महाराष्ट्र: सेप्टिक टैंक में जान गंवाने वाले तीन श्रमिकों की पत्नियों ने जीती मुआवज़े की लड़ाई
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दिसंबर 2019 में मुंबई के तीन श्रमिकों की सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान मौत के बाद उनकी पत्नियों ने अदालत से मुआवज़े और पुनर्वास की मांग की थी. बीते 17 सितंबर को बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को चार हफ्ते के भीतर ऐसा करने के निर्देश दिए हैं. यह निर्णय इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि राज्य में संभवतः यह पहली बार है जब निजी ठेके पर काम काम करते समय हुई मृत्यु के मुआवज़े के मामले में सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया गया है|
मुंबई: गोविंद संगाराम चोरोटिया, संतोष कालसेकर और विश्वजीत देबनाथ. ये नाम भी देश में सेप्टिक टैंक साफ करते हुए मारे जाने वाले अनगिनत लोगों की तरह गायब हो गए होते, अगर उनकी पत्नियों ने कानूनी लड़ाई लड़ने का फैसला नहीं किया होता.
इन तीन श्रमिकों की पत्नियों- विमला चोरोटिया, नीता कालसेकर और बानी देबनाथ- दिसंबर, 2019 में अपने पतियों की मृत्यु के ठीक बाद प्रोहिबिशन ऑफ एंपलॉयमेंट ऑफ मैन्युअल स्कैवेंजर्स एक्ट (पेमसा), 2013 के तहत गारंटी किए गए मुआवजे और पुनर्वास की मांग करते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया था.
इस मामले को ‘आंखें खोल देने वाला’ करार देते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट ने 17 सितंबर को महाराष्ट्र सरकार को चार हफ्ते के भीतर पीड़ित परिवारों को मुआवजा देने और साथ ही साथ इन परिवारों के लिए विस्तृत पुनर्वास योजना जमा करने के लिए कहा.
यह संभवतः महाराष्ट्र का पहला मामला है, जिसमें कोर्ट ने सेप्टिक टैंक सफाईकर्मियों को मुआवजा देने के मामले में सरकार को जिम्मेदार ठहराया है, भले ही उनकी मौत प्राइवेट कॉन्ट्रैक्ट के तहत काम करते हुई थी.
मुआवजे के साथ-साथ कोर्ट ने सफाई कर्मचारी आंदोलन बनाम केंद्र सरकार वाले वाद ऐतिहासिक फैसले के हवाले से राज्य सरकार को स्थानीय प्राधिकारियों को कानूनी प्रावधानों का पालन कराने की शक्ति और जिम्मेदारी देने के लिए कहा.
प्रतिबंधित हो जाने के बावजूद देशभर में हाथ से मैला ढोने की प्रथा अभी भी बदस्तूर जारी है. ज्यादातर नगर निगम अधिकारी कानूनी जवाबदेही से बचने के लिए शातिर तरीके से यह काम उप-ठेकेदारों से करवाते हैं- जैसा कि इस मामले में हुआ, जिसमें तीन व्यक्ति सेप्टिक टैंक के भीतर मृत पाए गए. गोविंद को सिर में चोट लगी थी और दो टैंक के भीतर जहरीली गैस से दम घुटकर मरे थे.
इस मामले की मुख्य याचिकाकर्ता विमला चोरोटिया बताती हैं कि कानूनी लड़ाई किसी भी तरह से आसान नहीं थी. वे कहती हैं, ‘लेकिन इस लड़ाई को मेरे तीन बच्चों के भविष्य के लिए लड़ा जाना जरूरी था, जिनके सिर से अचानक पिता का साया उठ गया था.
नीता और बानी के साथ विमला सेप्टिक टैंक साफ कराने के गैर कानूनी और खतरनाक काम में मृतकों को लगाने के लिए सेंट्रल मुंबई के चेंबूर स्थित हाउसिंग सोसाइटी के ट्रेजरर के खिलाफ आपराधिक मुकदमा भी लड़ रही हैं. आरोपी पवन पर सिर्फ आईपीसी की धारा 304(ए) के तहत लापरवाही के कारण किसी की मौत का कारण बनने का आरोप लगाया गया और उसे तुरंत जमानत पर छोड़ दिया गया.
ये औरतें अपनी वकील ईशा सिंह के माध्यम से अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम (एससीएसटी एक्ट) और पेमसा कानून के तहत इस मामले में उपयुक्त धाराएं लगाने के लिए संघर्ष कर रही हैं. चोरोटिया और कालसेकर अनुसूचित जाति में आते हैं. देबनाथ अन्य पिछड़ी जाति समुदाय से हैं और मूल रूप से उत्तरी बंगाल के एक छोटे से गांव से हैं.
जातीय स्थिति
राजस्थान के नागौर जिले की एक अशिक्षित महिला विमला की शादी गोविंद से तब हुई जब वे मुश्किल से 16 साल की थीं. दोनों मुंबई के चेंबूर इलाके में रहते थे और अपने तीन बच्चों के भरण-पोषण के लिए छोटे-मोटे काम किया करते थे.
विमला कहती हैं, ‘मेरे पति एक नाका कामगार थे, जो निर्माण स्थलों और इमारतों में काम करते थे. उन्होंने कभी भी सफाई का काम हीं किया. मुझे आज तक यह बात समझ में नहीं आयी कि आखिर किन कारणों से उन्होंने सेप्टिक टैंक को साफ करने का काम करना स्वीकार किया.’
विमला को इस बात को लेकर को शक नहीं है कि उनकी जाति के कारण ठेकेदार के लिए उनके पति को ‘गटर’ में उतरने के लिए मजबूर करना आसान रहा होगा.
राजस्थान में अनुसूचित जाति के तौर पर वर्गीकृत मोची समुदाय में जन्मी विमला का कहना है कि उनके परिवार में किसी ने भी कभी हाथ से मैला ढोने का काम नहीं किया है. नीता और बानी का भी यही कहना है.
नीता के पति संतोष और बानी के पति विश्वजीत ने भी इस घटना से पहले हमेशा मजदूरी का ही काम किया था. बानी कहती हैं, ‘मेरे पति एक कुशल प्लंबर थे. लेकिन जिस दिन उन्हें कोई काम नहीं मिलता था, वे कुली का काम किया करते थे. टॉयलेट और गटर साफ करने का सवाल नहीं उठता था.’
यह तथ्य कि इन तीनों में से किसी ने इससे पहले कभी सेप्टिक टैंक को साफ नहीं किया था, काफी अहम है.
वकील ईशा सिंह कहती हैं, ‘उनके पास आवश्यक उपकरण नहीं थे और उनकी सुरक्षा का ख्याल किए बगैर उन्हें ऐसे खतरनाक काम के लिए भेज दिया गया.’वे आगे कहती हैं इन औरतों के साथ कई स्तरों पर गलत हुआ है.
‘पहली बात, इनके पतियों को ऐसे काम के लिए किसी निजी ठेकेदार ने अनुबंधित किया, जो उन्होंने पहले कभी नहीं किया था. उनकी मृत्यु के बाद पुलिस ने अपराधियों को एक रस्मी एफआईआर करके जाने दिया. राज्य सरकार ने भी इन महिलाओं को उनके हाल पर छोड़कर अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ लिया.’
जब मुआवजे की मांग करते हुए रिट याचिका दायर की गई, तब सरकार ने खुद को इससे अलग करने की पूरी कोशिश की. सरकार के वकील पीएच कंथारिया ने इस घटना से कुछ ही दिन पहले महाराष्ट्र राज्य द्वारा परित उस सरकारी प्रस्ताव की ओर ध्यान दिलाया, जिसमें यह कहा गया था कि निजी ठेकेदारों के लिए काम करते हुए हुई ऐसी मौतों के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है.
12 दिसंबर, 2019 को सामाजिक विभाग द्वारा पारित प्रस्ताव में कहा गया है सरकार सिर्फ निजी ठेकेदारों से मुआवजा दिलाने की प्रक्रिया में मददगार की भूमिका निभाएगी.
सिंह ने कोर्ट में यह दलील दी थी, ‘सरकार का यह प्रस्ताव साफ तौर पर 2014 में सफाई कर्मचारी आंदोलन मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है, जिसमें ऐसी घटनाओं की जिम्मेदारी सरकार पर डाली गई है. ऐसी घृणित प्रथा को समाप्त करना सरकार की जिम्मेदारी है अगर वह ऐसा करने में नाकाम रहती है, तो मृतकों के परिवारों की देखभाल की जिम्मेदारी उनकी ही बनती है.
बड़ी लड़ाइयां
अपने पतियों को गंवाने वाली तीनों महिलाओं का कहना है कि मुआवजे के तौर पर मिले पैसे से उनके बच्चों की पढ़ाई जारी रह सकेगी. इस घटना के कुछ महीनों के बाद कोरोना महामारी फैल गई और इन महिलाओं को जीवित रहने के लिए खैरात पर निर्भर रहना पड़ा. समय के साथ उन्होंने खुद को संभाला. अब विमला अपने एक संबंधी के साथ मिलकर इमिटेशन ज्वेलरी बनाती हैं. नीता और बानी घरेलू सहायिकाओं के तौर पर काम करती हैं.
28 वर्षीय बानी, तीनों में सबसे युवा हैं. पति की मृत्यु से सिर्फ 20 दिन पहले बानी ने अपने दूसरे बच्चे को जन्म दिया था. बानी कहती हैं, ‘उस समय से अब तक मैं किराया न दे पाने के कारण तीन घर बदल चुकी हूं. अब मैं अपने पति के दोस्त के परिवार के साथ रह रही हूं, जिन्होंने उदारता दिखाते हुए हमें अपने साथ रखा है. इस पैसे से कम से कम हमारे सिर पर एक छत तो हो जाएगी.’
इस मामले की वकील ईशा सिंह कहती हैं कि यह बस एक बड़ी लड़ाई की शुरुआत है. सिंह कहती हैं, ‘सरकार को हाथ से मैला ढोने की प्रथा को रोकने के साथ-साथ परिवारों के पुनर्वास की भी जिम्मेदारी लेनी होगी.’
सिंह ने बॉम्बे हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर कर रखी है. अपनी याचिका पर बहस करते हुए, उन्हेंने सेप्टिक टैंक और सीवर को साफ करते हुए हुई मौतों की संख्या के संबंध में सूचना भी मांगी है. जवाब में मुंबई नगर निगम ने सफेद झूठ कह दिया कि ‘2014 से किसी की मौत नहीं हुई है.’
केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्री ने भी हाल ही में ऐसे ही दावे किए थे. राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में सामाजिक न्याय मंत्री रामदास अठावले ने दावा किया कि देश में 66,692 लोग हाथ से मैला ढोनेवालों के तौर पर चिह्नित किए गए हैं, लेकिन हाथ से मैला ढोने के कारण किसी भी मृत्यु की जानकारी नहीं है.
अपनी याचिका में सिंह ने 2014 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू कराने की मांग की है. सिंह बताती हैं, ‘सर्वोच्च न्यायालय ने उठाए जाने वाले कदमों की एक काफी विस्तृत सूची दी है. इसमें निगरानी समितियों के गठन से लेकर पुनर्वास की विस्तृत योजना तक शामिल है. लेकिन इसके लिए सबसे पहले राज्यों को समस्या के होने को स्वीकार करना होगा. सिर्फ तभी इस दिशा में कुछ हासिल किया जा सकता है|
सौजन्य: द वायर
नोट : यह समाचार मूलरूप से http://thewirehindi.com/188469/maharashtra-manual-scavenging-bombay-high-court-govt/ में प्रकाशित हुआ है. मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है|