हाथ से मैला ढोने की प्रथा का ख़ात्मा: मुआवज़े से आगे जाने की ज़रूरत
सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विल्सन के मुताबिक़, देश भर में हाथ से मैला ढोने के चलते 2016 से 2020 के बीच कुल मिलाकर 472 और सिर्फ़ साल 2021 में 26 मौतें हुई हैं।
सक्षम मलिक
सक्षम मलिक अपने इस आलेख में लिखते हैं कि हाथ से मैला ढोने की प्रथा को ख़त्म करने को लेकर नीति निर्माताओं को इस अमानवीय व्यवहार से अपनी जान गंवाने वाले लोगों को मुआवज़ा दिये जाने से आगे भी देखना चाहिए, और उन दीर्घकालिक, समग्र समाधानों पर भी विचार करना चाहिए, जो कि जातिगत और लिंगगत ग़ैर-बराबरी, डिजिटल भेदभाव को बढ़ावा देते हैं और मैला ढोने के काम को हाथ से अंजाम देने वालों के बीच वित्तीय पहुंच की राह में आड़े आते हैं।
इस साल की शुरुआत में केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने राज्यसभा को बताया था कि पिछले पांच सालों में हाथ से मैला ढोने से किसी की मौत होने की कोई ख़बर नहीं है। यह बयान जवाबदेही से बचने का एक दोहरा प्रयास दिखायी देता है और इस बयान से मुद्दे को लेकर सरकार का नज़रिया भी सामने आ जाता है।
भारत सरकार के इस बयान के बावजूद हाथ से मैला ढोने की प्रथा और उसके नतीजे आज भी बदस्तूर जारी हैं। सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विल्सन के मुताबिक़, देश भर में हाथ से मैला ढोने के चलते 2016 से 2020 के बीच कुल मिलाकर 472 और सिर्फ़ साल 2021 में 26 मौतें हुई हैं।
सफ़ाई कर्मचारियों के हित के लिए काम करने वाली वैधानिक संस्था राष्ट्रीय सफ़ाई कर्मचारी आयोग (NCSK) ने ख़ुलासा किया था कि अकेले 2017 और 2018 के बीच मैला ढोने से 123 लोगों की जानें चली गयी थीं।
सीमित सरकारी प्रयास
20वीं शताब्दी के बाद के दिनों से ही सत्ता में आने वाली प्रत्येक पार्टियां हाथ से मैला ढोने को लेकर अपनी समझ को एक व्यापक फलक दे पाने में नाकाम रही हैं। ज़ाहिर है, इस सिलसिले में सरकारी प्रयासों की ख़ासियत रही है- i) सुस्त और अक्षम वितरण तंत्र से ग्रस्त मुआवज़े की क़वायद; ii) तकनीकी हस्तक्षेपों पर ज़ोर, जिन्हें शायद ही कभी ज़मीन पर लागू किया जाता हो और iii) हाथ से मैला उठाने को बतौर रोज़गार पर रोक और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 (अधिनियम) को सही मायने में लागू करने में नाकामी।
न्यायपालिका ने समय-समय पर यह सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि राज्य सरकारें अपने फ़र्ज़ का निर्वाह करें और पीड़ित परिजनों को समय पर पर्याप्त मुआवज़ा दें। सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में 2014 के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को ध्यान में रखते हुए दिल्ली, मद्रास, ओडिशा और केरल के हाई कोर्ट ने हाथ से मैला ढोने के चलते अपनी जान गंवाने वालों के परिजनों को मुआवज़ा दिलवाया है। ख़ास तौर पर सितंबर 2021 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को हाथ से मैला ढोने वालों की विधवाओं को 10 लाख रुपये का भुगतान करने का आदेश दिया था, भले ही मृतक एक निजी कंपनी में कार्यरत था।
व्यावहारिक बाधाओं की व्यापक समझ की कमी के चलते हाथ से मैला ढोने वालों की दुर्दशा में बदलाव होने की संभावना नहीं दिखती है। सालों से नीतिगत हस्तक्षेपों का केंद्रबिंदु मुआवज़े और तकनीकी नवाचार तक सीमित रहा है, नतीजतन, हाथ से मैला उठाने की इस प्रथा को ख़त्म करने की प्रगति धीमी रही है। हमें ऐसे व्यापक समाधानों की कहीं ज़्यादा ज़रूरत है, जो जातिगत और लिंगगत ग़ैर-बराबरी, डिजिटल असमानता और उचित विमर्श से वित्त तक पहुंच प्रदान कर सके।
जातिगत और लिंगगत वास्तविकता को चिह्नित करना और उन्हें सामने लाना
रिपोर्टों में लंबे समय से बताया जाता रहा है कि हाथ से मैला ढोने में शामिल लोगों में से 99% दलित हैं और उनमें से 95% महिलायें हैं। इससे जुड़ा जो अधिनियम है, उसका मानना है कि हाथ से मैला उठाने की प्रथा जाति व्यवस्था से पैदा होती है। हालांकि, जाति के विचारों को शामिल करने का एकमात्र तरीक़ा कुछ समितियों में अनुसूचित जातियों (SC) के प्रतिनिधियों की सदस्यता को आरक्षित करना है। न तो मौजूदा अधिनियम, और न ही प्रस्तावित 2020 संशोधन विधेयक ने भारत के दलितों के साथ हुए इस ऐतिहासिक नाइंसाफ़ी को दुरुस्त करने की कोशिश की है।
हाल फिलहाल और इस समय जिस तरह की घटनायें घट रही हैं, उनसे तो यही पता चलता है कि हालात बदलने वाले नहीं हैं। इस बात की संभावना नहीं दिखती कि मौजूदा सरकार इन जातिगत ग़ैर-बराबरियों की नीतियों में जीवंतता लाने के लिहाज़ से एक प्रासंगिक मानदंड के रूप में स्वीकार कर पाये। इस साल की शुरुआत में केंद्र सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना कराने से इंकार कर दिया था और विसंगतियों के आधार पर 2011 की जाति आधारित जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने से भी इनकार कर दिया था। इस तरह के कार्यों के लिए 2020 संशोधन विधेयक तैयार करते समय दलित अधिकार समूहों से परामर्श नहीं करने के चलते सरकार की किरकिरी भी हुई थी। हाथ से मैला ढोने की किसी भी नीति को लेकर जातिगत ग़ैर-बराबरी के कारकों को प्रभावी अहमियत देना एक पूर्व-शर्त है, मगर इसे कर पाने में सभी सरकारें नाकाम रही हैं।
इसके अलावा, हाथ से मैला ढोने वालों में महिलाओं के उच्च प्रतिशत होने के बावजूद उनकी चिंताओं को नीतिगत चर्चाओं और आम बहसों में बहुत कम अहमियत मिल पाती है। इस पेशे में लगी महिलाओं की दुर्दशा पर ध्यान केंद्रित करने से लैंगिक ग़ैर-बराबरी पर केंद्रित समाधान निकलने की संभावना है।
वित्तीय या डिजिटल समावेशन पर कोई ध्यान नहीं
हालांकि, अधिनियम और इससे जुड़ी योजनायें पुनर्वास उपायों के हिस्से के रूप में छात्रवृत्ति, वित्तीय सहायता और ऋण प्रदान करती हैं, लेकिन इन तक उनकी पहुंच शायद ही हो पाती है। मिसाल के तौर पर हाथ से मैला ढोने वाले कई लोगों की पात्रता होते हुए भी सीमित वित्तीय समावेशिता के चलते बैंकिंग प्रणाली और वित्तीय उत्पादों तक उनकी पहुंच नहीं हो पाती, और उसका फ़ायदा भी उन्हें नहीं मिल पाता है। जैसा कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी मानता है कि इस बात को सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि हाथ से मैला ढोने वालों के लिए ज़्यादा सुविधाजनक हो, इसके लिए बैंक को अपनी प्रक्रियाओं को सरल बनाना चाहिए।
समाज के हाशिये पर खड़े इन लोगों के सामाजिक-आर्थिक हितों की हिफ़ाज़त के लिए उन्हें वित्तीय पारिस्थितिकी तंत्र के भीतर लाने की सख़्त ज़रूरत है। जो लोग हाथ से मैला ढोने से बचते हैं, उन्हें इस प्रथा में फिर से वापस नहीं आना पड़े, इसके लिए वित्तीय लाभों तक उनकी आसान पहुंच को सुनिश्चित करने में अभी एक लंबा रास्ता तय करना होगा।
व्यावहारिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखते हुए डिजिटल समावेशन कार्यक्रम को भी लागू करने की ज़रूरत है। ऐसे सार्थक और समकालीन सामाजिक-आर्थिक विकास, जो हाथ से मैला ढोने के बाहर की दुनिया में एक स्थायी जीवन जीने में सक्षम बनाता है, उसकी पहुंच डिजिटल प्रौद्योगिकियों तक हो, इसकी ज़रूरत है। रिपोर्टों के मुताबिक़, दलित और महिलाओ की संख्या देश में हाथ से मैला ढोने वालों में सबसे ज़्यादा हैं, लेकिन दुर्भाग्य से डिजिटल भेदभाव की सबसे ज़्यादा शिकार ये ही लोग हैं।
राज्य सरकारों ने इस बात को स्वीकार तो किया है और इससे निपटने की कोशिश भी की है। मसलन, पिछले साल उत्तर प्रदेश सरकार ने एक योजना शुरू की थी, जिसमें हाथ से मैला ढोने वाले 100 लोगों सहित 500 दलित युवा राष्ट्रीयकृत बैंकों के ‘बैंकिंग संवाददाता’ के रूप में अपना पंजीकरण करा सकते हैं। 15,000 रुपये की सुरक्षा राशि जमा करने के बाद ये संवाददाता दलित समुदाय और बैंकों के बीच एक इंटरफेस के रूप में काम कर सकते हैं और इस समुदाय को ऑनलाइन लेनदेन और कल्याणकारी योजनाओं तक पहुंच बनाने में मदद कर सकते हैं। उन्हें कंप्यूटर, प्रिंटर और फ़िंगर-प्रिंटिंग मशीन ख़रीदने के लिए ब्याज़ मुक्त ऋण दिये जाने का भी प्रस्ताव दिया गया था।
लेकिन इस योजना के लागू किये जाने की स्थिति को लेकर सार्वजनिक रूप से कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। यह देखा जाना अभी बाक़ी है कि एक ऐसी योजना, जो दलित बहुल क्षेत्रों में डिजिटल बुनियादी ढांचे के निर्माण और इस समुदाय में डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित नहीं है, उसका प्रदर्शन राज्य में किस तरह का रहा है।
मगर ऐसा नहीं है कि जाति और लैंगिक असमानता, वित्त तक सीमित पहुंच और डिजिटल ग़ैर-बराबरी ही देश में मैला ढोने वालों की दुर्दशा के एकमात्र निर्धारक हों। हालांकि, ऐसे कुछ कारक ज़रूर हैं, जो नीति निर्माण प्रक्रिया और हाथ से मैला ढोने के लिहाज़ से राष्ट्रीय विमर्श के दरारों में ग़ायब हो चुके हैं।
इसलिए, सिविल सोसाइटी, वित्तीय क्षेत्र और मौजूदा डिजिटल परिवेश में प्रभावित होने वाले लोगों के साथ सरकार का बढ़ता विचार-विमर्श इस मुद्दे को समग्र रूप से हल किये जाने के लिहाज़ से अनिवार्य है। इसके अलावा, शैक्षणिक, क़ानूनी और व्यावसायिक बिरादरी का ध्यान हाथ से मैला उठाने वालों की वास्तविकताओं को प्रभावित करने के लिहाज़ से जाति और लिंगगत पहचान, डिजिटल प्रौद्योगिकियों के साथ-साथ बैंकिंग प्रणाली की क्षमता पर केंद्रित करने की ज़रूरत है।
(सक्षम मलिक दिल्ली स्थित एक वकील और सलाहकार हैं, जो प्रतिस्पर्धा क़ानून, प्रौद्योगिकी क़ानूनों और मानवाधिकार क़ानूनों के क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)
सौजन्य : न्यूज़ क्लिक
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