बात को स्वीकार कर गए कि वहां सुविधाएं नहीं हैं। ऐसी लापरवाही ही शासन की तमाम योजनाओं को सिर्फ कागजी बनाकर रख देती है। जिले के अधिकारियों पर इतनी फुर्सत भी नहीं होती कि ग्रामीणों की समस्या देख या सुन सकें।
यह बोले रहवासी
बारिश में पानी भर जाता है और हमें डिलीवरी वाली महिलाओं को कंधे पर लादकर 5 किलोमीटर दूर भौराना तक ले जाना पड़ता है। तब हमें एंबुलेंस की सुविधा मिल पाती है।
कलिया आदिवासी, ग्रामीण
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यहां पानी हम पहाड़ी के पास से 2 किलोमीटर से लाते हैं। ना ही हमारे लिए पानी की सुविधा और ना ही प्रधानमंत्री आवास बने हैं। बोरिंग मे पानी के लिए सरपंच सचिव ने मोटर डाली और फिर वही निकाल ले गए।
कृष्णा आदिवासी
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हमारे कई बार कहने पर हमें प्रधानमंत्री आवास योजना की कुटीर नहीं दी गई। हमने कई बार अपने राशन को लेने के लिए राशन कार्ड की बोल दिया है, लेकिन हमें राशन कार्ड भी नहीं दे दिए जा रहे हैं। हमसे बोला जाता है कि शिकायत करनी है वहां जाकर शिकायत कर दो।
राकेश आदिवासी।
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यह बोले जिम्मेदार
प्रधानमंत्री आवास 2011 में जो सर्वे हुआ उसके आधार पर दे दिए गए हैं और जो रह गए हैं उन्हें आगे दिए जाएंगे। रास्ते के बारे में पंचायत से पूछ कर दिखवा देते हैं। यदि इसकी दूरी ज्यादा होगी तो इसका निर्माण पीडब्ल्यूडी द्वारा करवाया जाएगा क्योंकि ग्राम पंचायत केवल 15 लाख रुपये तक के कार्य करती है। यहां तक पानी की समस्या है तो मैं अभी पंचायत में फोन कर वहां पर मोटर की व्यवस्था करा रहा हूं। यदि निर्मल नीर योजना वहां पर नहीं है तो वह स्वीकृत करा दी जाएगी।
– शैलेंद्र आदिवासी, जनपद सीईओ।
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2010-11 की सूची में चार प्रधानमंत्री आवास आए थे। जो रह गए हैं उनका नाम जोड़ दिया गया है। उनके नाम दीपावली के बाद वाली लिस्ट में आ जाएंगे। पानी की व्यवस्था एक-दो दिन में करवा देते हैं। सड़क के लिए 15 फीट का रास्ता चाहिए, लेकिन ग्राम वासियों ने केवल चार पांच फीट का रास्ता छोड़ा है। वह शासकीय है या नहीं यह मेरी जानकारी में नहीं है। आवेदन लगाकर उसकी जानकारी लगा लेते हैं।
– प्रेमनारायण शर्मा, सचिव।
साभार : नई दुनिया
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