दुनिया को हिलाने वाले शैलेन्द्र
सवाल यह है कि कोई महान शख्सियत अगर दलित हो तो उसकी जाति के उजागर होने में क्या दिक्कत है? जब ब्राह्मण या अन्य सवर्ण विभूतियों की जातियों का खुलेआम प्रचार किया जाता है तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती। लेकिन किसी दलित विभूति की जाति को उजागर किये जाने का विरोध होने लगता है.
लेखक: विनोद विप्लव
कुछ समय पहले हिंदी फिल्म जगत के प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र की जाति सार्वजनिक किये जाने को लेकर अच्छा खासा विवाद और विरोध हुआ। शैलेन्द्र के पुत्र दिनेश शंकर शैलेन्द्र ने ”अंदर की आग” नाम से अपने पिता की कविताओं का एक संग्रह तैयार किया था, जो राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका में दिनेश शैलेन्द्र ने खुले तौर पर अपने पिता की सामाजिक पृष्ठभूमि (बिहार की धुसिया चर्मकार जाति) का उल्लेख किया था। इस पुस्तक का लोकार्पण करते हुए शीर्ष आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने शैलेन्द्र को संत रविदास के बाद सबसे महत्वपूर्ण दलित कवि बताया। लेकिन कई साहित्यकारों एवं लेखकों ने शैलेन्द्र की जाति का खुलासा किये जाने पर आपत्ति जतायी। एक लेखक तेजिन्दर शर्मा ने सोशल मीडिया में अपनी आपत्ति दर्ज करते हुए यहां तक कह दिया कि डॉ. नामवर सिंह ने न केवल शैलेन्द्र का बल्कि सभी साहित्यप्रेमियों का भी अपमान किया है।
सवाल यह है कि कोई महान शख्सियत अगर दलित हो तो उसकी जाति के उजागर होने में क्या दिक्कत है? जब ब्राह्मण या अन्य सवर्ण विभूतियों की जातियों का खुलेआम प्रचार किया जाता है तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती। लेकिन किसी दलित विभूति की जाति को उजागर किये जाने का विरोध होने लगता है।
इसके बाद एक और घटना घटी, जिसे मीडिया ने पूरी तरह से दबा दिया। मुंबई में दिनेश शैलेन्द्र की शादी की 31वीं वर्षगाँठ 21 फरवरी, 2015 को अपरान्ह 3 बजे, बेसबॉल बैट और डंडे लिये करीब 30 स्थानीय गुंडे उनके घर में जबरन घुस आये। उन्होंने दिनेश शैलेन्द्र और उनकी पत्नी से उनके मोबाइल छीन कर उन्हें एक कोने में बिठा दिया और उन दोनों के सामने ही घर का एक-एक सामान ट्रक पर लाद लिया। चम्मच तक नहीं छोड़ी। ये गुंडे शैलेन्द्र की हस्तलिखित कवितायें, चिट्ठीयां, पुरस्कार और ट्राफियां भी ले गये। वे तो दिनेश शैलेन्द्र और उनकी पत्नी को भी ट्रक में जबरन बिठाकर ले जाना चाहते थे लेकिन तभी वहां से गुजर रहे एक व्यक्ति ने माजरा समझ कर पुलिस को फोन कर दिया और पुलिस के आने के पहले ही वे ट्रक लेकर भाग निकले।
दिनेश शैलेन्द्र और उनकी पत्नी ने उसी दिन पुलिस में रिपोर्ट लिखाई। दिनेश मुंबई के पुलिस आयुक्त तथा महाराष्ट्र के महानिदेशक से भी मिल चुके हैं लेकिन अब तक पुलिस न तो सामान बरामद कर सकी है और ना ही गुंडों को पकड़ सकी है। पुलिस ने केवल एक व्यक्ति को पकड़ा था, लेकिन उसे भी रिमांड पर लेकर पूछताछ करने की बजाय छोड़ दिया गया।
गुजरे जमाने की एक महत्वपूर्ण फिल्मी हस्ती के पुत्र एवं पुत्रवधु के साथ घटी इस सनसनीखेज घटना को निश्चित ही उनके प्रशंसक एवं सिनेमाप्रेमी जानना चाहेंगे। मीडिया की किसी महत्वपूर्ण फिल्मी हस्ती से जुड़ी घटना में खास दिलचस्पी होती है और ऐसी घटनायें अक्सर सुर्खियां बनती रहीं हैं। लेकिन अपने जमाने के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतकार के बेटे के घर में लूटपाट की घटना को मीडिया ने खबर लायक नहीं समझा। आखिर क्यों? क्या इसलिये कि वे दलित थे?
अगर इस तरह की घटना किसी महान सवर्ण हस्ती के परिवारवालों के साथ हुई होती तो उसे मीडिया की सुर्खियां बनने में देर नहीं लगती। लेकिन एक दलित गीतकार के पुत्र के साथ ऐसा हादसा होता है तो हुआ करे। वैसे इस मामले में यह भी कहा जा रहा है कि कुछ ब्राह्मणवादियों को संभवत इस बात से बहुत तकलीफ हुई होगी कि दलित समाज का कोई व्यक्ति या उसके सगे-संबंधी अपनी सामाजिक स्थिति को छिपाने या उसके लिये शर्मिंदगी महसूस करने की बजाय अपनी जाति का प्रचार कर रहे हैं और उस पर गर्वित हैं।
दलित प्रतिभापुंज शैलेन्द्र अपने समय के अत्यंत महत्वपूर्ण गीतकार थे, जिनके लिखे गीत न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी मशहूर हैं। उनके गीतों की दम पर ही ”आवारा” जैसी फिल्मों को वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता हासिल हुई। लेकिन उनके योगदान की हमेशा अनदेखी हुई और आज तक केन्द्र या राज्य सरकारों ने उन्हें कोई छोटा-सा पुरस्कार भी नहीं दिया, जबकि वे दादासाहेब फाल्के पुरस्कार और यहाँ तक कि भारत रत्न के हकदार हैं।
बिहार के आरा जिले के धुसपुर गांव के दलित परिवार से ताल्लुक रखने वाले शैलेन्द्र का असली नाम शंकरदास केसरीलाल था। उनका जन्म 30 अगस्त, 1921 को रावलपिंडी (जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है) में हुआ था, जहां उनके पिता केसरीलाल राव ब्रिटिश मिलिटरी हॉस्पिटल (जो मूरी केंटोनमेंट एरिया में था) में ठेकेदार थे। शैलेन्द्र का अपने गांव से कोई ख़ास जुडाव नहीं रहा क्योंकि वे बचपन से अपने पिता के साथ पहले रावलपिंडी और फिर मथुरा में रहे। उनके गांव में ज्यादातर लोग खेतिहर मजदूर थे।
प्रारंभिक जीवन
पिता की बीमारी और आर्थिक तंगी के चलते पूरा परिवार रावलपिंडी से मथुरा आ गया, जहां शैलेन्द्र के पिता के बड़े भाई रेलवे में नौकरी करते थे। मथुरा में परिवार की आर्थिक समस्याएं इतनी बढ़ गयीं कि उन्हें और उनके भाईयों को बीड़ी पीने पर मजबूर किया जाता था ताकि उनकी भूख मर जाये। इन सभी आर्थिक परेशानियों के बावजूद, शैलेन्द्र ने मथुरा से इंटर तक की पढ़ाई पूरी की। परिस्थितियों ने शैलेन्द्र की राह में कांटे बिछा रखे थे और एक वक्त ऐसा आया कि भगवान शंकर में असीम आस्था रखनेवाले शैलेन्द्र ने ईश्वर को पत्थर मान लिया। गरीबी के चलते वे अपनी इकलौती बहन का इलाज नहीं करवा सके और उसकी मृत्यु हो गई।
किसी तरह पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने बम्बई जाने का फैसला किया। यह फैसला तब और कठोर हो गया जब उन्हें हॉकी खेलते हुए देख कर कुछ छात्रों ने उनका मजाक उड़ाते हुए कहा कि ‘अब ये लोग भी खेलेंगे।’ इससे खिन्न होकर उन्होंने अपनी हॉकी स्टिक तोड़ दी। शैलेन्द्र को यह जातिवादी टिपण्णी गहरे तक चुभी।
बम्बई में उन्हें माटुंगा रेलवे कें मेकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में अपरेंटिस के तौर पर काम मिल गया। लेकिन वर्कशॉप के मशीनों के शोर और महानगरी की चकाचौंध के बीच भी उनके अन्दर का कवि मरा नहीं और उन्हें अक्सर कागज-कलम लिए अपने में गुम अकेले बैठे देखा जाता था।
काम से छूटने के बाद वे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के कार्यालय में अपना समय बिताते थे, जो पृथ्वीराज कपूर के रॉयल ओपेरा हाउस के ठीक सामने हुआ करता था। हर शाम वहां कवि जुटते थे। यहीं उनका परिचय राजकपूर से हुआ और वे राजकपूर की फिल्मों के लिये गीत लिखने लगे। उनके गीत इस कदर लोकप्रिय हुये कि राजकपूर की चार-सदस्यीय टीम में उन्होंने सदा के लिए अपना स्थान बना लिया। इस टीम में थे शंकर-जयकिशन, हसरत जयपुरी अउर शैलेन्द्र। उन्होंने कुल मिलाकर करीब 800 गीत लिखे और उनके लिखे ज्यादातर गीत लोकप्रिय हुए। उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से समतामूलक भारतीय समाज के निर्माण के अपने सपने और अपनी मानवतावादी विचारधारा को अभिव्यक्त किया और भारत को विदेशों की धरती तक पहुँचाया।
उन्होंने दबे-कुचले लोगों की आवाज को बुलंद करने के लिये नारा दिया -”हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा हैष्। यह नारा आज भी हर मजदूर के लिए मशाल के समान है।
मुम्बई में
उन्होंने फणीश्वरनाथ रेणु की अमर कहानी ”मारे गए गुलफाम” पर आधारित ”तीसरी कसम” फिल्म बनायी। फिल्म की असफलता और आर्थिक तंगी ने उन्हें तोड़ दिया। वे गंभीर रूप से बीमार हो गये और आखिरकार 14 दिसंबर, 1967 को मात्र 46 वर्ष की आयु में उनकी मौत हो गयी। फिल्म की असफलता ने उन पर कर्ज का बोझ चढ़ा दिया था। इसके अलावा उन लोगों की बेरुखी से उन्हें गहरा धक्का लगाए जिन्हें वे अपना समझते थे। अपने अन्तिम दिनों में वे शराब के आदी हो गए थे
बाद में ‘तीसरी कसम’ को मास्को अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भारत की आधिकारिक प्रविष्ठी होने का गौरव मिला और यह फिल्म पूरी दुनिया में सराही गयी। पर अफसोस शैलेन्द्र इस सफलता को देखने के लिए इस दुनिया में नहीं थे।
शैलेन्द्र को उनके गीतों के लिये तीन बार फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया। लेकिन इस दलित विभूति की मीडिया, सवर्ण समाज और सरकार ने जीते जी और उनकी मृत्यु के बाद भी उपेक्षा की।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनके अपने दलित समाज ने भी उन्हें भुला दिया है।
सौजन्य : (फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )